Monday, 30 January 2017

बनस्थली में : भाग चार : छुट्टी का मामला 💐

  बनस्थली में :  भाग चार  : छुट्टी का मामला

मैंने जब बनस्थली  में  अपना सेवा काल प्रारम्भ किया तो सत्र के बीच में कोई टर्म ब्रेक नहीं होता था परंतु  लड़की को तो छुट्टी जाना ही होता था तब की बात है . एक प्रचलित  कारण होता था :" लड़के वाले देखने  आ रहे हैं ." तब तो मैं कई एक का स्थानीय संरक्षक  भी रहा . मैं कहता ये बात ही दूसरी तरह कही जानी चाहिए :"अपने लिए लड़का देखने जा रही हूँ . "  खैर ये  व्यवस्था  चलती रही जब तक पैमाना छोटा था . आगे जाकर इस प्रणाली में बदलाव आये .

बनस्थली के विश्विद्यालय बन जाने के बाद और छात्रा संख्या बहुत बढ़ जान के  फल स्वरूप  अवकाश स्वीकृति  का अधिकार होस्टल वार्डनों को दे दिया गया जो कागजात देखकर ऐसे मामलों का निबटारा करने  लगीं ,  आखिर लड़की रहती तो उन्हीं के संरक्षण में थी . कहते हैं एक बार वार्डन ने तो अवकाश स्वीकृत कर दिया और पीछे से रसायन शास्त्र  विभाग में प्रैक्टीकल हो गए , ्विभागाध्यक्ष  को पता ही नहीं था कि लड़कियां  बाहर गई हैं    अब इस प्रथा में संशोधन किया गया और विभागाधक्ष की अनुशंसा को भी अवकाश आवेदन के लिए आवश्यक बना दिया गया . यह नियम सभी विभागों पर लागू हो गया .

बनस्थली में कुछ बातें जबानी कहकर तय  हो जाया करती ,आवश्यक नहीं था कि हर मामले में कोई   राज्यादेश जारी हो . मेरे विभागाध्यक्ष  एस बी माथुर साब जिन्हें मैं ब्रदर कहता था और वो मुझे लाड़  की जबान में  भायाजी कहते थे  ने एक बार कह दिया  , "  भायाजी , ये काम थे कर करा देओ करो " अर्थात ये काम तुम कर दिया करो और इस प्रकार ये शक्ति हस्तांतरण हो गया था और अवकाश की सिफारिश मैं करने  लगा था . राजनीतिशास्त्र विभाग में ये व्यवस्था सुचारु रूप से चल रही थी . ऐसे कामकाज के बाबत मैंने प्रोफ़ेसर इकबाल नारायण से दो शब्द सीखे थे  ," रिकमेंडेड एंड फॉर्वरडेड " ,  मैंने इन्हीं शब्दों को अनुवाद कर बहुत बार बरता :"  अनुशंसित और  अग्रप्रेषित ." 

अब एक बात दीगर विभाग के बारे में बताता  हूं . एक दिन इतिहास विभाग की एक  एम ए में पढ़ने वाली लड़की डीन आफिस में आवकाश का आवेदन लेकर खड़ी थी पर कठिनाई यह थी कि विभागाध्यक्ष  परिसर में नहीं थे इस लिए काम अटक रहा था . इतिहास विभाग के तब के दो और लोग वहां आफिस में ही खड़े थे  मैंने उनसे कहा कि  उनमें से कोई भी सिफारिश कर दे पर दोनों ने ही कह दिया कि वे इसके लिए अधिकृत नहीं हैं . आखिर हारकर मैं बोला :" लावो सिफारिश मैं कर देता हूं  , देखते हैं क्या नतीजा निकलता है ." और मैंने आवेदन पर हस्ताक्षर कर दिए . उसी दिन मैंने अपना सिद्धांत प्रतिपादित किया था " सिफारिश का पत्र तो मैं भारत के राष्ट्रपति के नाम भी चाहो तो दे दूंगा , मानना न मानना उनका काम है  ". बहर हाल लड़की को छुट्टी मिल गई  . इस प्रसंग पर और कुछ लिखूंगा , या तो कमेंट में या अगली पोस्ट आज के लिए इति .
समर्थन : Manju Pandya
#बनस्थलीडायरी.

सुप्रभात
Good morning .

सुमन्त

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
31 जनवरी 2015 .

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