आज इतिहास के झरोके से एक चित्र ब्लॉग पर जोड़ता हूं . ये चित्र महज़ संयोग से ही मेरे पास उपलब्ध था और जब पहली बार इसे फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर जोड़ा था तो असंख्य लोगों ने ख़ास तौर से बनस्थली की लड़कियों ने इसे साझा किया था . तब मेरा ब्लॉग नहीं हुआ करता था जब तीन बरस पहले ये पोस्ट लिखी गई थी .
आज भोर में ये विचार आया कि क्यों न इस चित्र और पोस्ट को ज्यों की त्यों ब्लॉग पर दर्ज कर देवूं .
पोस्ट इस प्रकार है —
“ बनस्थली के मेरे सेवा काल काल का पहला सत्रांत #बनस्थलीडायरी साझा : Manju Pandya
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एक संयोगों से उपलब्ध दुर्लभ चित्र जिसे फेसबुक परिवार और बनस्थली परिवार से साझा करना मैंने उपयुक्त समझा ।
विदाई समारोह में एम ए के विद्यार्थियों के आग्रह और उपायों से लिया गया चित्र ।
24 नवम्बर की भोर में इसे जारी करने बाबत पोस्ट भी जोड़ूंगा । अभी एक बार गुड मॅर्निंग कहकर नेट से उठता हूं ।
शुभ प्रभात !
पात्र परिचय :
मेरी तेरी इसकी उसकी बात करने लगता हूं तो मेरी बातों में तारतम्य प्रायः बिगड़ जाता है इसके लिए क्षमा चाहते हुए सबसे पहले बाहरी दुनियां के लिए जो पंडित हीरा लाल शास्त्री कहलाये उनकी चर्चा , वे आपाजी क्यों कहलाये । भले घरों में बच्चों को आप बोलना सिखाया जाता है ताकि वे अपने सम्बोधन में इसका प्रयोग सीखें । हमारे समाज में ये आप और तुम का भेद और बड़ा चक्कर है इस बाबत फिर कभी....
बेटी शांता बाई को भी यही सिखाया गया , वह अपने पिता को आप कहती । आप के साथ जी का प्रयोग सहज रूप से होने लगा । ये जीकारा तो हमारे देश में कुछ ऐसा है कि अंकल अंकलजी हो गए सर सरजी हो गए , आज तक होते आये हैं हालांकि ये दूसरी भाषा और समाज से आये सम्बोधन हैं और हमने भी इन्हें अपना लिया है । खैर.. मुख सुख के कारण आपजी सम्बोधन आपाजी हो गया । बनस्थली के इतिहास में उनका नाम ही आपाजी हो गया । इस चित्र में सबसे बड़े कद के वे ही हैं । बेटी तो चली गई और न जाने की उमर में चली गई परंतु पिता को नाम दे गई ।
आपाजी के एक ओर जीजी याने सुशीला व्यास खड़ी हैं जो यों तो छुटपन से यहां आ गयीं थीं , उस सत्र में विभागाधक्ष बनी थीं , वाइस प्रिंसीपल का अतिरिक्त प्रभार भी उनके पास था , ज्ञान विज्ञान मंदिर में एक नंबर का कमरा उनका कमरा हुआ करता था । लगभग दस बजे वे आती थीँ अतः सुबह आठ बजे की मेरी क्लास के लिए अपना कमरा उन्होंने मुझे दे दिया था , ये ही छात्राएं थीं , जो इस चित्र में दिखाई दे रही हैं । ये तो तब की बातें हैं .....
आपाजी के दूसरी ओर खड़े हैं डाक्टर रामेश्वर गुप्ता जो उसी सत्र में मेरे वहां पहुंचने से पहले प्रिंसिपल बनाए गए थे । उनके सहज मित्रवत व्यवहार को मैं जीवन में कभी भूल नहीं सकूंगा । कभी अमृतसर में पढकर आये थे , कहते : असी तो छोटे छोटे जन हैं जी........
प्रिन्सिपल गुप्ता साब के बराबर मैं खड़ा हूं , थोड़ा सा पीछे की ओर , अब अपने बारे में भला क्या कहूं....... .......केवल अपनी छात्राओं को सलाम करता हूं जो इस तसवीर में साथ खड़ी है , इनकी बदौलत ही तो मैं इस तसवीर में हूँ । बाकी बातें फिर कभी ....... “
सुप्रभात 🌻
नमस्कार 🙏
जयपुर
शुक्रवार २४ नवम्बर २०१७ .
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