Monday, 16 January 2017

चश्मे की बात : बनस्थली डायरी 📙

     चश्मे की बात

मैं चश्मा लगाता हूं  और अब तो यह चश्मा मेरी पहचान भी है और जरूरत भी . चश्मा सिरहाने रखकर सोता हूं . घड़ी या मोबाइल फोन देखना हो तो भी चश्मे की जरूरत पड़ती है . पर  यह चश्मा मुझे तो बहुत बाद में लगा  चालीस के पार  उमर होने पर  इधर मेरे तीनों बहन भाई तो कम उमर से ही चश्मा लगाते आये हैं . इस चश्मे की भी एक कहानी है और इससे जुड़ी बातें हैं  जो शायद चश्मे तक सीमित नहीं  रह पाएंगी .
चालीस के पार उमर हुई  तो ख़ास तौर से किताब पढने  में कुछ दिक्कत  लगने लगी  , लगा चश्मे की जरूरत है . डाक्टर एम पी गर्ग साहाब  कुशल नेत्र विशेषज्ञ थे  , परिवार के मित्र थे , उनकी सलाह से पास का चश्मा बनवा लिया . इस चश्मे की दिक्कत यह थी कि इसे साथ रखना पड़ता था . कोई लिखाई  पढ़ाई का काम इसके बगैर नहीं  हो पाता था . ऐसे लोगों को देखकर  मुझे अक्सर कोफ़्त हुआ करती थी जो जरूरत पड़ने पर  किसी का भी चश्मा मांग कर अपना तात्कालिक काम निकाल लिया करते हैं , मैं भला ऐसा कैसे कर सकता था .  इस चश्मे की अवस्था भी ज्यादा दिनों तक नहीं रही  , अगली बार विजन  टैस्ट में  डाक्टर साब ने यह बताया कि डिस्टेंस विजन के लिए भी चश्मे की जरूरत है . दूसरे शब्दों में दो चश्मे - एक पास का चश्मा एक दूर का चश्मा .  जब दो चश्मों की बात आई तो दो लोग मुझे बहुत याद आये . एक काकाजी ( हमारे पिताजी )  और दूसरे मेरे गुरु डाक्टर एस पी वर्मा . इन दोनों लोगों को मैंने  दो प्रकार के चश्मे बरतते देखा था . इन्हें पढ़ाई लिखाई  के लिए हमेशा चश्मा बदलना  पड़ता था . वर्मा साब को तो मैंने क्लास में बार बार चश्मा बदलते देखा था  . इधर काकाजी की वो बात मुझे याद आती है  जब लोकल फंड ऑडिट डिपार्टमेंट में उदयपुर से टूर पर जाते समय वे पास का चश्मा  साथ ले जाना  एक बार भूल गए थे , वो तो उनके  विश्वसनीय  ओझा साब साथ थे उनकी मदद से ही  अपना काम कर पाये और दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करके आये .

अब मेरे लिए यह विचारणीय था कि कैसा चश्मा बने . बाईफोकल चश्मा एक समाधान था जिससे पास में लिखा भी देख पाऊं और नज़र उठाकर सामने भी देख  पाऊं .  रजिस्टर में नाम भी पढ़ पाऊं और विद्यार्थी की सूरत भी देख पाऊं .डाक्टर साब की सलाह से एक्जिक्यूटिव कहे जाने वाले तर्ज का चश्मा बनवा कर मैं अपना काम करने लगा और कुछ ही समय में मैं उसका अभ्यस्त  भी हो गया .इस चश्मे में दो प्रकार के नंबरों के बीच एक  विभाजक रेखा स्पष्ट दिखाई देती थी .

एक दिन की बात एक लड़की ने मुझसे क्लास के बाद पूछा : " सर आप कितने समय से  जयपुर  नहीं गए ? "     " क्यों  ? "  उसका बड़ा भोला उत्तर था :    
" आपके चश्मे का ग्लास फूटा है और  आप इसी से काम चला रहे हैं  ."
अब इसका मैं क्या जवाब देता ,  सोचा कोई बेहतर उपाय करूंगा जिससे यह चश्मा फूटा तो न लगे .  चाहे बाईफोकल हो पर चश्मा एक बार में मेरे पास एक ही रहा .
अगली बार नंबर बदला , उसमे बदलना क्या था , नंबर बढ़ा तो मैंने दूसरी तरह के बाईफोकल  लैंस डलवाये जिनमे विभाजक रेखा न  हो  मेरी बच्ची को वो फूटा चश्मा  न लगे .
बहरहाल ये चश्मा मेरी पहचान भी है और  जरूरत भी . चश्मा मेरे दृष्टिकोण का भी प्रतीक है . यहां यह भी बताता चलूं कि मेरे पास एक ही चश्मा है . कई बार मैं यह चश्मा हाथ में लेकर कह बैठता हूं :" मेरा चश्मा कुछ ऐसा है कि इससे खोटी बात दिखाई नहीं देती ."
सहयोग और समर्थन : Manju Pandya .

सुप्रभात
Good morning

सुमन्त
आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
17  जनवरी 2015 .

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