Thursday, 16 November 2017

बाईस रूपए का थान खरीदा था ** भाग एक .




रवीन्द्र निवास से गुलमोहर

Thursday, 3 December 2015

            बाईस रूपए का थान खरीदा था ~ भाग एक .

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  #बाईस रूपए का थान खरीदा था  ~ भाग एक .

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ये तो कोई कल की  सी बात लगती है जब बड़ी चौपड़ पर लगने वाले जुलाहों के हाट ( कोल्याओं का हटवाड़ा ) से बाईस रूपए का थान खरीदा था और मैंने अपने जीवन में पहला ठंडा सूट सिलवाया था .

थान की खरीद से लेकर थान के बरतने की कहानी थोड़ी दिलचस्ब है , शायद आप उसे सुनना पसंद करें ऐसा सोचकर ही यहां यह थान - कथा लेकर बैठा हूं .

अगर च संभव हो गया तो उस थान की बची खुची एक पतलून जो मेरे पास है उसकी तस्वीर भी उतारूंगा और यहां जोड़ूंगा पहले कथा तो पूरी कर लेवूं .

सौदे की पृष्ठभूमि ~

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जब मैंने बनस्थली में काम करना शुरु किया तो खादी पहनने की आदत हो गई इसी क्रम में खादी भंडारों से खादी खरीदी शुरु हुई . गांधी जयन्ती के बाद के दिनों में इस पर कुछ छूट भी मिलती पर आजाद भारत में ये कोई सस्ता पहनावा नहीं रह गया था . रख रखाव और निर्वाह भी थोड़ा मेंहगा ही रहा .

एक दिन मुझे विचार आया कि क्यों न किसी जुलाहे से ही खादी खरीदी जाए और सरदार जसवंत सिंह जी से सूट सिलवा लिया जाय .

सरदार जसवंत सिंह उन दिनों बापू बाज़ार में 62 नंबर की दूकान में अपना सिलाई का कारोबार किया करते थे . वे ही मेरे ड्रेस डिजाइनर हुआ करते थे . बाद में तो मेरे देखते देखते ही सरदार जी ने अपनी दूकान बढ़ा दी और रिटायरमेंट ले लिया , दूकान में सरदार जी के  बेटों ने महिला प्रसाधनों का कारोबार भी शुरु किया था और मैंने जीवन संगिनी को कहा था कि अब वो उनकी ग्राहक बन सकती हैं . ये तो हुई ड्रेस डिजाइनर की बात . पर असल बात तो जुलाहे की बनाई खादी की थी . ड्रेस डिजाइनर की बात तो इसलिए आ गई कि तब तो कम से कम मेरे नाप के तैयार कमीज पतलून  खादी भंडारों में मिलते नहीं थे  और तैयार ठंडा सूट तो कहां से मिलता .

जुलाहों का साप्ताहिक हाट ~

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एक रविवार को दिन ढलने से थोड़ा पहले मैं फूफाजी को साथ लेकर  बड़ी चौपड़ के दक्षिण - पूर्व  खंदे में पहुंचा और जुलाहों के बुनकर लाए हुए कपडे के थान देखने लगा . थान पसंद आता देख जुलाहा फूफाजी को समझाने लगा  :

“ डेढ़ पाट की बण जायली.”

ये मोटा करघे पर बुना हुआ , हाथ के काते हुए सूत का  कपड़ा था जो प्रायः ओढ़ने की दोहर बनाने के काम मे लिया  जाता  था और मैं उसे पहनने के कपडे के रूप में देख रहा था .

मोल भाव के बाद जुलाहे  ने बाईस रूपए में पूरा थान दे दिया था और फिर सिलसिला शुरु हुआ उससे कपडे सिलवाने का . कैसे कैसे कपडे सिले और कौन कौन सिले और बिना सिले कपडे उसमें से ले गया वो भी बताऊंगा .

इतिहास अपने आप को दोहराता है ~ वो बात भी बताऊंगा .

अभी हाल के लिए तो बची हुई एक पतलून है जो यादगार रूप में बनस्थली से आए सामानों के साथ आई है .

आज के लिए सायंकालीन सभा स्थगित ..

शुभ संध्या

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सुमन्त पंड्या .

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

17 नवम्बर 2015 .

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आज ब्लॉग पर सचित्र प्रकाशन  

जयपुर 

शुक्रवार १७ नवम्बर  २०१७ .

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Sumant Pandya at 09:07


 

2 comments:

Sumant Pandya3 December 2015 at 09:22

बड़ी कठिनाई से ये पोस्ट यहां ब्लॉग पर साझा कर पा रहा हूं . ब्लॉग गतिविधि सीख रहा हूं .

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Sumant Pandya3 December 2015 at 09:23

बड़ी कठिनाई से ये पोस्ट यहां ब्लॉग पर साझा कर पा रहा हूं . ब्लॉग गतिविधि सीख रहा हूं .

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About Me

Sumant Pandya 

लगभग चार दशक बनस्थली विद्यापीठ में राजनीति शास्त्र विषय के अध्यापन के बाद अपने आवास गुलमोहर में जयपुर में रहता हूं . सभी नए पुराने दोस्तों और अपनी असंख्य छात्राओं से भी संपर्क बनाए हुए हूं . फेसबुक और ब्लॉग की दुनियां इसमें मददगार होगी यह आशा है .View my complete profile

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