जयपुर आना होता प्रायः मंगलवार के छुट्टी के दिन . शाम को लौटने के बखत जयपुर स्टेशन पर जाकर गाड़ी पकड़ते जो छह बजे के आस पास जयपुर से निकलती थी .
बनस्थली जाने वाली रोडवेज की आख़िरी बस तो पांच बजे ही रवाना हो चुकी होती अतः थोड़ा अधिक समय मिल जाता इसलिए गाड़ी पकड़ते .
वही लोहारू सवाई माधोपुर रूट की शाम की सवारी गाड़ी , इससे ही बम्बई जाने वाले मुसाफिर भी सवाई माधोपुर जाया करते थे , हमें तो खैर बनस्थली - निवाई स्टेशन तक ही जाना होता था . उसी यात्रा की एक बार की बात आज बताता हूं , पहले गाड़ी के माहौल का दृश्य बयान कर दूं .
सवारी गाड़ी की हालत :
इस गाड़ी में जबरदस्त भीड़ तो होती ही थी , ऊपर से तुर्रा ये कि ट्रेन के करीब आधे डिब्बों में रोशनी भी नहीं होती . सर्दियों में तो निवाई पहुंचने तक अंधेरा होने लगता इसलिए अगर बच्चे साथ होते तो प्रायः टॉर्च भी साथ रखते जिससे सामान और बच्चों को ठीक से उतार सकें अपना स्टेशन आने पर .
टिकिट खिड़की पर भी भीड़ होती , मैं तो शहर में वैस्टर्न रेल्वे आउट एजेंसी से पहले ही जाकर टिकिट खरीद लाता तब फिर स्टेशन की राह पकड़ता .
अब एक बार की बात :
यही गाड़ी पकड़ने को मैं जयपुर के रेल्वे प्लेटफार्म पर जाकर खड़ा हुआ तो वहां सहयात्री के रूप में संगीत के प्रोफ़ेसर नाडकर्णी मिल गए . मैं तो उस दिन अकेला ही था , साथ मिल गया , एक से दो होगए . बहरहाल दोनों ही सामान के थैलों से संपन्न थे .
अंजनी कुमार आ गए टहलते हुए हमारे पास . मैंने कहा ," आ जाओ ."
वो मिले पर वापस लौट गए , उनका तो फर्स्ट क्लास में रिजर्वेशन था . उन्हें बम्बई जाना था . कोई पांच सात सूट केस और उनकी वाइफ नियत स्थान पर दीख रहे थे जिधर उन्होंने इंगित किया . उनका और हमारा साथ तो जयपुर के प्लेटफार्म तक गाड़ी आने के पहले तक ही रहा .
बच गए मैं और प्रोफ़ेसर नाडकर्णी जो गाड़ी आने पर जस तस मय सामान के सवार हुए और थोड़ी थोड़ी जगह पाकर सीट पर बैठ गए .
हम आपस में बातें करने लगे . साथ बैठकर बात करते हमारी यात्रा की ये घंटे दो घंटे की अवधि बीत जानी थी पर ज़माना कहां चैन लेने देता है .
क्या हुआ वही बताता हूं :
टंटे की शुरुआत :
रवाना होते समय ही हमारे कम्पार्टमेंट में भी सवारियों का दबाव काफी बढ़ गया था . इसी क्रम में कुछ निहायत लफंगे किस्म के नौजवान लड़के कीचड़ में सने जूते पहने पहने ही ऊपर की सीटों पर आ चढ़े और ताश खेलने में मशगूल हो गए थे . इस पर भी हमें क्या ऐतराज हो सकता था अगरचे वो शान्ति पूर्वक रहते . पर वे शान्ति से कहां रहने वाले थे . थोड़ी ही देर में खेल के साथ धींगा मुश्ती शुरु हो गई और उनके जूतों से मिट्टी हम पर झड़ने लगी .
" ए भाई जरा तमीज से बैठो , नीचे भी इंसान बैठे हैं ."
फ्रोफेसर नाडकर्णी ने थोडा तेज आवाज में उनको समझाइश का प्रयास किया . उनको बात समझ में कहां आने वाली थी , उलटे वो हम से संगठित रूप से उलझने लगे . मुझे उस समय लगा कि अब ये लोग नीचे उतरकर हमसे गुत्थमगुत्था और होंगे और हमारे लिए कठिन स्थिति उत्पन्न हो रही है .
आपात सहायता :
हमारा तो उस ओर घ्यान भी नहीं था . पुलिस की वर्दी में एक थानेदार हमारी ही सीट पर खिड़की के पास चुपचाप बैठे थे . बाद में पता चला वो जयपुर के किसी थाने में अपनी ड्यूटी ख़तम कर अपने गांव जा रहे थे , वे अचानक हमारी हिमायत में उठ खड़े हुए और कड़क कर कुछ इस प्रकार बोले :
" फ्रोफेसर साब समझा रहे हैं और तुमको बात ही समझ में नहीं आ रही ?
मैं अच्छी तरह समझाऊं क्या तुमको ... ?"
उन्होंने अपने पुलिसिया अंदाज में एक की बांह मरोड़ी और एक बारी तो धमकाने को उनका हाथ कमर में लटकी पिस्तौल पर भी चला गया बोले शूट कर दूंगा . फिर उन्होंने उन लफंगों को वहां से हटाकर ही दम लिया .
विपत्ति आई पर इस प्रकार दूर भी चली गई . हम कौन हैं इस बात का अंदाज हमारे तारणहार को शायद हमारी आपसी बात चीत से ही लगा वरना परिचय तो उनके इस हस्तक्षेप के बाद ही हुआ था .
आज प्रोफ़ेसर नाडकर्णी तो रहे नहीं इस वाकये की तस्दीक करने को मुझे ये घटना याद है जो मैंने दर्ज की .
ऐसी अनेक यादें हैं जो बनस्थली की यात्राओं से ही जुड़ी है , आगे फिर कभी बताऊंगा .
अंजनी कुमार की बात भी अधूरी रह गई . वो भी आगे कभी ...
प्रोफ़ेसर नाडकर्णी को याद करते हुए .
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
समीक्षा : Manju Pandya.
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