Tuesday, 31 January 2017

गुस्सा नाक पे : भिवाड़ी डायरी 🎆🎆

    गुस्सा नाक पे :  भिवाड़ी डायरी
--------------   ---------------         अभी दो दिन पहले की बात है मैं और जीवन संगिनी आशियाना आँगन के बाहर से सैर के बाद सब्जी के थैले लेकर परिसर में घुस रहे थे कि वहां एक रंबाद होते देखा उसी की बात आज बता रहा हूं फिर आप बीती भी सुनाऊंगा , बताऊंगा .

बाहर का सीन :
-------------     मेन गेट पर सिक्योरिटी पोस्ट पर खड़ी लड़की अपनी कैफियत में बड़बड़ाए जा रही थी और उधर सिक्योरिटी चीफ के सामने एक अपेक्षाकृत युवा आशियाना रहवासी का गुस्सा पूरे उबाल पर था . फटे में पैर देने की मेरी आदत , जो हमेशा से है , उसके मुताबिक़ मैं तो मामले में उलझना ही चाहता था पर जीवन संगिनी के रोके से मैं वो न कर पाया ,  ये तो अब अफ़सोस ही रह गया  , खैर .

गेट पर लड़की क्यों ?
-------------------   ये शायद इसलिए है क्योंकि वहां उसे आती जाती घरों में काम करने वाली सेविकाओं की गतिविधि पर नज़र रखनी होती है . ये लड़की हम दोनों से रोज तो मुस्कुराकर मिलती है जब हम पैडिस्ट्रियन वे से अंदर आते हैं पर इस मौके पर वो भी गुस्से में बड़बड़ा रही है , ऐसा क्या हो गया आखिर ?
लेना एक न देना दो , हुआ सिर्फ इत्ता बताया कि उसने नौजवान से उसका फ्लैट या के टावर नंबर पूछ लिया बताया और वो ही उसे बुरा लग गया . बोलो वो यहां रहते हैं और उन्हीं से उनकी पहचान  पूछी जा रही है , ये क्या बात हुई भला ? हो गया रंबाद .
अगर दरवाजे पर पूछताछ होती है तो इसमें आपकी ही हिफाजत है ये तो उल्टे अच्छी बात है , पर कोई न समझे उसका क्या ?
एक और भी बात है ये नई पीढी के लोग  अपने काम से दिन भर तो बाहर रहते हैं और रात बिरात घर लौटते हैं तो द्वार प्रहरी अगर न पिछाणे तो इसमें अच्चम्भे की कोई बात नहीं .

अब हमारी सुणो :
--------------         जब कभी लंबे अरसे बाद बाहर से आते हैं तो बाहर की मोटर देख द्वारपाल टोकते हैं और आने का सबब पूछते हैं . देखिए संवाद :
" मिलने आए हैं ? "
"  मां बाप हैं , केवल मिलने नहीं रहने आए हैं ।"
और इसका फायदा ये कि द्वारपाल बच्चों को फोन से सूचित करते हैं और बच्चे टॉवर के नीचे खड़े मिलते हैं हमारे पहुंचने पर . ये हर बार की बात है . वैसे ये अपडेट सेल फोन से भी आ जाती है पर कभी नैटवर्क न भी होवे  तो अच्छा ही है ये सूचना कि ये हलचल द्वारपालों की बदौलत होती है . अब बोलो बुरा मानें  के राजी होवें !

कल तो हद हो गई :
-------------------      हम दोनों  एक ऑटो रिक्शा से आशियाना में एन्ट्री ले रहे थे और नियमानुसार हमने दरवाजे पर अपना टॉवर नंबर बताया तो द्वारपाल ने जल्दी से  फंटा तो उठाया ही बड़ा गहक कर ये और बोला :
" जानते हैं ..जानते हैं ."
अब लो कर लो बात !  और ये सुनकर जो चित्त प्रसन्न हुआ है उसका तो क्या कहना मानों हम और किसी के नहीं उस द्वारपाल के ही माँ बाप होवें ।
अब कल क्या लेणे को बाहर गए थे और ऑटो से क्यों आए ये एक अलग कहानी है वो आगे कभी आएगी बात .
अभी तो युवा पीढी के लिए इत्ती सी बात :

" काहे इत्ता गुस्सा नाक पे ?"😊✋✋
नमस्कार
सुप्रभात 🔔🔔
बसंत पंचमी की बधाई 🌕🌕

सुमन्त पंड्या .
@ भिवाड़ी .
बुधवार १  फरवरी २०१७ .
#स्मृतियोंकेचलचित्र #भिवाड़ीडायरी



Monday, 30 January 2017

बनस्थली में : भाग चार : छुट्टी का मामला 💐

  बनस्थली में :  भाग चार  : छुट्टी का मामला

मैंने जब बनस्थली  में  अपना सेवा काल प्रारम्भ किया तो सत्र के बीच में कोई टर्म ब्रेक नहीं होता था परंतु  लड़की को तो छुट्टी जाना ही होता था तब की बात है . एक प्रचलित  कारण होता था :" लड़के वाले देखने  आ रहे हैं ." तब तो मैं कई एक का स्थानीय संरक्षक  भी रहा . मैं कहता ये बात ही दूसरी तरह कही जानी चाहिए :"अपने लिए लड़का देखने जा रही हूँ . "  खैर ये  व्यवस्था  चलती रही जब तक पैमाना छोटा था . आगे जाकर इस प्रणाली में बदलाव आये .

बनस्थली के विश्विद्यालय बन जाने के बाद और छात्रा संख्या बहुत बढ़ जान के  फल स्वरूप  अवकाश स्वीकृति  का अधिकार होस्टल वार्डनों को दे दिया गया जो कागजात देखकर ऐसे मामलों का निबटारा करने  लगीं ,  आखिर लड़की रहती तो उन्हीं के संरक्षण में थी . कहते हैं एक बार वार्डन ने तो अवकाश स्वीकृत कर दिया और पीछे से रसायन शास्त्र  विभाग में प्रैक्टीकल हो गए , ्विभागाध्यक्ष  को पता ही नहीं था कि लड़कियां  बाहर गई हैं    अब इस प्रथा में संशोधन किया गया और विभागाधक्ष की अनुशंसा को भी अवकाश आवेदन के लिए आवश्यक बना दिया गया . यह नियम सभी विभागों पर लागू हो गया .

बनस्थली में कुछ बातें जबानी कहकर तय  हो जाया करती ,आवश्यक नहीं था कि हर मामले में कोई   राज्यादेश जारी हो . मेरे विभागाध्यक्ष  एस बी माथुर साब जिन्हें मैं ब्रदर कहता था और वो मुझे लाड़  की जबान में  भायाजी कहते थे  ने एक बार कह दिया  , "  भायाजी , ये काम थे कर करा देओ करो " अर्थात ये काम तुम कर दिया करो और इस प्रकार ये शक्ति हस्तांतरण हो गया था और अवकाश की सिफारिश मैं करने  लगा था . राजनीतिशास्त्र विभाग में ये व्यवस्था सुचारु रूप से चल रही थी . ऐसे कामकाज के बाबत मैंने प्रोफ़ेसर इकबाल नारायण से दो शब्द सीखे थे  ," रिकमेंडेड एंड फॉर्वरडेड " ,  मैंने इन्हीं शब्दों को अनुवाद कर बहुत बार बरता :"  अनुशंसित और  अग्रप्रेषित ." 

अब एक बात दीगर विभाग के बारे में बताता  हूं . एक दिन इतिहास विभाग की एक  एम ए में पढ़ने वाली लड़की डीन आफिस में आवकाश का आवेदन लेकर खड़ी थी पर कठिनाई यह थी कि विभागाध्यक्ष  परिसर में नहीं थे इस लिए काम अटक रहा था . इतिहास विभाग के तब के दो और लोग वहां आफिस में ही खड़े थे  मैंने उनसे कहा कि  उनमें से कोई भी सिफारिश कर दे पर दोनों ने ही कह दिया कि वे इसके लिए अधिकृत नहीं हैं . आखिर हारकर मैं बोला :" लावो सिफारिश मैं कर देता हूं  , देखते हैं क्या नतीजा निकलता है ." और मैंने आवेदन पर हस्ताक्षर कर दिए . उसी दिन मैंने अपना सिद्धांत प्रतिपादित किया था " सिफारिश का पत्र तो मैं भारत के राष्ट्रपति के नाम भी चाहो तो दे दूंगा , मानना न मानना उनका काम है  ". बहर हाल लड़की को छुट्टी मिल गई  . इस प्रसंग पर और कुछ लिखूंगा , या तो कमेंट में या अगली पोस्ट आज के लिए इति .
समर्थन : Manju Pandya
#बनस्थलीडायरी.

सुप्रभात
Good morning .

सुमन्त

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
31 जनवरी 2015 .

सरवणी बाई की याद : बनस्थली डायरी 🔔🔔

  सरवणी बाई की याद आ जाती है : #बनस्थलीडायरी .
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
बनस्थली से हम लोग आए उससे थोड़े दिनों पहले तक सरवणी बाई हमारे घर में काम करने आया करती थी  . भोली और ग्रामीण महिला की अपनी समझ थी . उसके घर में कारपेंटरी का व्यवसाय तो चलता ही था जिस में उसके पति और बेटा राम अवतार  लगे थे , कुछ खेती की जमीन भी थी .
44 रवींद्रनिवास में एक अस्थाई अहाता बनवा कर कुछ फूल पौधों की परवरिश हम भी किया करते थे . दो नीम के पेड़ और एक गुड़हल का पेड़ तो आज भी वहां है जिनसे मेरा तो आज भी लगाव है . जीतू भैया इस बात की तस्दीक करेंगे जो अब  वहां रह रहे हैं .
एक दिन की बात .
~~~~~~~~~~~
इसी अहाते में कुछ निराई गुड़ाई चल रही थी और प्रसंग कोई  ऐसा पौधा रोप देने का था जो दरख़्त बन जावे तो अनायास ही सरवणी बाई बोल पड़ी और मुझे समझाने लगी  , सुनिए उस की बात :
“ माट साब  ! अशान बात छै क  आम खा अर ऊं की  गुठली बो देवै न  तो ऊं सैं भी पेड़ ऊग्यावै छै .”
अर्थात :
“माट साब ऐसी बात है कि आम खाकर उसकी बची हुई गुठली को बो दिया जाए तो उस से भी पेड़ उग आता है .”
मैंने उसकी बात मान ली , एक दम सही बात जो थी .
वैसे तो वो मुझे मान देती थी पर मेरी समझ को उसने क्या माना . भोली महिला समझी कि शहर में पला बड़ा  हुआ यह व्यक्ति पेड़ कैसे बनता है ये बात तो क्या ही जानता होगा . खैर उसने एक समझदारी की बात बताई और मैंने मान ली थी .

अब क्यों आई ये बात याद ?
~~~~~~~~~~~~~~~~~
जब से सोशल मीडिया से जुड़ा हूं मेरे कई शुभ चिंतकों को देखकर मुझे सरवणी बाई की सहसा याद हो आती है . इस बात को और ज्यादा खोलकर समझाने की आवश्यकता शायद नहीं है .
आज के लिए भोर की सभा स्थगित .
आप को आज की जगार मुबारक .
सुप्रभात .
टी टाइम विद :  Manju Pandya
सुमन्त पंड्या
@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया . बापू नगर जयपुर .
रविवार 31 जनवरी 2015 .

Sunday, 29 January 2017

लड़की को पढ़ाया : बनस्थली डायरी 💐

     लड़की को पढ़ाया तो भी क्या  ?

एक दिन बनस्थली में अचानक एक नौजवान मेरे  घर आया जो दिल्ली पुलिस का अधिकारी था , उसने अपना परिचय तो  बाद में दिया पहले पूरा झुककर मेरे पांव छुए . ऐसे  नहीं जैसे घुटना छूकर आजकल लोग सम्मान जता देते हैं . कोई मिलने आए यह तो हम लोगों को  बहुत अच्छा लगता पर  पुलिस वाला घर आए तो अटपटा तो लगता ही  है , एक दिन निवाई थाने  का सिपाही एक मोटर साइकल  दौड़ाता वॉरेंट लेकर चला आया था उसकी याद अभी ताजा थी ,  जितनी देर इस सुन्दर नवयुवक का परिचय न मिला मुझे तो वही प्रसंग याद आता रहा और  कौतुहल बना रहा . परिचय मिलने के बाद भी प्रश्न बना रहा  कि पुलिस वाला क्यों आया और ऐसा  व्यवहार  भला क्यों कर रहा है जब कि कोई पूर्व  परिचय भी नहीं है .  सारा  माजरा तब समझ में आया जब थोड़ी देर बाद जाली का किंवाड़ हटाकर  गीता अंदर दाखिल हुई , गीता कुछ ही समय पहले  हमारे पास पढकर गई थी  , उसने एम फिल तक की पढ़ाई पूरी की थी और इस नौजवान से उसका विवाह हुआ था . अब ये दोनों  44 रवीन्द्र निवास में मिलने आए थे  और हमारे सामने बैठे थे .  जीवन संगिनी  ऐसा जोड़ा पाकर खुश थी  और उनकी आवभगत कर रही थी .
हमारे   साथी  एस बी माथुर साब प्रायः  लड़की से पूछते ,' कहां है तुम्हारा डैम
फूल ?'   जब उसका मंगेतर आया होता  और दूसरी सांस में मुझसे कहते , ' यार क्या करें आगे चलकर  उसे ' कंवर साब ' कहना पड़ता है .  मुझे अब लगने लगा था  कि लड़की  के कारण ही तो यह लड़का भी तो हम से जुड़ गया है . ये सम्बोधन की बात तो केवल  शिष्टाचार  और आत्मीयता है  , दामाद भी तो अपना ही बच्चा है , उस पर भी वैसा ही भरोसा किया जा सकता है .
गीता ने जिस तरह अपने पति को आगे आगे मेरे घर भेजा , मुझे लगा लड़की को पढ़ाया तो  भी क्या बात लडके का भी तो दिल जीत लिया इस माध्यम से .
जाते जाते यह युवक बोला :" सर , कभी दिल्ली आओ तो सौ  नंबर पर फोन करके रामनिवास को बुला लेना , आप जहां भी होंगे मैं आकर मिलूँगा .'
समर्थन :1 Manju Pandya .

सुप्रभात
Good morning .

सुमन्त
गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
30 जनवरी 2015 .
#बनस्थलीडायरी
#स्मृतियोंकेचलचित्र

Saturday, 28 January 2017

बनस्थली में : भाग तीन .

     बनस्थली में : भाग तीन

आज बिलकुल छोटी छोटी बातें बताऊंगा , शायद इनसे कोई अर्थ निकले . कुछ बातें मेरी जुबान पर रहीं और अभियक्ति का अंग बन गईं वही कहता हूँ . अब क्योंकि सेवा काल समाप्त करके आया हूं अतः आखिरी बात पहले . जब भी क्लास ख़तम होने का समय होता मैं कहता :" इसी हंसी ख़ुशी के वातावरण में  प्रातःकालीन सभा समाप्त की जाती है " ,  यह वाक्य इतना लोकप्रिय रहा मेरी कक्षाओं में कि मुझे तो प्रस्ताव का आदि पद ही बोलना पड़ता बाकी तो मेरे सभासद  मेरी छात्राएं स्वयं ही पारित कर देती थीं ये प्रस्ताव . एक शब्द मेरी जुबान पर ही रहता , शब्द क्या था वह तो एक विचार था"  सर्वानुमति " यह मैंने
"  कनसेनसस " के बदले बरता था . सब कोई प्रस्ताव सर्वानुमति से ही पारित होते यह तो क्लास में रोज बरोज का चलन होता था . मुझे अगले दिन न आना होता तो उसकी  बाबत सूचना यह कहकर देता ," आपको यह जानकर अपार हर्ष का अनुभव होगा कि कल............" हालांकि शायद इतना हर्ष वास्तव में उन सूचित लड़कियों को होता नहीं . एक और शब्द था ' मंच अधिग्रहण '  ये मेरी जुबान पर ही रहता . आयोजन किसी और विभाग का हो तो भी उसमे ऐसे भाग लेना जैसे अपना ही आयोजन हो और यदि मंच  मिल  जाए तो वहां से अपनी बात कहना  आखिर लंबी अवधि तक " राष्ट्र सभा " का  मैं सलाहकार अध्यापक भी तो रहा था . मैंने एक परिपाटी को केवल  अपनी क्लास के लिए चलाया कि  क्लास में आने के लिए  दरवाजे  पर रुककर कोई न पूछे और सवाल पूछने के लिए खड़ा न हो , बैठे बैठे ही संवाद हो . न अनुमति आने के लिए मांगी जाय , न जाने के लिए मांगी जाय . जरूरी नहीं कि लड़की अपनी हर बात हमें बताए अतः जाना चाहे तो बिना वजह बताए भी चली जाए .
एक सवाल जो  मैंने अपने विद्यार्थी काल में बहुत सुना था , अध्यापक बनकर कभी नहीं पूछा , " फादर क्या करते हैं? "  क्यों पूछे ऐसे सवाल , हमें ऐसा पूछकर क्या भेदभाव करना है .
स्मृतियां अनेक हैं, लंबी बात एक साथ कोई सुनना नहीं चाहता.
आज के लिए इति .
समर्थन : Manju Pandya .

सुप्रभात
Good morning.

सुमन्त पंड्या .

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
29 जनवरी 2015 .
.#बनस्थलीडायरी
------------
आज पोस्ट ब्लॉग पर दर्ज और आगे के लिए संरक्षित ।
@ भिवाड़ी
रविवार २९ जनवरी २०१७ .

Friday, 27 January 2017

बनस्थली में डिग्री क्लास : भाग दो

   बनस्थली में डिग्री क्लास : भाग दो

कल की पोस्ट  में मैंने  उस  घड़ी का जिक्र किया है  जब मैं  बनस्थली में पहली बार डिग्री क्लास लेने गया था .  आज सोचा  उसी बात को आगे बढ़ाऊं . एक तो यह कि  वहां  ये अनोखी बात थी कि  सप्ताह की गणना  अलग प्रकार से होती थी , शायद आज भी होती होगी  . सारी दुनिया  बाइबिल के सप्ताह विधान से चलती है  , बाइबिल के  इस बाध्यकारी विधान से बनस्थली  मुक्त रहा . कई बार ऐसा भी हुआ  कि संरक्षक  छुट्टी के दिन दाखिला करवाने चले आये और  नतीजे में लड़की को हमारे भरोसे छोड़ गए  . मैंने और जीवन संगिनी ने  अगले दिन दाखिला करवाया . उस समय  कई एक लड़कियों के लिए  छात्रावास से पहले 44  रवीन्द्र निवास एक आवश्यक पड़ाव बना .
जिस लड़की ने  मुझ से क्लास  में आने की  इजाजत मांगी थी  उसके बाबत भी यहां कहूँगा . लड़की साड़ी पहने थी  इस पर टिपण्णी यह है कि  कम से कम उस समय  यह ड्रैस कोड प्रचलित था  कि पढ़ाने वाली लड़की साड़ी अवश्य पहनेगी . पढने वाली लड़की सप्ताह में दो दिन  यूनोफॉर्म की  पोशाक पहनेगी और  बाकी दिन  किसी  रंग के और कपड़े . जो उस दिन पढ़ाने वाली  लड़की इतिहास की प्राध्यापिका  बनकर आई वो भी  बनस्थली की ही लड़की थी . वो लड़की एक और कारण से  सेलेब्रिटी थी  , कुछ ही दिनों पहले उसे प्राइवेट पायलेट लाइसेंस मिला था और फ्लाईंग की ट्रेनिंग उसने बनस्थली फ़्लाइंग  क्लब से ही पाई थी . इस प्रकार वो  भारत में पी पी एल  पाने वाली पहली महिला उड़ाका बन गई थी .
आकाश में उड़ने  वाली यशवंत कौर अखबारों  की खबर बनी  और  केवल उसी सत्र में वहां रही  और आगे मैं कुछ नहीं कहूंगा अन्यथा  कहा जाएगा कि रवीश कुमार  से इस बार मिलने के बाद मैं भी लप्रेक लिखने लगा हूं .

कल की पोस्ट में  टिप्पणी  में बुधवार की प्रार्थना का भी  उल्लेख आया था . कहते हैं कि पहले प्रतिदिन  सायंकालीन प्रार्थना  हुआ  करती थी , मेरे सामने ये बुधवारीय प्रार्थना बन गई थी  . हम लोगों  में यह भी कहावत प्रचलित थी कि  सोलह बुधवार बिला नागा कोई  इस सामूहिक उपक्रम में जाए तो उसका  शुभ फल अवश्य मिलता है . नई पीढ़ी प्रार्थना के लिए समय न देने लगी तब आगे चलकर इस प्रार्थना को स्थगित भी किया गया  . आज की पीढ़ी को तो अपने  लिए ही समय निकालना  मुश्किल होता है  प्रार्थना के लिए कहां समय बचता है !
पता नहीं अब क्या होता होगा .
मैंने लिखा था कि आई बात समझ में  , वो एक बात यह थी  मेरा साक्षात्कार इतिहास  के  प्रोफ़ेसर जी सी पांडे ने ही शुरू किया था और इतिहास -राजनीतिशास्त्र  की संयुक्त चयन समिति  बैठी थी अतः इतिहास के तत्कालीन विभागाध्यक्ष मोहन लाल विद्यार्थी भी वहां  थे  मैं और यशवंत कौर एक ही चयन समिति के उत्पाद थे .  उस सत्र में  शाम का समय विद्यार्थी जी  के साथ अच्छा  बीता वो भी वहां  एक सत्र ही रहे .
ये यादों का सिलसला तो अंत हीन है , आगे बात बढ़ाऊंगा .
आज के लिए इति .
सहयोग : Manju Pandya

सुप्रभात
Good morning .

सुमन्त
गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
28 जनवरी 2015 .
#Banasthali .

बनस्थली में डिग्री क्लास : एक ।

    #बनस्थलीडायरी #स्मृतियोंकेचलचित्र

बनस्थली में डिग्री क्लास :  तब समझ आई बात .

कभी हाकिम बनने की हसरत नहीं पाली ,  कभी किसी प्रतियोगी परीक्षा में शामिल नहीं हुआ , पढ़ाने का काम मिले यही चाहत थी और वह मुझे मिल गया था , मेरे इस निमित्त साक्षात्कार की कहानी भी रोचक है परंतु आज वो घटना याद आ रही है जब मैं पहली बार डिग्री क्लास पढ़ाने पहुंचा , प्रयास करता हूं कि उस घटना का विवरण दे  पाऊं .
ज्वाइन करने के बाद  एम ए  की कक्षा के लिए तो मेरा कमरा नियत था  डिग्री कक्षाओं के लिए मुझे टाइम टेबल मिला था जिसमे कक्षा, पेपर ,  दिन  , पीरियड और कमरा  नंबर संकेतों में लिखे थे . टाइम टेबल को अपने से समझ कर मैं  कमरा पहचान कर  अपने पीरियड में  रजिस्टर लेकर  क्लास लेने  पहुंचा , आज जो विज्ञान मंदिर कहलाता है  तब यह ज्ञान विज्ञान मंदिर कहलाता था और  इसके  कमरा नंबर सात में मैं  गया था सेकिण्ड  ईयर की क्लास लेने . पूछ लिया सेकिण्ड ईयर की लड़कियां वहां मिलीं , नाम पूछना और लिखना मैंने शुरू कर दिया और इसे मैं अच्छी शुरुआत मान रहा था . थोड़ी ही देर में कुछ ऐसा हुआ कि यह शुरुआत ही स्थगित हो गई  .
क्लास भरी हुई थी , लड़कियां बैठी  हुईं थीं कि तभी एक और लड़की दरवाजे पर आकर  खड़ी हुई और उसने  " मे आई कम इन सर " कहकर  क्लास में आने की इजाजत  मांगी . क्लास में बैठी लड़कियों से भिन्न इस लड़की ने साड़ी पहनी हुई थी पर इस पर भी मैंने ख़ास ध्यान नहीं दिया और " यस " कह दिया . मैं तो पढ़ाने गया था और पढने वाली लड़कियां क्लास में आकर बैठेंगी ही सो वो भी बैठ जायेगी यह उम्मीद थी , हुआ इससे इतर  इस लड़की के आने पर क्लास में बैठी सब लड़कियां खड़ी हो गयीं  तब मुझे खटका हुआ . पता चला कि नई आई लड़की  इतिहास की प्राध्यापिका थी  और वो क्लास भी उसी की थी  मैं टाइम टेबल से गलत समझ कर आ गया था और बात को समझकर मुझे वहां से हटना पड़ा .

गड़बड़ कहां हुई  ? क्लास रूम भी वही था, क्लास भी वही थी , टाइम टेबल का पीरियड भी वही था बस दिन वो नहीं था . सप्ताह के पहले तीन दिन और सप्ताह के   आख़िरी तीन दिन जो संकेतों में लिखे थे  वही समझने में गड़बड़ हो गई थी . सारी दुनियां में सप्ताह की शुरुआत बाइबिल के अनुसार प्रावधान के अनुरूप सोमवार से होती है  , रविवार छुट्टी का दिन होता है . बनस्थली में सप्ताह बुधवार से  शुरू होता है और  मंगलवार  छुट्टी का दिन होता है . अपने लगभग चार दशक के सेवा काल में इस साप्ताहिक व्यवस्था का खूब अभ्यस्त हो गया पर तब नया नया था  अतः चूक हो गई और क्लास से बाहर आना पड़ा .
समर्थन और सहयोग : Manju Pandya .

सुप्रभात
Good morning .

सुमन्त
गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

#Banasthali .

Thursday, 26 January 2017

जेकेके : टाइम ख़त्म


   टाइम खत्म : जवाहर कलाकेन्द्र . #जेकेके
----------------------------------
जवाहर लाल नेहरू मार्ग , जयपुर का जवाहर कला केंद्र स्थापत्य का तो एक बेजोड़ उदाहरण है ही वहां एक इण्डियन कॉफी हाउस भी  है . बापू नगर में आ बसने के बाद से वो एक स्थान है  जहां बच्चा लोग ज्यादा और हम लोग यदा  कदा वहां जाया करते हैं .
पहले तो मैं समझता भी नहीं था जब बात होती थी “ चलो कल जे के के में मिलते हैं  “ तो ये जे के के क्या है पर अब समझता हूं .
मेरी समझ का क्या कीजिएगा मैं तो ईलू का का मतलब भी बहुत बाद में समझा था , खैर जाने दीजिए उस दिन की बात बताने से रह जाएगी जो बताना मैंने सोचा है .
उस दिन जीवन संगिनी ने कहा था कि जवाहर कलाकेन्द्र चलेंगे और रात के खाने का लोकाचार वहीँ पूरा करेंगे . घर में बच्चे कोई थे नहीं और कोई भी साथ देने वाला  नहीं  था . खाना घर में खाया जाए या बाहर इस पर हम दोनों लोग प्रायः दो सम्प्रदायों में विभाजित हो जाते हैं  खैर उस दिन पारस्परिक सहमति और सौहार्द्र के चलते इन्डियन कॉफी हाउस  के दर पर पहुंच ही गए थे और पैड़ियों के ऊपरी हिस्से पर खड़े होकर ये ताड़ने का प्रयत्न कर रहे थे कि अभी समय है या समय नहीं है  . कुछ ग्राहकी और हलचल कम ही दीख रही थी . रात के साढ़े आठ और नौ के बीच का समय था  उस समय वहां समेटा समेटी शुरु होने लगती है . वहां कैफेटेरिया में कुछ सीढियां उतरनी पड़ती हैं सो हम इस सोच में थे कि उतरें  या न उतरें . तभी नीचे एक वेटर दिखाई दिया अपने अदल पिछाण लिबास में और उसका ध्यान भी चला गया ठिठके खड़े हम लोगों पर . मैं तो लगभग निरपेक्ष खड़ा था इस भाव से कि जो होना होगा हो जाएगा पर जीवन संगिनी उससे पूछ बैठी :

“ टाइन ख़तम हो गया क्या ? “

और इस सवाल के जवाब में वेटर जो बोला वो ही था उस दिन का “ की नोट “ और सनातन मूल्यवान उद्गार . वो बोला :

“ अगर वहीँ खड़े खड़े पूछते रहोगे तो तो हो गया टाइम ख़तम ! “

संकेत साफ़ था और हम लोग सीढियां उतर कर नीचे चले गए थे .
झेल लिए गए , आव भगत हो गई .
सीख की बात यही है कि खड़े खड़े पूछते रहोगे तो टाइम तो ख़तम हो ही जाएगा .
सुप्रभात .
सुमन्त पंड्या
घटना साक्षी : Manju Pandya
~~~~~~~
@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .
27 जनवरी 2016 .

Tuesday, 24 January 2017

ननिहाल के रास्ते में

  ननिहाल के रास्ते में :

मनोविज्ञान की शिक्षा किताबों से विद्वद्जनो से तो प्राप्त होती है  पर कभी कभी निपट देहाती लोग ऐसी शिक्षा दे जाते हैं कि मानना पड़ता है  . एक काफी पुरानी घटना मुझे बार बार याद आ जाती है  वही आज बताता हूं , उससे मुझे क्या सीख मिली वह भी शायद कह पाऊं .
हम लोगों के ननिहाल की यात्रा इस मायने में थोड़ी कठिन हुआ करती थी कि आज की तरह ठेठ तक पक्की सड़क बनी हुई  नहीं थी  . जयपुर दिल्ली रेल मार्ग पर बसवा स्टेशन पर  उतर कर कच्चे रास्ते से बैलगाड़ी में बैठकर  सकट गांव तक जाते तब हमारा ननिहाल आता . नाना नानी तो मेरे होश सम्हालने से पहले ही नहीं रहे लेकिन मामाजी मामी के जमाने में और उनके बाद भी वहां जाना आना रहा . अम्मा के लिए वहां जाना उनकी बचपन की यादों को ताजा करना होता था , बरसों बरस शहर में रह लेने के बाद भी अपना बचपन का घर  मन में कैसा बसा रहता है यह मैं अम्मा से ही जाना था.
आज बसवा सकट मार्ग की जिस यात्रा का मैं यहां उल्लेख कर रहा हूं यह हमारे बचपन की नहीं बड़े हो जाने के बाद की बात है पर उस समय भी यातायात की स्थिति वही पहले जैसी थी  याने कच्ची सड़क और बैलगाड़ी की सवारी . इस यात्रा में हम सकट से बसवा  आ रहे थे , अम्मा के साथ मैं और भाई साब तो थे ही , मामाजी और कलावती जीजी और उसके  बच्चे भी उसी बैलगाड़ी में सवार थे . बैलगाड़ी में सवारियों का पर्याप्त बोझ था  . कच्चे रास्ते में एक जगह काफी पानी भरा हुआ था और कीचड भी हो गया था . भरे पानी और कीचड के बीच जाकर बैलगाड़ी अटक गई  , बैल के लिए आगे बढ़ना उसकी ताकत से बाहर था . अब मुझे तो यही उपाय तय लग रहा था कि कीचड़ के बीचों बीच ही उतरना पड़ेगा . बैलगाड़ी वाले के सारे उपायों के बाद भी बैल तो आगे गाडी नहीं खींच पा रहा था . आस पड़ोस के एक दो किसान भी आ गए पर बैल तो पैर ही आगे नहीं बढ़ा रहा था .  गाड़ी वाला बोला ' नटिया लाओ ' . मैं नहीं समझ पाया कि ये नटिया  कौनसी चीज है जिससे बैल गाड़ी आगे चलेगी .  पर नटिया के आने पर मैं भी समझ गया  , वह एक छोटा सा बछड़ा था जो पड़ोस का खेत मालिक लेकर आया था . बछड़े को बैल के ठीक आगे खड़ा कर   आगे की और रवाना किया गया  और उसकी देखा देखी में  बैल ने  भी आगे की ओर  कदम बढ़ा दिया और कुछ  ही मिनटों में बैल गाड़ी दलदल से बाहर आ गई . बैल को  लगा कि जो काम छोटा सा बछड़ा कर सकता है वह क्यों नहीं  ! इसी भरोसे ने बैल को मय गाड़ी के बोझ के आगे चला दिया था .  ये जंतु मनोविज्ञान की बात जो भोले  ग्रामीणों ने उस दिन  प्रत्यक्ष  सिद्ध की थी मानव  मनोविज्ञान के लिए भी सही है , फरक इतना है कि बैल भोला प्राणी एक बार को यह भूल गया था कि उस पर तो वजन है नटिया पर कोई नहीं .
कहते हैं चालीस के बाद ही आदमी की  अवस्था गृहस्थी में रहते  बैल जैसी होती है , बछड़ों को आगे चलता देख वो भी होडां होड़ करने लगता है पर उसको अपना वजन नहीं भूल पाता . यही थोड़ा सा फरक है .
समर्थन : Manju Pandya .

सुप्रभात
Good morning

सुमन्त
गुलमोहर , बापू नगर , जयपुर .
25 जनवरी 2015 .
#सकट यात्रा.

Monday, 23 January 2017

शिक्षक दिवस 💐💐

    बनस्थली में शिक्षक दिवस : Banasthali Pariwar. #बनस्थलीडायरी
सहयोग और अनुमति : मंजु पंड्या .

कैसे कैसे साथी थे बनस्थली में उन दिनों जो अवस्था में मुझसे बड़े लेकिन हास परिहास में  बराबरी पर उतारू होते थे ये फरक मिट जाता था .   इसी सब को याद करता  हूं तो कई बातें याद आने लगती है . पिछली शताब्दी की एक छोटी सी बात बताता हूं . शिक्षक दिवस पर क्लास  में लड़कियों ने मुझसे कह दिया : 
" सर , आज आप एक गाना सुनाइए . "  बात को मानते हुए मैंने भी एक गाना सुना दिया ,जहां तक मुझे याद है बहादुर शाह ज़फर का कलाम गाया " न किसी की आंख का नूर हूं न किसी के दिल का करार हूं ..... ." गाना मुझे क्या था उस अवसर पर लड़कियों की बात रखनी थी सो  गा दिया . यहां यह कहना और भी जरूरी है कि मेरे साथी और विभागाध्यक्ष  माथुर साब बहुत अच्छा गाते थे मुझमें  तो वैसी योग्यता न थी . ख़ास मौका था बात हो गई .  लड़कियों में क्लास के बाद और छात्रावास में आपस में बातें तो होती ही हैं . ये बात संगीत विभाग की लड़कियों के जरिए  संगीत के विभागाध्यक्ष  नादकर्णी जी तक पहुंच गई . हो सकता है  उनसे भी गाने की फरमाइश की गई हो , आखिर संगीत के अध्यापक से तो ज्यादा उम्मीद  होगी ही इस विषय में . लेकिन इस सब का नतीजा बिल्कुल फरक  निकाला  . मुझे पता लगा कि बजाय कोई गाना सुनाने के उन्होंने पूरे एक घंटे तक क्लास में भारत के राष्ट्रपति के  अधिकारों पर चर्चा चलाई . वो इस प्रकार राजनीतिशास्त्र के पाठ्यक्रम में हस्तक्षेप करना चाहते थे  . इस बाबत जानकारी मिलने पर जब मैंने उनसे कुछ पूछा तो ये और बोले : "  मेरे पेट पर लात मारोगे तो यही करूंगा और क्या करूंगा अब ? "
आज जब माथुर साब भी इस दुनियां में नहीं रहे  नाडकर्णी जी भी नहीं रहे मुझे वो दिन बहुत याद आते हैं जो इनके साथ  बिताए . गुजराती की एक कहावत है " लाम्बा न साथें    ओछूं पड़ै ,  मरै न तो  माँदूं पडै ."  अर्थात लंबे के साथ ओछा चलेगा तो   बीमार पड़ेगा .  अब तो जफ़र की यही गजल कहूंगा :" लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में .  "
सहयोग  और समीक्षा : Manju Pandya .

सुप्रभात
Good morning .

सुमन्त
गुलमोहर , बापू नगर , जयपुर .
24 जनवरी 2015 .
#बनस्थली के दिन .