Tuesday, 21 November 2017

घुड़सवारी मैदान में   - बनस्थली डायरी .

पुरानी यादें । जो जानते हैं उन्हें पात्र परिचय की कोई आवश्यकता नहीं होगी । जो जानते ही नहीं उन्हें परिचय की आवश्यकता भी क्या है .....?             


घुड़सवारी मैदान में :


यहां दी गई तस्वीर थोड़े समय पहले की है और जो प्रसंग मैं सुनाने जा रहा हूं वह इससे थोड़े समय बाद का है । हमारे घर में परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि परिवार जयपुर में रह रहा था और मैं बनस्थली में अकेला रह रहा था । बनस्थली परिवार तो था ही पर मैं तो घर में अकेला रहने की कह रहा हूं । एक बार जीवन संगिनी बच्चों को साथ लेकर बनस्थली आयीं । उदय भैया भी साथ था बाकी तीनों के । बच्चे घुड़सवारी देखना चाहते थे । वैसे घुड़सवारी मैदान के अतिथि पांडाल में मेरी ड्यूटी भी लगती थी उत्सव के समय इसलिए रिसालदार जी मुझे जानते थे और विनीता हमें समयानुसार मैदान में ले गई थी जो एक कुशल घुड़सवार थी ।


अभ्यास शुरु होने वाला था घोड़े घोड़ी अस्तबल से लाये जा चुके थे और मैं छह बच्चों के साथ मैदान के छोर पर खड़ा था । स्वीटी जो कि मेरे पास प्री यूनिवर्सिटी कक्षा में पढ़ती थी ने पूछा: ये सब बच्चे आपके हैं सर ? " मैंने हां ही कहा । इधर रिसालदार जी का मुझपर ध्यान गया तो बोले : वहां बाहर क्यों खड़े हो ? बच्चों को यहां भेज दो तो घुड़सवारी करवा दूंगा । 

           उदय और अनुज , दोनों थोड़े छोटे बड़े उपयुक्त पाए गए इन दोनों को एक एक घोड़े पर बैठाकर नकेल सईसों के हाथ में देकर रिसालदार जी बोले : जाओ इनको मैदान का चक्कर कटवा लाओ " 

      दोनों दादा चले गए देखकर उस समय जो सबसे छोटा मेरी गोद में था , वह मचलने लगा । वो मुठ्ठी में पकड़कर मेरी कालर खींच रहा था । यह देखकर रिसालदार जी बोले : अरे दादाभाई तेरा भी करता हूं इंतजाम ।

          रिसालदार जी ने अपने एक घोड़े पर शानदार जीन कसवाई , खुद उसपर बैठे छोटे वाले को आगे बैठाया लगाम भी उसके हाथ में दे दी मानो वही चला रहा हो ,रकाब में पैर तो रिसालदार जी के थे जिससे वे घोड़ी को नियंत्रित कर रहे थे । बड़े दो के साथ साथ रिसालदार जी की युक्ति से सबसे छोटा भी घुड़सवारी कर आया । जब लौटकर मेरे पास आया तो इसकी ख़ुशी का पारावार न था । दोनों हाथों से लगाम की मुद्रा बनाके हुम हुम करके मुझे बताता रहा कि वो क्या सफलता अर्जित करके आया है ।


उसदिन तो मिशन घुड़सवारी सफल रहा पर कुछ दिनों पहले जीवनसंगिनी ने मुझे यह कहकर ताना दिया कि मैंने उस दिन शगुन टला दिया तभी तो छोटा वाला घोड़ी चढ़ने को टालमटोल करता है ।


Good morning friends !

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ये संस्मरण  फ़ेसबुक पर तो बना रहा  ,  पहली बार आज के दिन  २०१४ में लिखा था  , साल दर साल फ़ेसबुक ने याद भी दिलाया पर अभी न तो ब्लॉग बना था और न ही ये संस्मरण ब्लॉग पर दर्ज हुआ था , फ़ेसबुक पर अलबत्ता इस पर काफ़ी बहस हुई थी . 

आज इसे ब्लॉग पर प्रकाशित करने से पहले  अपने मित्र प्रियंकर पालीवाल की तब की टिप्पणी यहां जोड़ता हूं  , उन्होंने कहा था —

“    आपने शगुन टलाकर अच्छा नहीं किया . देखिए ! अब बच्चा घोड़ी देख कर ही बिदकता है . :) तस्वीर सचमुच बहुत सुंदर है . वर्णनशैली की सादगी-सुथराई और सहजता देखते ही बनती है . आपको आत्मकथा लिखनी चाहिए . “

ऐसे ही अविनाश दास ने कहा था —

“   बहुत खूबसूरत यादें... और अंदाज आपका वही, बेमिसाल बतकही वाला... अब नयी किस्त का इंतजार है, नयी तस्वीरों के साथ... “

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तब से अब में समय और आगे बढ़ गया , बच्चे बड़े हो गए पर ये तो स्मृतियों  के चलचित्र हैं  जो आज भी मुझे दीखते हैं . 

आज इस संस्मरण को सहेजने को ब्लॉग पर प्रकाशित किए देता हूं  .

जयपुर 

बुधवार  २२ नवम्बर २०१७ .

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1 comment:

  1. यहां ये स्पष्टीकरण आवश्यक है कि उल्लेख अनुज माथुर का है .

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