ननिहाल के रास्ते में :
मनोविज्ञान की शिक्षा किताबों से विद्वद्जनो से तो प्राप्त होती है पर कभी कभी निपट देहाती लोग ऐसी शिक्षा दे जाते हैं कि मानना पड़ता है . एक काफी पुरानी घटना मुझे बार बार याद आ जाती है वही आज बताता हूं , उससे मुझे क्या सीख मिली वह भी शायद कह पाऊं .
हम लोगों के ननिहाल की यात्रा इस मायने में थोड़ी कठिन हुआ करती थी कि आज की तरह ठेठ तक पक्की सड़क बनी हुई नहीं थी . जयपुर दिल्ली रेल मार्ग पर बसवा स्टेशन पर उतर कर कच्चे रास्ते से बैलगाड़ी में बैठकर सकट गांव तक जाते तब हमारा ननिहाल आता . नाना नानी तो मेरे होश सम्हालने से पहले ही नहीं रहे लेकिन मामाजी मामी के जमाने में और उनके बाद भी वहां जाना आना रहा . अम्मा के लिए वहां जाना उनकी बचपन की यादों को ताजा करना होता था , बरसों बरस शहर में रह लेने के बाद भी अपना बचपन का घर मन में कैसा बसा रहता है यह मैं अम्मा से ही जाना था.
आज बसवा सकट मार्ग की जिस यात्रा का मैं यहां उल्लेख कर रहा हूं यह हमारे बचपन की नहीं बड़े हो जाने के बाद की बात है पर उस समय भी यातायात की स्थिति वही पहले जैसी थी याने कच्ची सड़क और बैलगाड़ी की सवारी . इस यात्रा में हम सकट से बसवा आ रहे थे , अम्मा के साथ मैं और भाई साब तो थे ही , मामाजी और कलावती जीजी और उसके बच्चे भी उसी बैलगाड़ी में सवार थे . बैलगाड़ी में सवारियों का पर्याप्त बोझ था . कच्चे रास्ते में एक जगह काफी पानी भरा हुआ था और कीचड भी हो गया था . भरे पानी और कीचड के बीच जाकर बैलगाड़ी अटक गई , बैल के लिए आगे बढ़ना उसकी ताकत से बाहर था . अब मुझे तो यही उपाय तय लग रहा था कि कीचड़ के बीचों बीच ही उतरना पड़ेगा . बैलगाड़ी वाले के सारे उपायों के बाद भी बैल तो आगे गाडी नहीं खींच पा रहा था . आस पड़ोस के एक दो किसान भी आ गए पर बैल तो पैर ही आगे नहीं बढ़ा रहा था . गाड़ी वाला बोला ' नटिया लाओ ' . मैं नहीं समझ पाया कि ये नटिया कौनसी चीज है जिससे बैल गाड़ी आगे चलेगी . पर नटिया के आने पर मैं भी समझ गया , वह एक छोटा सा बछड़ा था जो पड़ोस का खेत मालिक लेकर आया था . बछड़े को बैल के ठीक आगे खड़ा कर आगे की और रवाना किया गया और उसकी देखा देखी में बैल ने भी आगे की ओर कदम बढ़ा दिया और कुछ ही मिनटों में बैल गाड़ी दलदल से बाहर आ गई . बैल को लगा कि जो काम छोटा सा बछड़ा कर सकता है वह क्यों नहीं ! इसी भरोसे ने बैल को मय गाड़ी के बोझ के आगे चला दिया था . ये जंतु मनोविज्ञान की बात जो भोले ग्रामीणों ने उस दिन प्रत्यक्ष सिद्ध की थी मानव मनोविज्ञान के लिए भी सही है , फरक इतना है कि बैल भोला प्राणी एक बार को यह भूल गया था कि उस पर तो वजन है नटिया पर कोई नहीं .
कहते हैं चालीस के बाद ही आदमी की अवस्था गृहस्थी में रहते बैल जैसी होती है , बछड़ों को आगे चलता देख वो भी होडां होड़ करने लगता है पर उसको अपना वजन नहीं भूल पाता . यही थोड़ा सा फरक है .
समर्थन : Manju Pandya .
सुप्रभात
Good morning
सुमन्त
गुलमोहर , बापू नगर , जयपुर .
25 जनवरी 2015 .
#सकट यात्रा.
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