एक्जामिनरशिप : जयपुर डायरी
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ये उस ज़माने की बात है जब मुझे बनस्थली में काम करते बीस एक साल हो हो चुके थे और वो ग़र्मी की छुट्टी का समय था . बनस्थली को विश्वविद्यालय बने भी एक अरसा हो गया था . एक्जामिनरशिप के काम मैं ओढ़ लिया करता था और इन कामों का भूत मेरा रक्त चाप बढ़ाया करता था . बाई द वे ऐसे काम ओढ़ना फिर तो मैंने जल्दी ही बंद भी कर दिया था . पर ये तो जब ओढ़े थे तब की बात है .
एक तो पराए विश्वविद्यालय का ख़ुशभक्ति में पेपर बनाया था और इस चक्कर में मैं हैड एक्जामिनर बना दिया गया था . वो ही खतो खिताबत और बैठे ठाले पोस्ट आफिस के चक्कर , साथ में अपने ज़िम्मे के काम वो तो अब करता ही करता . ऊपर से राजस्थान यूनिवर्सिटी का सेंट्रल इवेलुएशन का न्योता और झेल लिया था उस फ़्रंट पर क्या हुआ वो ही बात आज बताता हूं .
मोर्चे पर : जयपुर में
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कामर्स कालेज के एक थिएटर में परीक्षा की कापियां जाँचने का कारोबार चल रहा था , मैं भी इस अभियान दल का भाग था . एक परीक्षक पच्चीस पच्चीस कापी के दो बंडल जांचता . सभी कोई इतना काम तो कर पटकते . ये काम ऐसी फटाफटी में होता कि लोग अपना अपना काम निबटाकर चल देते . यहां मेरी धीमी गति के चलते बड़ी मुश्किल से कभी कभी तो एक ही बंडल निबट पाता और मैं अभियान में उस दिन की साझेदारी स्थगित कर देता . उसी दौर में डायस पर बैठे एक बाबू से हुआ संवाद यहां दर्ज किए देता हूं :
बाबू बोला :” साब आप कापी जाँचने में इत्ती देर लगाते हो ? लोग तो इत्ते में दो बंडल निबटा देते हैं .”
और मैं बोला :” भाई मेरे जिस कापी को लिखने में छोरे छोरी तीन घंटे लगावें उसे जाँचने में मैं तीन मिनिट भी न लगाऊँ ये तो मुझसे नहीं हो सकता …. न हुए सही दो बंडल !”
आज इस पुराने क़िस्से को यहीं विराम दूँ न तो फिर शायद कोई न कहने की बात कह बैठूँगा .
आशियाना आँगन , भिवाड़ी से सुप्रभात
सुमन्त पंड़्या
@ भिवाड़ी
रविवार २२ जनवरी २०१७.
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