Monday, 30 July 2018

जिसकी तलाश थी वो मिल गया : तकिया कलाम की कहानी

जिसकी तलाश थी वो मिल गया …..! : तकिया कलाम  की कहानी

अक्सर ये बात मैं बड़ा गहक के कह दिया करता हूं :

" जिसकी तलाश थी वो मिल गया ."

ऐसे ही मेरे और भी तकिया कलाम हैं , जैसे :
१.
ये तो बार की बात छै माट साब  .. फेर तो थे जाणो !
और
२.
प्यारे मोहन जी नै ने जाणो ..?

मेरे हर तकिया कलाम का कोई न कोई विशिष्ट ऐतिहासिक संदर्भ होता है और मुझे वो सीन याद आने लगता है जब किसी न किसी ने ये बात कही थी और आगे के लिए वो बात मेरे हाथ लग गई .
ख़ैर किस्सगोई के दौरान तकिया कलाम के ये मणके  मैं पिरोता भी रहता हूं और बताता हूं कि बात आईं क़हां से . ख़ैर अभी तो उस शीर्षक पर ही बात करें जो आज की पोस्ट के लिए दिया गया है :

" जिसकी तलाश थी वो मिल गया ."

अपने आप से बात :
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" किसकी तलाश थी ?"

इसी बात को स्पष्ट करने का प्रयास करूंग़ा .

" ये किसी व्यक्ति , वस्तु   या विचार किसी की भी तलाश हो सकती है जिसके पूरा होने पर मैं ऐसा कह बैठता हूं और अब तो ये वाक्य बोलना मेरी आदत में शामिल हो चुका है ."

" पर पहली बार ऐसा कहा किसने था ? "

" हां वही बताने का प्रयास है आज , ये  विशिष्ट व्यक्ति  की कही बात है जो आज तक मेरी ज़ुबान पर है . "
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अब आगे : फिर वो ही बात .

विशिष्ट अतिथि आए हुए थे , रवीन्द्र निवास में  ठहरे थे और इस बाबत दो एपिसोड मैंने अपने ब्लॉग और फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर लिखे भी थे . तीसरा एपिसोड जो अभी लिखा जाना बाक़ी है उसमें ही आता है ये प्रसंग  .

प्रसंग ये है कि स्नान के बाद जब वे धुले  और प्रेस  किए हुए कपड़े पहनने लगे तो पाया कि   पतलून में कमर का क्लिप पिचका हुआ है और उसे दुरुस्त किए बिना पतलून पहनना सम्भव नहीं था .
वो बौद्ध दर्शन में एक विचार आता है न  " अर्थ क्रिया कारित्व " वही सूझ रहा है मुझे तो यहां इस स्थिति के लिए . ख़ैर  बात आगे …

समस्या समाधान की वो बात सोच ही रहे होंगे कि उनका ध्यान अलमारी के ऊपर के खण की ओर गया  और वो अचानक बोल पड़े :

" जिसकी तलाश थी वो मिल गया ."
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वहां रखा एक पेचकस उठाकर वो ये बात बोले थे . पिचके क्लिप को दुरुस्त करने के लिए ये उपयुक्त उपकरण था जो उन्हें यहां मिल गया था .

वैसे इस पूरे प्रसंग का तीसरा एपिसोड जब आएगा तो ये बात और स्पष्ट  होएगी  कि आख़िर वो क्लिप पिचका हुआ था क्यों .
आज मैंने पूरी बात बताई कि ये तकियाकलाम  मैंने सीखा क़हां से था .

नमस्कार 🙏

सुमन्त पंड़्या
@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी
शनिवार ३१ दिसम्बर २०१६ .
#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी #sumantpandya

कांई जात छै ? : बनस्थली डायरी .

कांई जात छै .......?

ये बात बनस्थली की है .
तब विद्यामंदिर में यू को बैंक का एक एक्सटेंशन काउंटर हुआ करता था और एक युवा बैंक अधिकारी वहां बैठता था . इस अधिकारी का नाम था प्रशांत निहलानी .
एक दिन की बात छात्रावास की दो परिचारिकाएं अपने खाते से रुपए निकालने आईं थीं और वहां बैठी थीं  . ये मेरे सामने की बात है कि उन दो में से किसी एक ने इस युवक से बड़ा सहज प्रश्न कर लिया :

" भाया , थारी कांई जात छै ?"
( भैया, तुम्हारी जाति क्या है ?")

हालांकि वो जिस काम से आई थीं उसमें इस  बात का कोई औचित्य नहीं था पर उन्होंने पूछ ही लिया और क्यूं पूछा ये भी बताता हूं . असल में जयपुर में जन्मा और पला , बड़ा हुआ प्रशांत निहलानी  ढूंढारी बोली बड़ी बढ़िया बोलता था और उसने इसी बोली में उन दोनों से बात की थी . अपना सा लगा तो उन्होंने पूछ लिया .

अब जानिए कि निहलानी क्या बोला :

" माजी , म्हे सिंधी  छां ." वो बोला.
(मां जी , हम सिंधी हैं.)

और वे दोनों प्रश्नकर्ता इस उत्तर से संतुष्ट थीं .
वो दोनों तो चली गईं रह गए मैं और निहलानी . मैं ने निहलानी से कहा कि जो सवाल था उसका ये जवाब तो पर्याप्त नहीं था . सिंधियों में भी तो जात बिरादरी होती है . मेरे जिस एक सिंधी परिवार से बड़े आत्मीय सम्बन्ध हैं वे ब्राह्मण हैं  और जिन यजमान के यहां वो कोई पूजन करवाने जयपुर आए थे ,और हमारे घर ठहरे थे , वो माहेश्वरी बनिया हैं .  पर हां विभाजन के बाद जो सिंधी इधर भारत में आ बसे उनकी जात बिरादरी के नाते पहचान से ज्यादा बड़ी पहचान ये बन गई कि वे सिंधी हैं . जात बिरादरी की बात गौण हो गई .
भारत में आ बसे बहुसंख्य सिंधी हिन्दू हैं और इसकी वजह सब को मालूम है , मुझे बताने की कोई आवश्यकता नहीं है .

और बहुत सी ऐसी ही बातें हैं बताने की , इसी बहाने चर्चा करने की .


प्रातःकालीन सभा स्थगित.
इति.

सह अभिवादन : Manju Pandya

सुमन्त पंड्या .
आशियाना आँगन, भिवाड़ी .
31 जुलाई 2015 .


क़िस्से का प्रकाशन  और लोकार्पण जुलाई २०१८.

Saturday, 28 July 2018

आप भी झेलो : भिवाड़ी डायरी .

सोने से पहले आज की पोस्ट :


सच क़हूं सब तरफ़ अथाह ज्ञान बिखरा पड़ा है और लोग सोशल मीडिया पर विभिन्न उपक्रमों को माध्यम बनाकर आई गई चीज़ को इधर उधर ठेलने में लगे हैं ।   

लोग बग़ैर कुछ देखे परखे संदेशों को अग्रप्रेषित करते रहते हैं । मेरे लिए तो इन आए संदेशों को झेलना मुश्किल होता जा रहा है । सयाने लोग एक से ज़्यादा फ़ोन नम्बर रखते हैं और वाट्सएप नम्बर हर किसी को देते भी नहीं । मूर्खों के सम्प्रदाय , याने मेरे संप्रदाय , में ऐसा नहीं होता । जिसे नम्बर मिल गया वो अपना बचा क़ुचा ड़ेटा जाने क्यों मुझपर ही न्योछावर कर देता है ।  

जो देखो जो कोई ग्रुप बना लेता है और महाराज ज़माने भर के चले संदेश इधर आ धमकते हैं । कुछ मामलों में तो मुझे यहां तक शक होता है कि मेजने वाले ने इसे ख़ुद भी बाँचा है के नहीं ।


अब सोशल मीडिया पर बने रहना है तो ये सब तो उसके साथ जुड़ा हुआ नफ़ा नुक़सान दोनों है जैसा भी आप समझो ।

और आगे करेंगे बात इस बाबत , अब इस मामले में कुछ न कुछ तो करना ही है ।


भिवाड़ी

२८ जुलाई २०१७ ।

ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण : २८ जुलाई २०१८.

Friday, 27 July 2018

घोड़े बेचकर सोया : उदयपुर डायरी .

घोड़े बेचकर सोया ?


  बड़ा सीधा सा कार्य कारण सिद्धांत है , रात देर से सोया सुबह देर से उठा और ऐसे सुबह पोस्ट लिखने का समय बीत गया .

अभी एक दोस्त को बताया है जो चिंता कर रहे थे कि नित्य नियम में क्या बाधा आ गई . उन्हें बताया कि सब ठीक है .

फिर जीवन संगिनी से पूछा कि कोई आइडिया देवें , जो प्रसंग उन्होंने सुझाया उसी पर आ रहा हूं .

एक बार बनस्थली में घोड़े बेचकर सोया वो बात तो एक पोस्ट में बता ही चुका हूं ऐसा ही एक और प्रसंग बताए देता हूं . पहले कुछ फुटकर बातें फिर मुख्य बात जो आज बताने की है .

चौधरी के भाई के विवाह में बरात में गया था . वहां निकासी के दौरान दुल्हन के चाचा मुझसे बोले :


" बरात के साथ पंडित जी तो आप ही हो ?"

 वो भी सही बोले जब वो लगन लेकर आए थे तो लगन मैंने ही झिलाया था . 

उनको तो मैं क्या बोला अब याद नहीं मगर सावधान जरूर हो गया कि अब ये तो मुझे रात भर जगाने का मीजान बना रहे हैं . मैंने किया ये कि डिनर के फ़ौरन बाद उस गहमा गहमी को छोड़ छत पर जाकर सो गया और मेरी नींद तो अगले दिन सुबह तभी खुली जब वर वधू ने आकर मेरे पांव छुए . 


मैं तो अपने विवाह में भी रात भर नहीं जागा था तो मैंने वहां भी अपना टाइम टेबिल ठीक ही रक्खा. पर हमेश ऐसे नहीं हो पाता वो ही आगे बताता हूं . अपने विवाह में क्यों रात भर नहीं जागा वो तो बात ऐसी थी कि तब इस प्रकार के समारोह दो दिन चला करते थे . बीच की रात लोकाचार स्थगित हो जाया करते थे .

 आज कल दोनों ही प्रकार के प्रतिमान देखे जाते हैं उन पर अभी मैं कोई टीका नहीं कर रहा .

1984 की बात .

     जीजी के बेटे सुधीर का विवाह था उदयपुर में. दिसंबर का महीना था. सभी स्वजन इकठ्ठा हुए थे . आस पास ही वर पक्ष और वधू पक्ष के आवास थे . आस पास परिचितों के घरों में मेहमानों के ठहरने का इंतजाम था . मामा सम्प्रदाय के लिए किसी स्वजन का पूरा खाली मकान जीजी जीजाजी ने उपलब्ध कराया था जहां हम लोग ठहरे हुए थे .

अपवाद रूप में उस दिन मैं विवाह की रात को रात भर जागा आखिर जीजी के घर का एक मांगलिक कार्य होने जा रहा था .


पिछली सारी रात तो जागा ही था अगले दिन सुबह भी देर तक समारोह की विभिन्न गतिविधियां चल रही थीं . ठहरने के स्थान से सब लोग नहा धो कर तैयार होकर जीजी के घर अभ्युदय पहुंचने लगे . आखिर में मैं बच गया जिसे तैयार होकर जाना था . इस डेरे के सब लोग जब चले गए तो मैं अकेला था . मैंने आदत के मुताबिक़ पहले हजामत बनाई और फिर नहाया . चूंकि घर में अकेला था इसलिए सब ओर के दरवाजे मैंने बंद कर लिए और ये विचार कर के लेट गया कि पांच मिनिट को आराम करता हूं और फिर चलता हूं , फिर अभ्युदय पहुंच कर भोजन करूंगा . बस वहीँ गड़बड़ हो गई , मेरी आंख लग गई . कितनी देर हो गई मुझे कुछ पता नहीं .

उधर क्या हुआ ?

---------------- भोजन के लिए जब मैं नहीं पहुंचा तो मेरी ढूंढ मची . जीवन संगिनी सबसे पहले आईं और यहां आकर उन्होंने घंटी बजाई और बहुतेरा दरवाजा खटखटाया पर नतीजा कुछ न निकला . जब आधा घंटा बीत गया तो वो बाहर बैठकर रोने लगीं . उधर से और लोग भी आने लगे और ये चिंता का विषय बन गया . सारा माजरा भांप कर विनोद ने घर के चारों ओर चक्कर लगाया और ये तय किया कि सबसे कमजोर दरवाजा कौनसा है . पीछे का दरवाजा कुछ ढीला लगा वहीँ प्रहार किया और सांकल तोड़ दी .

विनोद ने तो आकर मुझे उठाकर बैठा ही कर दिया और मुझे बात ही समझ नहीं आ रही थी . मैंने तो यही पूछा:


" तुम अंदर कैसे आए ? मैं तो दरवाजा बंद करके आया था. "


मुझे अंदाज ही नहीं था कि इस बीच क्या कुछ हो गया और कितना समय हो गया . तब तक तो फिर खुद जीजी भी वहां आ गई और जीवन संगिनी की भी जान में जान आई .

जीजी ने आकर सब जानकर पूछा कि दरवाजा तो नहीं टूटा ? आखिर उन्होंने किसी परिचित का मकान मांग कर लिया था . और विनोद ने कहा:


" आप को दरवाजे की पड़ी है यहां तो ......."

नोट:

ये पोस्ट दिन में बनाना शुरु किया था , किश्तों में समय निकाल निकाल कर लिखते फिर रात हो गई . अब स्थगित करता हूं रात्रि कालीन सभा .

शुभ रात्रि.

सुझाव : Manju Pandya


आशियाना  आँगन, भिवाड़ी .

29 जुलाई 2015.

ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण    जुलाई  २०१८.


Thursday, 26 July 2018

आओ बूंदी चलें : स्मृतियों के चलचित्र .

आओ बूंदी चलें :


      पिछले दिनों अनिल ने बूंदी नगर की एक सुन्दर तस्वीर फेसबुक पर साझा की तब से मुझे भी जब तब बूंदी की याद आ जाती है . एक साल मैंने भी वहां बिताया था . तब के सहपाठी दोस्त याद आ जाते हैं . वहां लौटकर जाना फिर कभी नहीं हुआ पर यादें हैं जो जब तब वहां ले ही जाती हैं .

वर्ष 1961 - मैं ने न्यूं मिडिल स्कूल, बूंदी से स्कूल की कक्षा आठ पास कर ली थी . जब सबसे बड़ी कक्षा पास कर ली तो वहां से टी सी तो लेना ही था . काकाजी* टी सी लेने गए थे और मैं साथ था . दीनानाथ जी हैड माट साब ने टी सी देते हुए काकाजी से जो पूछा और अपनी कही वही बात बताता हूं . पहले एक बात और बताऊं जाने क्यों हैड माट साब को लोग और बच्चे भी पीछे से ' धुनची जी ' कहते थे और उनका बेटा गणपत भी हम लोगों का सहपाठी था उसने भी उसी वर्ष आठवीं कक्षा पास की थी .


हैड माट साब पूछने लगे :

" टी ओ साब, बेटे को क्या सब्जेक्ट्स दिलाओगे ? "

तब कक्षा नौ में ही फैकल्टी और विषयों का चयन हो जाया करता था .

बाद तक भी यही सिलसिला चला . ये तो बहुत बाद में हुआ है कि यह चयन ऊंची क्लासों में जाकर होने लगा . बेहतर अंक लाने वाले विद्यार्थी साइंस पढ़ने के लायक माने जाते थे और पड़े गिरे पास हुए आर्ट्स पढ़ने को शापित होते थे . एक बार आर्ट्स में दाखिला लेने वाले आगे आर्ट्स में ही रहते थे . जिन दुखियारों से साइंस नहीं निभ पाती वो बड़ी क्लासों में इधर आ जाते पर इधर से उधर जा पाने की सुविधा नहीं होती थी .


" ये तो आर्ट्स पढ़ेगा . और आपका भी तो बेटा है , सुमन्त बता रहा था, उसके बारे में क्या तय किया हैड माट साब ?" काकाजी बोले.


काकाजी का उत्तर उन्हें चौंकाने वाला था , क्योंकि मेरी मार्क लिस्ट से तो साइंस पढ़ने की लायकी सिद्ध जो हो रही थी . ऐसे ही सवाल जवाब आगे तब भी हुए जब काकाजी मुझे जयपुर में दरबार मल्टी परपज हायर सकेंडरी स्कूल में कक्षा नौ में में दाखिला करवाने गए .


तब मुझे कहां भान था कि आगे जाकर साइंस पढूंगा , ऐसा वैसा साइंस नहीं - मास्टर साइंस . 

खैर अभी तो बात बूंदी की चल रही है वहीँ लौटते हैं .


माता पिता के सपने :

 तब माता पिता बच्चों के लिए कैसे सपने देखते थे उसका उदाहरण है वो जो तब हैड माट साब ने कहा था . काकाजी को अपने बेटे के बाबत वो बोले :


" वो ही इंजीनेरी के सब्जेक्ट - साइंस मैथेमेटिक्स ."


इतना ही नहीं उन्होंने ये भी बताया था कि वो इस बात का भी प्रयास करेंगे कि आगे उनका तबादला जोधपुर का हो जाए ताकि वो बेटे को इंजीनियरी की पढ़ाई करवा सकें . तब ले दे के एक जोधपुर में ही सरकारी इंजीनियरिंग कालेज हुआ करता था , मंगनी राम बांगड़ मेमोरियल इंजीनियरिंग कालेज .


मुझे आगे का हाल तो नहीं मालूम कि हैड माट साब अपनी योजना में सफल किस हद तक हुए पर कुछ सूत्र बूंदी से तब जुड़े जब बनस्थली में मेरे काम करते हुए एक चित्रकार मित्र बूंदी से आए और मिले और चूंकि वो भी उसी मिडिल स्कूल के पढ़े हुए थे इसलिए स्कूल की यादें ताजा हो गईं , कुछ और दोस्तों के बारे में भी उन से ही पता चला .


बहरहाल लौटकर वहां जाना नहीं हुआ . जाऊं भी तो उस समय का कौन मिले वहां ?


उसी पुराने समय को याद करते हुए...

प्रातःकालीन सभा स्थगित .


* काकाजी हमारे पिता जो तब बूंदी में ट्रेजरी ऑफिसर थे .


साझा लेखन : Manju Pandya

आशियाना आँगन, भिवाड़ी .

27 जुलाई 2015 .


ब्लॉग पर पुनः प्रकाशन और लोकार्पण  २७ जुलाई २०१८.


Tuesday, 24 July 2018

ये फ़ेसबुक की दोस्ती ? कल और आज .

ये फेसबुक की दोस्ती ?

     कुछ समय पहले एक मनोविद् को टी वी पर बोलते सुना था कि कुछ एक मनोरोगों के कारणों और लक्षणों में से एक आज के समय में ये " फेसबुक" भी गिनाया जा सकता है .

बहुत हद तक सही तो कह रहे थे मनोविद् . आप उन्हें साइकेट्रिस्ट के रूप में जानते हैं , उस नाम से जान लीजिए .

सर्वथा निजी अनुभव :

        जब से मैंने फेसबुक पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है मुझे दोनों ही तरह के अनुभव हुए हैं . बहुत से अनजान लोग मिले और वो ऐसे बन गए कि लगा ही नहीं ये तय भी हो गया कि उनको तो मैं बहुत पहले से जानता हूं . यहां कुछ के नाम मैं नहीं गिनाऊंगा क्योंकि इससे दूसरों का मोल मैं कम नहीं करना चाहता . इस मंच पर लगता है कि हम लगातार साथ साथ हैं . हमें एक दूसरे की गतिविधि का पता रहता है और ये अच्छा है . 

पर ऐसा कर के जमाने भर को हम वो सब बताए दे रहे हैं जिसे सब कोई को बताने की कोई जुरूरत नहीं है . हमारी सारी सूचनाएं विश्व डेटा बाजार में बिकाऊ हैं , मजे की बात ये है कि इन्हीं सूचनाओं को पाकर ठग हमें ठगने के उपाय कर रहे हैं हम उतने जागरूक नहीं हैं जितना हमें होना चाहिए .


भोले दोस्तों के बारे में :

इस बारे में अभी भी स्पष्ट नहीं हूं कि दोस्ती के इस दायरे के बारे में क्या निर्णय लेवूं . क्या इसे आगे बढ़ने दूं ? क्या इसे यही रोकूं ? या कि छटनी कर डालूं , और घटाऊं इस दायरे को ? लौह आवरण की नीति का ही हिमायती होता तो बच्चों के सिखाए से फेसबुक पर आता ही क्यूं ?


सवाल का सबब :

      - बहुत कुछ प्रोफाइल देखकर दोस्ती कबूल करूं . वो भोले लोग जब तब चैट पर आ जावें और मुझसे वो ही , वो ही सवाल पूछें जिनके उत्तर मेरी प्रोफाइल पर दर्ज हैं . तभी तो मैं नें " चोरंग्या" कांसेप्ट पर पोस्ट लिखी थी .

अधिकांशतः फेसबुक के माध्यम से मिले दोस्तों से दोस्ती के साथ साथ मुझे वरिष्ठ नागरिक सम्मान भी मिला बोनस के रूप में लेकिन कोई कोई भोले और नादान मुझे मुझे अपना सा ही समझ लेवें . उनसे तो मैं यही कहूंगा :

" भाई मेरे, मेरी प्रोफाइल फोटो तो देख ली होती . क्या मैं आपको बराबर का लगता हूं?"


 अपनी छात्राओं को संबोधित :

       आप के / तुम्हारे लिए तो ये खुला निमंत्रण है . मेरी फ्रोफाइल पर जब चाहो उपस्थिति दर्ज करवाओ जैसे मेरी क्लास में आया करती थी . बल्कि कभी कभी तो ये कहने का मन करता है :


" बाहर क्यों खड़ी हो , क्लास में आ जाओ ."

अपनी छात्राओं से तो कोई भी संवाद करना मुझे हमेश ही अच्छा लगता है .

अंत में सभा स्थगित करने से पहले यही कहूंगा :

" फेसबुक पर ठहरता हूं अभी हाल तो , बाकी आगे देखेंगे क्या करना है ."

प्रातःकालीन सभा स्थगित ....

सुप्रभात .

सह अभिवादन : Manju Pandya.

 आंगन, भिवाड़ी .,26 जुलाई 2015.

ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण   २६ जुलाई २०१८.

इमर्जेंसी : बनस्थली डायरी .

इमरजेंसी

  - इमर्जेंसी की बातें फिर याद आने लगी पिछले महीने . क्यों याद आने लगी उसे तो जाने दीजिए , आप बेहतर जानते हैं मुझे आज के हालात के बारे में अभी हाल कुछ नहीं कहना . मैं तो तब की थोड़ी सी बात याद आ गई और लगा कि इसे दर्ज भी कर दिया जाए तो कोई हर्ज नहीं , वही करने लगा हूं .


तब जब उन्नीस सौ पिचहत्तर - सतत्तर में इमरजेंसी का दौर था अखबार और रेडियो और बहुत कीजिए तो टेलीग्राम टेलीफोन ये ही तो संचार के साधन थे , इनका भी फैलाव आज जैसा कहां था . फिर भी बात फैलती तो थी . 


एक बात मैं अवश्य रेखांकित करूंगा उस जमाने की कि लोग आकाशवाणी के समाचारों की बनिस्पत बी बी सी के समाचारों और रेडियो प्रसारणों पर ज्यादा भरोसा करने लगे थे . ये कोई अच्छी बात तो नहीं कही जा सकती लेकिन हालात ही कुछ ऐसे थे और उन्हें हमारे ही शासन ने उत्पन्न किया था .


एक निजी अनुभव :

           एक दिन बनस्थली में आई बी के एक अधिकारी मेरे घर आए , अजब इत्तफाक था कि वो मेरे कालेज के जमाने के दोस्त निकले . दोस्तों के बीच खुलकर जैसी दुनियां जहान की बातें होती हैं वो हो गईं . 

इस दोस्त आई बी अधिकारी के पास ऐसी राज मुद्रिका थी नए जमाने की कि वो कहीं भी आ जा सकता था . मुझे तब ये अच्छी तरह पता चला था कि इन ख़ुफ़िया एजेंसियों के पास आगे से आगे कितनी सूचनाएं इकठ्ठा होती हैं . 

जाने अनजाने वो दोस्त मुझसे भी ऐसी सूचनाएं ले ही गया जो प्राप्त करना उसका पार्ट ऑफ जॉब था .

इस आई बी अधिकारी की आवक बाद में भी परिसर में देखी गई . मेरे कुछ एक नजदीकी दोस्तों की राय थी कि दोस्त था तो क्या हुआ आया तो आई बी की तरफ से था मुझे उससे दूरी बनाकर रखनी चाहिए थी . मैं ऐसा कभी कर नहीं पाया . मैंने राजनीतिशास्त्र पढ़ा और पढ़ाया जरूर था पर ये पैंतरे बाजी मुझे न तब आती थी न अब आती है .

एक भले दोस्त के रूप में उसने एक राय जरूर दी थी जो बात मुझे आज भी याद आती है :

" सुमन्त , मेरी मानो तो किसी पार्टी की मेंबरशिप भूल कर भी मत लेना वरना अपना ये सोचने का तरीका गंवा बैठोगे . .. सब एक जैसे हैं ."


हम लोग कोई सरकारी नौकर नहीं थे अतः किसी राजनैतिक दल के प्रति प्रतिबद्धता निषिद्ध तो नहीं थी , पर उस दिशा में कोई महत्वाकांक्षा मैंने पाली भी नहीं थी .

ऐसे ही याद आई बाते आपसे साझा करते हुए 

प्रातःकालीन विलंबित सभा स्थगित :


सहमति और समीक्षा : Manju Pandya


आशियाना आंगन , भिवाड़ी .

25 जुलाई 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण  जुलाई २०१८.


Sunday, 22 July 2018

लैफ्ट हैंडर : भाग चार .

 लेफ्टहैण्डर भाग चार .


आज नैट के पूर्ण असहयोग के चलते अधिक कुछ लिखना संभव नहीं हो पा रहा अतः बाद की बात पहले ले आ रहा हूं .


उस दिन जीजी के सामने मैं तो कुछ न कह सका था .

उन्होंने तो ये तक कहा था कि जब माता पिता का एडजस्टमेंट ठीक नहीं होता तब बच्चे उल्टे हाथ से लिखते हैं .

मुझे उन्होंने काफी नसीहतें भी दी , जो मैं ने सुनी .

बड़ों की बात मैं आदर पूर्वक सुनता ही हूं . वही सीख बच्चों को देता आया हूं .

मैंने यही सीख छोटे वाले को भी दी और सहन करने को कहा . बहरहाल उसका लिखने का तरीका यथावत रहा .

तब लेकिन मैं ये कहां जानता था कि एक दिन इसकी एक लेखक के रूप में प्रतिष्ठा होगी और ये दिल्ली विश्वविद्यालय से पी एच डी की डिग्री लेवेगा .

अब तो ये उसके बचपन की बातें हैं .

आपात स्थिति में प्रातःकालीन सभा स्थगित ...

सुप्रभात .


सह अभिवादन : Manju Pandya .

ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण   २३ -०७ -२०१८.



Saturday, 21 July 2018

लैफ्ट हैंड़र : भाग तीन .

लैफ्ट हैंडर : भाग तीन .


    ये दुनियां दांये हाथ को सीधा और बांए हाथ को उल्टा कहती आई है उससे ही बात तो कुछ कुछ साफ़ होती ही है मुझ जैसों के बारे में .

अब मेरा तो जो कुछ होना था हो लिया इस नाते पर बात आगे की बताता हूं जब परिवार में एक बांए हाथ वाला और प्रगट हो गया .

छोटा वाला जब बनस्थली में स्कूल जाने लगा तब की बात बताता हूं .

दो बरस तक तो सब कुछ ठीक ठाक रहा . तब वहां बड़ी अच्छी सोच थी कि शिशु कक्षाओं में उसे खेलने खाने में ही व्यस्त रखा गया और कोई कलम हाथ में नहीं पकड़ाई गई . अच्छा ही रहा कि खुद अपने हाथ से खाना खाना सीखा वरना तो घर में उसकी मां उसे खिड़की में बैठाकर , ध्यान बंटाकर खाना खिलाया करती थी . मुसीबत तो तब आई जब हाथ में कलम पकड़ने की उमर आई .

. एक दिन वो घर आकर बोला :

" पापा , जीजी * कहती है कि पेन्सिल हमेशा इस हाथ में पकड़ो !"

उसने ऐसा कहकर अपना दांया हाथ बताया .

* बनस्थली में तब टीचर को जीजी कहने का चलन था .

इन जीजी के बारे में भी बताता चलूं . वे अपने सेवाकाल के अंतिम दशक में कार्यरत थीं और अवस्था में मुझसे बहुत बड़ी थीं .

वैसे ही एक बात और याद आती है जो बताऊं कि इनकी बेटी सत्तर के दशक में मेरे पास एम ए कक्षाओं में पढ़ा करती थी . तब एम ए परीक्षा के बाद वाय वा भी होता था और ये लड़की इतना धीरे बोलती थी कि तैयारी के दौरान ये सुझाव आया कि इनके लिए तो एक माइक लगवा देना ही ठीक रहेगा . खैर तब हम लोग टीचर की भूमिका में थे . अब मैं संरक्षक की भूमिका में था और ये जीजी टीचर थीं . खैर. .... ये बात तो सिर्फ इस लिए जोड़ी कि मैं ये बता सकूं कि कितनी बड़ी थी जीजी . उनके विचार भी बहुत पक्के थे जो मुझे मिलने पर और स्पष्ट हुए .

जब इस प्रसंग में मैं उनसे मिला तो जो पहली बात उन्होंने कही वो थी :

" आप भी इसे समझाओ कि ये दांए हाथ से लिखना सीखे."

हां, तब तो लिखता क्या था, लिखना सीख ही तो रहा था . उनकी मान्यता थी कि ये आदत यहीं से सुधारी जानी चाहिए .

और मैंने यह कहकर अपनी असमर्थता जताई :

" मैं इसे भला क्या समझाऊं , मैं तो खुद बांए हाथ से लिखता हूं "

और भी बातें हुई , घर लौटकर भी बात हुई इस बारे में पर वो आगे आएंगी .

ये बात अभी और चलेगी ......

पिछली दो कड़ियों पर आप सब ने समर्थन दिया उसके लिए आभार व्यक्त करते हुए...

प्रातःकालीन सभा स्थगित .. 

समीक्षा और समर्थन : Manju Pandya.

आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

बुधवार 22 जुलाई 2015 .


ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण  २२-०७-२०१८.

Friday, 20 July 2018

लैफ्ट हैंड़र : भाग दो .

लेफ्ट हैंड़र  : भाग दो .


कल इस प्रसंग पर पोस्ट बनाते हुए मैंने चर्चा की शुरुआत की थी . जितनी अपने लोगों की टिप्पणियां आईं पढ़कर अच्छा लगा कि होते हैं बहुत लोग लेफ्ट हैण्डर भी और राइट हैण्डर होकर भी कई लोग उनकी हिमायत करते हैं , खुद राइट हैण्डर होते हुए भी लैफ्ट हैंडर के लिए बोलते हैं दुनियांदार . कल मुझे लगा कि अल्पमत के लिए भी जगह है इस दुनिया में , इस जमाने में . हम भी हैं इसी जमाने में . कल तो ऐसा भी हुआ कि लोगों को एक दूसरे के बारे में ये एक नई बात पता चली ,वैसे आपस में जानते तो थे , ये नहीं जानते थे जो कल पता चला .

अब आज जितना संभव हो जाय कुछ एक छोटी छोटी बातें , कुछ अपनी और कुछ आपकी जो कि आप कहेंगे ही जब बात चलेगी .


बनस्थली : महिंद्रा प्रज्ञा में .

     - महिंद्रा प्रज्ञा मंदिर नाम से हाई टेक नई इमारत तैयार होने के बाद उसमें काम शुरू होने से पहले कुछ हवन पूजन की तैयारी थी . मंहगी इमारत थी तो पूजन करवाने के लिए शहर से मंहगे मोल वाले पंडित जी भी बुलाए गए थे , रेशमी कुर्ता - दुपट्टा पहने कई एक अंगूठियां अँगुलियों में पहने सक्रिय थे पंडित जी .

 

सारे इंतजाम में लॉजिस्टिक सपोर्ट का काम था परिसर के स्थानीय पंडित मुंशी लादू राम जी का . एक तो विशिष्ट जोड़ा और अन्य लोग हवन करने जा रहे थे . मैं भी चूंकि वहां उपस्थित था तो एक हवन कर्ता मैं भी बनाया जा सकता था .

मैं अपनी कहूं , अपनी सीमाओं को जानते हुए मैं ऐसी गतिविधियों में आगे बढ़कर भागीदार नहीं हुआ करता . मैं परंपरा और आधुनिकता दोनों ही का आदर करता हूं और मत मतान्तरों में उलझने से हमेशा ही बचता हूं .

वही ग़ालिब के शब्दों में सनातन द्वंद्व :


" ईमां मुझे रोके है , खींचे है मुझे कुफ़्र , 

काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे ."


उस दिन की बात :

        -- न जाने क्या कुछ हुआ कि उस दिन मुझे भी हवन में बैठना ही पड़ा . सिलसिलेवार कहूं तो शकल सूरत ठीक और अवस्था देखकर मुख्य पंडित जी ने मुझे संकेत दिया कि मैं भी हवन सामग्री का एक अंश लेकर पास बैठ जाऊं . मुंशी लादू राम जी तो मुझे बैठाना चाहें ही उनके साथ मेरे आत्मीय सम्बन्ध थे . मैंने अपने सीने पर हाथ रखा और मना के संकेत के लिए हाथ हिलाया पर दोनों ही पंडित न माने और मैं भी टीम में सम्मिलित कर लिया गया .


फिर क्या हुआ ?

     हवन प्रक्रिया के दौरान ज्यों ही मंत्रोच्चार के बाद पंडित द्वय बोलें ," स्वाहा " सब अग्नि की ऒर अपना हाथ बढ़ाएं सीधा और मैं हाथ बढ़ाऊं उल्टा .

पंडित जी ने सीधा हाथ काम में लेने की सलाह दी जो उन्हें देनी थी और मेरी स्थिति ये कि या तो हवन स्थल से ही उठ जाऊं और न तो उल्टा हाथ ही काम में लेवूं और गतिविधि में भागीदार रहूं .

इसी में मैं अल्प मत की भागीदारी देखता हूं , ऐसे ही समय परंपरा में संशोधन की आवश्यकता होती है ....  

बात आगे चलेगी अभी बहुत बातें हैं बताने को ... 

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

समीक्षा : Manju Pandya.

आशियाना आँगन, भिवाड़ी .

21 जुलाई 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण :

 जयपुर  २१- ०७-- २०१८.


Thursday, 19 July 2018

लेफ़्ट हैंडर : भिवाड़ी डायरी 

लेफ्ट हैण्डर :

समय कम है . आज बात की शुरुआत ही करे लेते हैं.

उस दिन जब जयपुर में शिवाड़ एरिया के छोर पर होमियोपैथी दवा की दूकान के नीचे मैं दवा खरीदने को खड़ा था तो मुझे देखकर एक नवयुवक काउंटर से एक सीढ़ी उतर कर आया और मुझे ऊपर ले लेने को उसने अपना हाथ बढ़ाया . ये उसका बांया हाथ था .

 ये मरी * आर्थराइटीज के चलते कभी कभी सामने वाले को लग जाता है कि सीढ़ी चड़ने के लिए 

इसे सपोर्ट की जरूरत है . यही उस दिन भी हुआ . कुछ कुछ अंदाज तो पहले ही लग गया था पर जब उसी युवक ने बांये हाथ से कलम पकड़ कर दवा का बिल भी बनाया तब तो पक्का ही हो गया कि वो भी मेरी तरह लैफ्ट हैण्डर ही है और इस तरह एक अपनत्व बन गया मेरे और उस बमुश्किल बीस साल के युवक के बीच . 

मैंने उससे पूछा :

" अरे तू भी लैफ्ट हैण्डर है ?

तुझे किसी ने सताया तो नहीं इस बात पर कि तू बांये हाथ से लिखता है ?

ये सारी दुनिया दांए हाथ वालों की है !"

उत्तर मुझे चोंकाने वाला था . वो बोला :

" सताया न अंकल , सबसे पहले तो बचपन में ही घर वालों ने दांये हाथ से लिखने पर जोर डाला , स्कूल में भी वही सब कुछ हुआ . कुछ एक काम मैं दांए हाथ से भी करने लगा पर बांए हाथ से लिखने की मेरी आदत न छूटी . "

इस दुनियां में ये लैफ्ट राइट डिवाइड बड़ी जबरदस्त है .

इसके चलते तो एक बार बनस्थली में संरक्षक के रूप में मैंने पेशी भी झेली और मैं " नॉट गिल्टी " प्लीड नहीं कर पाया वो कहानी रोचक भी है और भावुक कर देने वाली भी पर आज समय कम है , बहुत से सूत्र पिरोने पड़ेंगे . बात थोड़ी लंबी चलेगी .

प्रातःकालीन सभा अनायास स्थगित ........

* मरी ही कहा है मेरी नहीं .

सुप्रभात .

सह अभिवादन : Manju Pandya.

भिवाड़ी . राजस्थान .

20 जुलाई 2015

ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण   २० -०७-२०१८ .

Edit


Tuesday, 17 July 2018

कहो तो सही कहां जाना है : भिवाड़ी डायरी 

मैं मूर्ख हूं :


  आज की पोस्ट वास्तव में पूरक पोस्ट है , वो क्या कहते हैं सप्लीमेंट्री पोस्ट कह लीजिए . पिछली एक पोस्ट में इस प्रसंग को बीच में छोड़ना पड़ा था क्योंकि बात की दिशा तब कुछ और थी और ये बताने लगता तो ट्रैक बदल जाता . तो आज सही . प्राइवेट कॉफी हो चुकी और अब ये बात .

हुआ क्या था ?

             - मैं लिफ्ट में अकेला था . ग्राउंड फ्लोर पर दरवाजा ज्यों ही खुला मेरी ही उमर के से एक सज्जन अंदर आए और मुझे जल्दी थी ये बताने की कि मैं तो मूर्ख हूं जो मैं ने उन्हें बताकर जी हल्का किया . जल्दी से बात को स्पष्ट किया कि माजरा क्या था क्योंकि संवाद लंबा चलाने के लिए अधिक समय न उनके पास था और न ही मेरे पास . फिर भी भलमनसाहत उनकी कि ये बात वो मानने को तैयार ही नहीं थे और मेरे बरअक्स मुझे ही डिफेंड कर रहे थे , बोले :

" मैं समझा , लिफ्ट ऊपर से आई है और आप भी ऊपर से ही आ रहे हो."

" कोई ऊपर से नहीं आया साहेब , ऊपर जाने को लिफ्ट में घुसा था ,ऊपर तो पहुंचा नहीं खड़ा हूं जहां का तहां और आप आए हो तो बताए देता हूं तीसरे फ्लोर पर जाना है ,आप जाते हुए उतार जाइएगा . "

संवाद से पल भर को वो सज्जन भी खुश हुए . थोडा सा विलम्ब हुआ, वो भी ज्यादा नहीं और आ गया यथा स्थान . अपने आप से सवाल किया साठ पार ऐसे ही होता है ये तो सुना ही था , तेरे साथ भी यही होने लगा ?  

 मशीन है कहो जिस तल पर ले जाने को , अरे पर मूरख मशीन को कहो तो सही कि जाना कहां है .

जो बात इस घटना में है वही बात जीवन में है , कहो तो सही :

" कहां जाना है ?"

बात अभी घर में भी नहीं बताई थी , आपको बताई है अपने तक रखिएगा .

प्रातःकालीन सभा स्थगित ....

सूचनार्थ : Manju Pandya

*******

इस पोस्ट पर आई कुछ टिप्पणियों का भी यहां उल्लेख करता हूं :

१.

प्रभात ने इसे एबसेंट माइंडेड़ होना बताया कहा इसका उम्र से कोई ताल्लुक़ नहीं .

२.

कुसुम परीक ने एक और क़िस्सा बताकर मेरी हिम्मत बढ़ाई , कहा :

" सर यह कोई उम्र वाला या भूलने वाला वाकया नही है। हम महिलाओं के संस्मरण सुनाए तो दंग रह जायेेंगे आप

एक बार मेरी एक सहेली ने बताया कि हम 3 4 जनी शादी में जा रही थीं ।

 सब लिफ्ट में घुस गए ।

सामने एक दर्पण था 🤓🤓 

फिर क्या हुआ 😇😇 

आप समझ गए होंगे ।

3 4 मिनट तक लिफ्ट हिली ही नही और उनका सँवरना पूरा हुआ तो ध्यान आया कि हम कहाँ है? 

देखा तो जस के तस खड़े है।🙏😍😂😂😂😂😂 "

३.

प्रियंकर जी ने इसे एक दार्शनिक प्रश्न से जोड़ा और मेरा उत्साह बढ़ाया :

" काश ! कहां जाना है यह ठीक-ठीक पता होता . काश ! वहां ले जाने वाली लिफ्ट हुआ करती . :) "

४.

चुन्ना भाई नवीन भट्ट ने मेरी इस प्रकार सराहना की :

" विधाता की लिफ्ट भी निरन्तर चल रही है ,कभी ऊपर कभी नीचे ,लिफ्ट के माध्यम से आपने बड़ी गहन दार्शनिक बात कहदी ---- सुंदर पोस्ट "

५.

पल्लव ने तो पूछ ही लिया :

" मुसाफ़िर जाएगा क़हां ?"

६.

और जीजी ने एक दार्शनिक बात कह दी इसी पोस्ट पर :

" उम्र बीत गई गन्तव्य नहीं पासकी  यही अफ़सोस है । ---------जीजी

******

ब्लॉग पोस्ट का प्रकाशन और लोकार्पण :

जयपुर  : गुरुवार १९ जुलाई २०१८.




Monday, 16 July 2018

मेरा स्टेटस .

मेरा स्टेटस :


जब भी फेस बुक खोलता हूं एक ही बात :

" वाट इज इन योअर माइंड ?"

इसी के जवाब में कभी कबार बल्कि रोज बरोज कुछ न कुछ मांड देता हूं .

ये ही है आज की दुनिया के साथ संचार की कहानी .

कुछ बातें मेरे अपने जानने वालों तक पहुंचती हैं , कुछ पहले से अनजान लोगों तक पहुंचती हैं और वो मेरे जानने वाले बन जाते हैं . कुछ बातें पुराने जानने वालों तक पहुंचती हैं और वो नए सिरे से जुड़ जाते हैं . कुछ बातें बट्टे खाते में भी जाती होंगी ही जिसके लिए ये ही कहा जाएगा कि इन बातों को यहां दर्ज करने की जरूरत ही क्या थी . सेंसर बोर्ड की इस बारे में लगातार चेतावनी भी मिलती है जिसे मैं ख़ुशी से झेलता हूं .


बहुत सी बातों को भूलना चाहता हूं पर भूल नहीं पाता , बहुत सी बातों को याद करने की कोशिश करता हूं पर उनमें कोई कोई ख़ास नुक्ता याद ही नहीं आता . पता नहीं ये मेरे साथ ही होता है या सब के साथ होता है . वस्तुस्थिति क्या है ये तो आप बताएंगे , मैं कैसे बताऊंगा .

एक और झंझट है -- एक बात देखकर दो बात याद आ जाती है . करूं क्या मैं उन बातों का ? उन बातों को दर्ज कर देता हूं . फिर चाहे तो वो बातें जाए बट्टे खाते में .अपने आप से कहता हूं " दर्ज कर और भूल जा."

बुद्धिमान लोग बताते हैं कि प्रायः साठ के पार ऐसा ही होता है . बहरहाल मैं तो मूर्ख हूं इस स्थापना को कल सुबह की पोस्ट में स्पष्ट करूंगा . 

अभी कुछ एक बातें कहे देता हूं :

मैं कोई किस्सा गढ़ता नहीं , आप बीती और आँखों देखी प्रामाणिक बातें ही कहता हूं .

भरपूर कोशिश करता हूं कि कोई किसी को आहत करने वाली बात मेरी ओर से दर्ज न होवे . फिर भी ऐसा हो जाता है कि लोग आहत हो जाते हैं . उसका भी स्पष्टीकरण और समाधान करता हूं . इतना अवश्य है कि भली कही बात को पढ़ने सुनने वाले एक जैसा नहीं समझते . तभी तो नीलम शर्मा बार बार दोहराया करती हैं ,' आप कैसे देखते हैं ? '

 तो आज मैं भी उसी सवाल के साथ प्रातःकालीन सभा स्थगित करता हूं ............' आप कैसे देखते हैं? '

अभी हाल तो ये ही है स्टेटस .


सुप्रभात . ☀️

समीक्षा : Manju Pandya.



Sunday, 15 July 2018

बनस्थली की रेल यात्रा : शाम वाली गाड़ी में .

बनस्थली की रेल यात्रा : शाम वाली गाड़ी में .


    जयपुर आना होता प्रायः मंगलवार के छुट्टी के दिन . शाम को लौटने के बखत जयपुर स्टेशन पर जाकर गाड़ी पकड़ते जो छह बजे के आस पास जयपुर से निकलती थी .

बनस्थली जाने वाली रोडवेज की आख़िरी बस तो पांच बजे ही रवाना हो चुकी होती अतः थोड़ा अधिक समय मिल जाता इसलिए गाड़ी पकड़ते .

वही लोहारू सवाई माधोपुर रूट की शाम की सवारी गाड़ी , इससे ही बम्बई जाने वाले मुसाफिर भी सवाई माधोपुर जाया करते थे , हमें तो खैर बनस्थली - निवाई स्टेशन तक ही जाना होता था . उसी यात्रा की एक बार की बात आज बताता हूं , पहले गाड़ी के माहौल का दृश्य बयान कर दूं .

सवारी गाड़ी की हालत :

       इस गाड़ी में जबरदस्त भीड़ तो होती ही थी , ऊपर से तुर्रा ये कि ट्रेन के करीब आधे डिब्बों में रोशनी भी नहीं होती . सर्दियों में तो निवाई पहुंचने तक अंधेरा होने लगता इसलिए अगर बच्चे साथ होते तो प्रायः टॉर्च भी साथ रखते जिससे सामान और बच्चों को ठीक से उतार सकें अपना स्टेशन आने पर .

टिकिट खिड़की पर भी भीड़ होती , मैं तो शहर में वैस्टर्न रेल्वे आउट एजेंसी से पहले ही जाकर टिकिट खरीद लाता तब फिर स्टेशन की राह पकड़ता .

अब एक बार की बात :

       यही गाड़ी पकड़ने को मैं जयपुर के रेल्वे प्लेटफार्म पर जाकर खड़ा हुआ तो वहां सहयात्री के रूप में संगीत के प्रोफ़ेसर नाडकर्णी मिल गए . मैं तो उस दिन अकेला ही था , साथ मिल गया , एक से दो होगए . बहरहाल दोनों ही सामान के थैलों से संपन्न थे .


अंजनी कुमार आ गए टहलते हुए हमारे पास . मैंने कहा ," आ जाओ ."

वो मिले पर वापस लौट गए , उनका तो फर्स्ट क्लास में रिजर्वेशन था . उन्हें बम्बई जाना था . कोई पांच सात सूट केस और उनकी वाइफ नियत स्थान पर दीख रहे थे जिधर उन्होंने इंगित किया . उनका और हमारा साथ तो जयपुर के प्लेटफार्म तक गाड़ी आने के पहले तक ही रहा .

बच गए मैं और प्रोफ़ेसर नाडकर्णी जो गाड़ी आने पर जस तस मय सामान के सवार हुए और थोड़ी थोड़ी जगह पाकर सीट पर बैठ गए .

हम आपस में बातें करने लगे . साथ बैठकर बात करते हमारी यात्रा की ये घंटे दो घंटे की अवधि बीत जानी थी पर ज़माना कहां चैन लेने देता है . 

क्या हुआ वही बताता हूं :


टंटे की शुरुआत :

          रवाना होते समय ही हमारे कम्पार्टमेंट में भी सवारियों का दबाव काफी बढ़ गया था . इसी क्रम में कुछ निहायत लफंगे किस्म के नौजवान लड़के कीचड़ में सने जूते पहने पहने ही ऊपर की सीटों पर आ चढ़े और ताश खेलने में मशगूल हो गए थे . इस पर भी हमें क्या ऐतराज हो सकता था अगरचे वो शान्ति पूर्वक रहते . पर वे शान्ति से कहां रहने वाले थे . थोड़ी ही देर में खेल के साथ धींगा मुश्ती शुरु हो गई और उनके जूतों से मिट्टी हम पर झड़ने लगी .

" ए भाई जरा तमीज से बैठो , नीचे भी इंसान बैठे हैं ."

 फ्रोफेसर नाडकर्णी ने थोडा तेज आवाज में उनको समझाइश का प्रयास किया . उनको बात समझ में कहां आने वाली थी , उलटे वो हम से संगठित रूप से उलझने लगे . मुझे उस समय लगा कि अब ये लोग नीचे उतरकर हमसे गुत्थमगुत्था और होंगे और हमारे लिए कठिन स्थिति उत्पन्न हो रही है .

आपात सहायता :

    हमारा तो उस ओर घ्यान भी नहीं था . पुलिस की वर्दी में एक थानेदार हमारी ही सीट पर खिड़की के पास चुपचाप बैठे थे . बाद में पता चला वो जयपुर के किसी थाने में अपनी ड्यूटी ख़तम कर अपने गांव जा रहे थे , वे अचानक हमारी हिमायत में उठ खड़े हुए और कड़क कर कुछ इस प्रकार बोले :


" फ्रोफेसर साब समझा रहे हैं और तुमको बात ही समझ में नहीं आ रही ?

मैं अच्छी तरह समझाऊं क्या तुमको ... ?"


उन्होंने अपने पुलिसिया अंदाज में एक की बांह मरोड़ी और एक बारी तो धमकाने को उनका हाथ कमर में लटकी पिस्तौल पर भी चला गया बोले शूट कर दूंगा . फिर उन्होंने उन लफंगों को वहां से हटाकर ही दम लिया .

विपत्ति आई पर इस प्रकार दूर भी चली गई . हम कौन हैं इस बात का अंदाज हमारे तारणहार को शायद हमारी आपसी बात चीत से ही लगा वरना परिचय तो उनके इस हस्तक्षेप के बाद ही हुआ था .


आज प्रोफ़ेसर नाडकर्णी तो रहे नहीं इस वाकये की तस्दीक करने को मुझे ये घटना याद है जो मैंने दर्ज की .

ऐसी अनेक यादें हैं जो बनस्थली की यात्राओं से ही जुड़ी है , आगे फिर कभी बताऊंगा .

अंजनी कुमार की बात भी अधूरी रह गई . वो भी आगे कभी ...


प्रोफ़ेसर नाडकर्णी को याद करते हुए .  

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

समीक्षा : Manju Pandya.


Saturday, 14 July 2018

चोरंग्या  : स्मार्टफ़ोन का करतब .

अच्छा है ना सर! चाळे लगे रहते हैं आप ।’

तीन बरस पहले सज्जन * ने तो ऐसे कह दिया था जब मैंने अपनी ये दुविधा यहां दर्ज की थी . आज उठाकर इसे ब्लॉग पोस्ट बणा दिया , देखो तो सही .

* Sajjan Poswal.


सुप्रभात ☀️

नमस्कार 🙏 

जयपुर १५ जुलाई २०१८ .

*****

     ये स्मार्टफोन ने तो बजाय स्मार्ट बनाने के चोरंग्या कर दिया .

क्या कहा , " चोरंग्या " क्या होता है ?

मतलब होता है जिसका चारों तरफ ध्यान भटकता हो . ये शब्द मैंने बनस्थली में घरों में काम करने वाली बाइयों से सुना और सीखा था .

चारो तरफ से , विभिन्न उपकरणों और माध्यमों से चले सन्देश सुबह ,दोपहर ,शाम और रात आते जाते हैं कि आदमी इससे अटका रहता है , भटका रहता है .

कोई तदनुभूति वाले और हों तो मैदान में आओ और हिम्मत बंधाओ न स तो अपन तो बन गए चोरंग्या .


फोटो क्रेडिट : Manju Pandya



२०१५ की रचना .

दुविधा ब्लॉग पर प्रकाशित  जुलाई २०१८. 

Friday, 13 July 2018

बच्चों को कहा रेज़गारी : फ़ेसबुक डायरी .

बच्चों को रेज़गारी कह देते ...   

शीर्ष नोट :

  छोटा सा किस्सा थोड़े संकोच के साथ लिख रहा हूं . अगर सेंसर बोर्ड को ये वल्गर लगा तो पोस्ट हटाई भी जा सकती है .


ये पिछली शताब्दी के उस काल खंड की बातें हैं जब रुपए का मोल आज से बहुत बेहतर था . उसी के अनुरूप कहावतें और शब्दावली का समाज में प्रचलन भी था .

समय का चित्रण .

          मुझे अच्छी तरह याद है नाहर गढ़ की सड़क पर मोहन हलवाई अपनी दूकान खोलता जब सुबह सुबह तो चवन्नी , अठन्नी की ढेरियां बनाता और इससे आगे लेन देन करता . गो कि तब रेजगी या रेजगारी का बड़ा महत्त्व हुआ करता था . रुपए की तो बड़ी कदर थी ही छोटे सिक्के भी खूब प्रचलन में थे . रुपया भुनाने पर रेजगारी मिल जाया करती थी . नए पुराने दोनों ही प्रकार के छोटे सिक्के प्रचलन में थे .

जो ' चवन्नी चलती थी ' वो भी अब तो शासन ने प्रचलन से हटा ली , अठन्नी वैध तो है पर लेता देता कोई नहीं अतएव प्रचलन से बाहर ही है .

खैर .जाने दीजिए ..

उसी काल खंड में हलके फुल्के मजाहिया बातचीत में बच्चों को रेजगारी कह दिया जाता था.


उस युग का एक संवाद :

        एक बस में एक कस्बाई अल्प शिक्षित युवती सवार हुई जिसके साथ दो तीन छोटे बच्चे भी थे - एक गोद में और कुछ एक साथ . वो एक सीट पर जा बैठी और साथ बच्चे तो थे ही .

उसी के पास एक नई रौशनी की युवती भी आई और वहां बैठी . बच्चे तो बच्चे हैं उस ' टच मी नॉट ' युवती से भी अटक लिए . हालांकि सब कोई तो बच्चों से ऐसे परहेज नहीं करता पर शायद ये नई आई सवारी कुछ थी ही तुनक मिजाज उसने कस्बाई युवती से कह दिया :


" हटाओ अपनी ये रेजगारी ."


मां की भूमिका में जो युवती थी उसने बच्चे तो अपने से सटा लिए लेकिन एक कौतुक प्रश्न भी इस सम वयस्क युवती से पूछ लिया बाई द वे :


" बहन...आपका रुपया अभी भुना के नहीं ? "


क्या कहती ये युवती , मुहावरा उसी जमाने का था !


प्रातःकालीन सभा स्थगित.

सेंसर बोर्ड : 

Manju Pandya 

आशियाना आंगन , भिवाड़ी .

15 जुलाई 2015.

ब्लॉग पर प्रकाशित : जुलाई २०१८ .

Thursday, 12 July 2018

नानगा द ग्रेट : स्मृतियों के चलचित्र ९.

नानगा द ग्रेट : नौवीं कड़ी 


आज की कड़ी लिखने से पहले दो लोगों का विशेष आभार व्यक्त करता हूं . एक बनस्थली के श्याम जी और दूसरा अलवर का लोकेश . श्याम जी मुझे लगातार कहा करते थे :


" भाई साब , अब काईं न काईं लिखो . अब देबा को बखत आगो ." 

अर्थात भाई साब अब कुछ न कुछ लिखो , अब देने का समय आ गया .


लोकेश और रेणु जयपुर आए थे और तब लोकेश ने मुझे कहा था :


"मौसा जी , आप कोई पोस्ट नानगा के बारे में भी लिखो . उसका व्यक्तित्व ऐसा रहा है कि वो डिजर्व करता है एक पोस्ट ."


इन्हीं लोगों की प्रेरणा मानता हूं कि आठ कड़ी पहले लिख चुका हूं और आज नौवीं कड़ी लिखने जा रहा हूं . आगे बात बढ़ाने में मेरे परिवार जनों और इष्ट मित्रों , जो भी मेरा परिवार ही हैं , ने अभूतपूर्व योगदान दिया जिससे ये श्रृंखला बन पड़ी है , इसमें मेरा कुछ नहीं है . रहीम के शब्दों में: 


" देनदार कोउ और है , देत रहत दिन रैन ।

लोग भरम हम पै धरैं , यातें नीचे नैन ।।"


पहले राजस्थानी की एक लोक प्रचलित कहावत :


" जैपर चाल्यां सै सिद्ध हो जासी.

थाळी ठीकरो हो जासी .

रूपयो - पीसो हो जासी .

टाबर टोळी हो जासी। "


ये उस मनोदशा को इंगित करने वाली कहावत है जो किसी ग्रामीण को नगर की दिशा में प्रयाण के लिए प्रेरित करती है , जैसे प्रेमचंद की कहानी में गोबर नगर चला आता है , नानगा भी जयपुर नगर में आया था पर वो ऐसा आया कि नगर का ही विस्तार वहां तक हो गया जहां जाकर नानगा ने अपने गांव में खुरपी जा गाड़ी .


 नानगा की मसखरी की मुझे चक्रपाणि ने याद दिलाई . नानगा किसी हास्य सम्राट से कमतर नहीं था . आज उसकी केवल एक बानगी बताता हूं . नानगा मुझे कहता:


" रजाई क्यूं बणवावो छो भाया जी , थांकै तो कन्नै ही नुवाई छै ."


अर्थात भाया जी रजाई क्यों बनवाते हो ? आपके तो पास ही निवाई है .

स्थानीय भूगोल के जानकार समझते हैं कि निवाई टाउन बनस्थली के पास ही तो है . निवाई का शब्दार्थ होता है गरमाहट . तो जो निवाई की ओट में रहता हो उसे रजाई ओढ़ने की क्या जरूरत .

जीजी ने भी नानगा बाबत कई बातें बताई , जैसे :

" नानगा की मसखरी का एक किस्सा मैं भी बतातीं हूं  ।एकबार हम उदयपुर आरहे थे ।नानगा से पूछा तुम्हारे लिये उदयपुर से क्या लावें तो उसका जवाब था ।मेरे लिये दो पैसे का उदयपुर ले आना ।ऐसा ही एक वाकया और ,देखिये ।उसने हमारा लेजाने का बिस्तर बांध दिया तब मैंने कहा नानगा थैंक्यू ।उसने प्रत्युत्तर दिया , " क्या फेंक दूं ? " ऐसा था हमारा नानगा । "

एक आध बात भाई साब टिप्पणी में जोड़ेंगे ही मुझे भरोसा है , न तो मैं वो बातें जोड़ूंगा जो उन्होंने बताई हैं अब तक .


नानगा की मसखरी की इन्हीं बातों को आगे भी बताऊंगा पर अभी हाल प्रातःकालीन सभा स्थगित .....

सुप्रभात :

सह अभिवादन : Manju Pandya

आशियाना आंगन, भिवाड़ी .

14 जुलाई 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशित : जुलाई २०१८.


Tuesday, 10 July 2018

नानगा द ग्रेट : स्मृतियों के चलचित्र ८.

नानगा द ग्रेट : आठवीं कड़ी .


6 जुलाई को नानगा बाबत सातवीं कड़ी लिखकर पोस्ट की थी उसके बाद पोस्ट तो मैंने लिखी पर इस श्रृंखला का क्रम स्थगित हो गया . आज उसे आगे बढ़ाने का प्रयास करता हूं .


सुधीर ने तो मुझे पहले ही कहा था कि उसके नानगा मामा की कहानी वास्तव में हमारे घर की कहानी है . ये कहानी कैसे भला पूरी हो सकती है . पोस्ट पूरी हो सकती है कहानी पूरी नहीं हो सकती . इतनी तो बातें हैं बताने को कि कहां तक बताई जाएं . काकाजी से नानगा ने इतना कुछ सीखा जो शायद हम संतानों ने भी उतने अच्छे से न सीखा कभी .


जीजी ने मुझे फोन कर बताया कि जीजी के विवाह में नानगा ने सोने की अंगूठी उपहार में दी थी . जीजी नियमित रूप से नानगा और शेठाणी के लिए राखी भेजा करती थी इत्यादि .

भाई साब ने और बातों के अलावा नानगा का ये गुण रेखांकित किया कि सब कुछ अपने लिए नहीं , अपने उपभोग के लिए नहीं कुछ आगे की पीढ़ियों के लिए भी बचाओ , उनके लिए भी छोड़ो . ये सन्देश तो वास्तव में किसी व्यक्ति के लिए नहीं वरन अखिल मानवता के लिए है .


खैर अभी हाल नानगा के जीवन दर्शन और अर्थशास्त्र को छोड़कर वहीँ चलूं जहां सातवीं कड़ी छोड़ी थी .....

********

राज भवन में नानगा :

  बात आई थी कि नानगा ने तीतर उड़ा दिया .

गया तीतर , आकाश में उड़ गया . रसोइए ने ये बात बनाई कि तीतर तो बीमार लग रहा हैं , एक आध बार बगीचे और पिंजरे के चक्कर लगाए और ये आ बताया कि तीतर तो मर गया . और इस तरह तीतर की बात , तीतर प्रसंग ख़तम हुआ . जबकि तीतर तो कभी का परिंदों के आकाश में चला ही गया था . बाकी कहानी आप को विदित ही है . उन वीभत्स बारीकियों में मैं अब नहीं जाऊंगा .


नानगा का तबादला :

    नानगा राजभवन में नाखुश था , नौकरी छोड़ना चाहता था . काकाजी ने उसे रोका था और वो दिन गिन रहा था .

जब तक जयपुर महाराजा राज प्रमुख रहे काकाजी भी राज प्रमुख के हिज हाईनेस हाउसहोल्ड में रहे . ठाकुर मोहब्बत सिंह जी के इस्तीफे के बाद काकाजी वहां अकाउंट्स आफिसर बन गए थे . 


पर राज प्रमुख का पद समाप्त होने के बाद उनकी सेवाएं भी तब राज्य सरकार में विलीन हुईं और उन्हें चिकित्सा और स्वास्थ्य विभाग में काम मिला . उनकी हैसियत वर्तमान एफ ओ के समतुल्य थी और तब की व्यवस्था में एक चपरासी और साइकिल सवार की नियुक्ति या तबादला करना या करा लेना उनके हाथ की बात थी . और इस प्रकार नानगा का बड़ी आसानी से तबादला हो गया नानगा मेडिकल डिपार्टमेंट में आ गया .

जैसा कि राज्य सरकार की सेवा में होता है काकाजी के तो डिपार्टमेंट भी बदले , जयपुर शहर के बाहर भी तबादले हुए पर नानगा उसी मेडिकल डिपाटमेंट में रहा और शहर में ही रहा जहां उसे नियुक्ति मिली थी .

नानगा बाबत एक ख़ास टिप्पणी भाई साब नरेंद्र पंड़्या की -

" नानगा के बाबत मैं ये कहूँगा कि खून के रिश्तों के इतर भी कोई रिश्ते खून के रिश्तो से भी बढ़कर हो सकते हैं, वे नानगा के और हम लोगो के रिश्ते थे शायद हमारे देश में पाए जाने वाले ऐसे ही रिश्तो पर ही हमारे देश की बुनियाद टिकी है और ये ही रिश्ते हमारे देश भारत को भारत बनाये हुए है पता नहीं क्यों लोग इस देश को बाटने और बर्बाद करने की व्यर्थ कोशिश करते है इंसानी रिश्ते धर्मं ,प्रान्त,सम्प्रदाय औरभाषा सेऊपर है."

ऐसे ही एक टिप्पणी मित्रवर गोविंद राम केजरीवाल की भी यहां जोड़ता हूं जिन्होंने ये संस्मरण लिखते हुए मेरा बहुत उत्साह वर्धन किया , वे कहते हैं :

“ बहुत ही सुंदर श्री सुमंतजी.. आपके स्मृतियों के चलचित्र भी इतने सुहावने और स्फूरतिदायक हैं कि मन प्रसन्न हो जाता है जैसे "मुगले आॅजम" फिर से रिलीज हो गई है.. “

कथाक्रम जारी रहेगा........

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

सुप्रभात .

समर्थन और सहयोग : Manju Pandya.


सुमन्त पंड्या .

आशियाना आंगन , भिवाड़ी .

11 जुलाई 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशित    जुलाई २०१८ .

यहां फिर मेरी जुगलबंदी नानगा के बड़े बेटे शंकर के साथ .



Monday, 9 July 2018

ल्याओ खीर : स्मृतियों के चलचित्र 

लाओ खीर .....


बरसों पहले माता पिता के साथ मेहसाणा , गुजरात की यात्रा कर रहा था तब की एक बात याद आ गई .

एक कोई सौदागर यात्रा के दौरान बोली के जरिए तरह तरह की चीजें बेच रहा था . लंबी दूरी की यात्रा से ऊबे मुसाफिरों का इस सौदेबाजी से मनोरंजन भी हो रहा था और सौदागर का माल भी बिक रहा था इस तरह से .

भांत भांत के आयटम थे उसके पास बेचने को . जो सबसे ऊंची बोली लगाता वो उस बिक्री के आयटम को खरीदता . पर एक बात और भी थी कि कभी कभी सबसे ऊंची बोली लगाने वाले का भी सौदा नहीं पटता . सौदागर ये जताता कि उसे माल की वाज़िब कीमत नहीं मिल रही और वो बजाय आयटम देने के ऊंची बोली लगाने वाले को कोई गिफ्ट दे देता बजाय सौदा मुकम्मल करने के .

ये गिफ्ट देने वाला आइडिया ही वो सूत्र है जो मुझे आज की पोस्ट की तरफ धकेल रहा है . जो श्रृंखलाएं चल रही हैं अगर विचार मंथन के अभाव में कुछ रुकी हैं तो मेरे पाठक / श्रोता क्यों निराश हों और मुझे टोकें कि आज की पोस्ट क्योंकर नहीं आई . क्यों न स्मृतियों की चित्रशाला से कोई एक छोटा प्रसंग कह डालूं , सुना डालूं . श्रृंखला की पोस्ट मुकम्मल नहीं तो ये गिफ्ट ही सही इस बीच .

तो आज बल्ला काकाजी के बारे में :

     - बल्ला काका काकाजी (हमारे पिता )के मामा के बेटे भाई थे और क्रॉनिक बैचलर थे . नाम तो वैसे उनका लक्ष्मी नारायण था पर घर के नाम " बल्ला" से ही पुकारे जाते थे . जीवन भर वे भारतीय रेल की सेवा में रहे . तबीअत के रईस थे . उनका एक स्टाइल था . पहली तारीख को वेतन मिलता तो वो जयपुर के जौहरी बाजार स्थित एल एम बी होटल में खाना खाने अनिवार्यतः जाते . तब का तो बेहतरीन शाकाहारी होटल और रेस्टोरेंट वही था . आज भी नाम है ही उस होटल का .

ये तो पचास के दशक की बात है . उन्हें भर पेट भोजन के शायद पचास रुपए चुकाने होते थे , मेरी स्मृति में दर्ज आंकड़ा कुछ भिन्न भी हो सकता है पर उससे क्या ? बात तो ये है बताने की कि उन्हें भर पेट भोजन करना था और एक मुश्त भुगतान करना था .

सवाल ये था कि ग्राहक सेवा की शर्तें होटल की हों या ग्राहक की ? साथ ही एटीकेटी की बात .


अब आता है किस्से का क्लाइमैक्स :

    - डेजर्ट के नाम पर छोटो छोटी कटोरियों में बहुत गरम खीर लेकर बैरा आवे और "ल्यो खीर ...ल्यो खीर " कहकर चिड़ावे ग्राहकों को . ग्राहक चम्मचों से सिपड़ सिपड़ करें और खीर को उस ताप पर खा न पावें .

बल्ला काका , भरतपुर के मूल निवासी , मिठाई के शौक़ीन उनको ये स्थिति स्वीकार नहीं थी . काहे का एटीकेट उन्होंने बाजी पलट दी , वही आज बताता हूं जो मुझे आज तक याद है .

वो लट्टू सी छोटी कटोरियाँ बजाय एक के चार लेते वेटर से, थाली में उलटते और ठंडी करके खाते खीर .

थोड़ी देर पहले वेटर की बारी थी : "ल्यो खीर...ल्यो खीर..."

( लो खीर...लो खीर ...)

अब बल्ला काका की बारी थी : " ल्याओ खीर ....ल्याओ ..खीर..."

( लाओ खीर...लाओ खीर...)

ब्लॉग पर प्रकाशित  : जुलाई २०१८.

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आपका किस्सागो    सुमन्त ।

Sunday, 8 July 2018

घोड़े बेचकर सोया : बातें बनस्थली की 

घोड़े बेचकर सोया : बातें बनस्थली की .


    क्षमा कीजिएगा ' नानगा द ग्रेट ' श्रृंखला की एक कड़ी में लिखते लिखते बात आई थी कि नानागा छत पर बिस्तर बिछाता था और मैं जाकर सो जाता था . उस श्रृंखला की तो शायद सात कड़ियां लिख चुका उसे आगे लिखूंगा ही उस बात से ये बातें याद आने लगीं वही आज बताता हूं .

जयपुर में हमारे शहर वाले घर में तो धीरे धीरे छत पर जाके सोने का चलन कम हो गया था पर गर्मियों में 44 रवींद्रनिवास की छत पर जाकर सोना बदस्तूर जारी था . ये बात बनस्थली की है . बच्चे इकठ्ठा होते तो रात को छत पर जाकर सोने का आनंद सब अनुभव करते .

जय भैया रोज रात को सोने से पहले 'चार दोस्तों' वाली कहानी सुनता .

जय को और कोई पास न सुलाता , कौन झेले उसकी लात जो वो नींद में चलाता. मैं उसे अपने पास जगह देता . एक तरफ दीवार होती जय के और दूसरी तरफ मैं होता . मैं भी घोड़े बेचकर सोता इसलिए मुझे उसकी लात की कोई परवाह नहीं होती . याद करता हूं तो हंसी आ जाती है . जय कहता , " जयपुर जाऊंगा तो ये छत अपने साथ ले जाऊंगा ."


मेरी नींद के भी कई किस्से हैं , वो किस्सा जब दरवाजा तोड़ने की नौबत आ गई थी सुनाऊंगा तो तो जुलुम हो जाएगा . आज वो नहीं , आज तो बनस्थली की यादों से जुडी दो बात बताकर समाप्त करूंगा .


मैंने एक बात प्रचारित कर रखी थी कि काकाजी परेशान रहते हैं कि मैं तो नए नए घोड़े खरीदवाता हूं और पंड्या जी बेच देते हैं . 

बाहरी लोगों के लिए बताता चलूं कि और सब बातोँ के अलावा ये काकाजी नाम के व्यक्ति जीवन पर्यन्त मुख्य प्रशासन अधिकारी रहे और घुड़ सवारी मैदान में वो घोड़ों का परफार्मेंस देखने आते थे और मैं मेहमानों की अगवानी के लिए खड़ा होता था . उन्हें दिल्लगी की बातों में बहुत रुचि होती थी सो एक बात मैंने अपनी नींद से भी जोड़ रखी थी .


अब घर की छत की बात :

    एक रात की बात . शाम से ही छोटे वाले को बुखार की शिकायत थी . हम दोनों लोग आदतन घर की छत पर बच्चों के साथ जाकर सो गए थे . अब ये तो मानी हुई बात है कि बच्चे को बुखार हो तो मा तो निश्चिन्त होकर नहीं सो सकती और बाप चाहे तो सो जाए . वही हुआ उस दिन भी . आधी रात के बाद किसी समय छोटे वाले का बुखार तेज हो गया , शायद नाप भी लिया गया . जरूरत आन पड़ी कि उसे गोली दी जाए . मुझे जगाया जीवन संगिनी ने और कहा :


" उठो, छुटकू नै गोळी आपवी छै."

( उठो , छुटकू को गोली देनी है .)

उन्होंने मान लिया कि मैं उठ गया और जो बताया वो करने को चल पड़ा हूं . यहीं गड़बड़ हो गई . मैं चला तो सही , पर कहां चला अलमारी समझकर जीने की ओर चल दिया और अगला पैर नीचे उतरने की कोई चौथी सीढ़ी पर टिका . धमाका सुन जीवन संगिनी भी चौंकी. कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई पर चेत होने से पहले तो मुझे दिन रात और स्थान का भी ठीक से पता नहीं था . अलमारी समझकर जीने की ओर जा रहा था .

फिर तो सब कुछ ठीक ठाक हो गया और मैंने अपना आगे का कर्तव्य भी निभाया . पर उस दिन हम दोनों ने संयुक्त रूप से निर्णय लिया कि जब तक जीवन संगिनी पूरी तरह आश्वस्त न हो जाएं कि मैं पूरी तरह जाग गया हूं मेरी बात पर कत्तई भरोसा न करें और मुझे ढीला न छोडें .

उस दिन ऐसे में तो मैं दवा भी क्या दे बैठता, क्या भरोसा ?


तो ये था सिर्फ एक किस्सा घोड़े बेचकर सोने वाली नींद का ...


प्रातःकालीन सभा स्थगित..   

सुप्रभात .

सह अभिवादन :

Manju Pandya

सुमन्त पंड्या .

आशियाना आँगन, भिवाड़ी .

9 जुलाई 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशित  जुलाई २०१८.



Wednesday, 4 July 2018

बनस्थली की रेल यात्रा : चाकसू स्टेशन .

बनस्थली यात्रा :एक आध प्रसंग याद आ गए .


                                                  ये उस जमाने की बातें हैं जब बीकानेर एक्सप्रेस से पहले छोटी लाइन की गाडियां लोहारू से सवाई माधोपुर जाया करती थीं . हम लोग भी उस जमाने में बनस्थली निवाई स्टेशन जाने को इस रुट की गाड़ी कभी कभार पकड़ा करते थे .


एक बार की बात मैं बनस्थली जाने को ट्रेन से यात्रा कर रहा था . मैं तो उस दिन अकेला था , परिवार या कोई साथी नहीं था साथ में . सहयात्री परिवार शायद लंबी दूरी की यात्रा करने वाला था . उन दिनों दिल्ली - बम्बई रूट की फ्रंटियर और जनता नाम की गाड़ियों में लोग इसी गाड़ी से सवाई माधोपुर जाकर सवार होते थे . सहयात्री परिवार को भी शायद बम्बई ( आज का मुम्बई ) जाना था . कंपार्टमेंट में काफी जगह खाली थी , सब बड़ी सुविधा से बैठे थे . इस परिवार का बहुमत था , मैं था अकेला अल्प मत लोक सभा में राष्ट्रपति के नामजद सदस्य की मानिंद , मेरी पटरी बहुमत परिवार से भी ठीक बैठ रही थी , थोड़ी बात चीत भी हुई थी सब कुछ ठीक ठाक .


चाकसू स्टेशन आ गया :

   - स्टेशन आने से पहले सहयात्री परिवार के मुखिया कम्पार्टमेंट के दोनों ओर के दरवाजे इस तरह से बंद कर आए कि कोई आगंतुक बाहर से न खोल सके और स्टेशन से ट्रेन आगे बढ़ जाए . इन की आगे की यात्रा इसी शांति और आनंद के साथ संपन्न हो . मुझे उनकी इस हरकत में " हाई सोसाइटी सिंड्रोम " की बू आ रही थी .

थोड़ी ही देर को गाड़ी स्टेशन पर रुकती थी . गाड़ी रुकी , प्लेटफार्म पर भीड़ भाड़ थी .लोग इस डब्बे में भी आने को इच्छुक थे .


अपनी कहूं , मेरी पटरी ऐसे लोगों से भी सही बैठ जाती है जो अभिजन ग्रंथि से ग्रसित होते हैं पर ग्रामीणों से और बढ़िया बैठती है . मेरा मन कैसे माने कि लोग तो आना चाहें और इस डब्बे के दरवाजे बंद रहें .

मैं उठा और प्लेटफार्म की ओर के दरवाजे की दोनों सटकनी हौले से खोल कर आवागमन सहज बना दिया . ऊपर से सह यात्रियों को ये और कहा : 

" मेरे मिलने वाले हैं ."

अब इस प्रकार के लोग आ गए थे कम्पार्टमेंट में जिनके साथ मैं अधिक सहज अनुभव कर सकता था हालांकि मेरे सहयात्री नहीं . 

जाने क्यों लोग अपनी सुविधा के लिए अन्य लोगों की यात्रा को बाधित कर बैठते हैं , ये मानसिकता प्रायः देखी जाती है .

खैर उस दिन तो चाकसू स्टेशन के बाद मैं अपने जनवाद के विचार के साथ बहुमत स्थापित करने में सफल हो ही गया था .

शीर्षक में एक आध प्रसंग कहा था. ये तो एक ही प्रसंग हो पाया. 

आगे कुछ एक प्रसंग और भी बताऊंगा पर अभी प्रातःकालीन सभा स्थगित ....


सुप्रभात .

समर्थन और समीक्षा :Manju Pandy.

आशियाना आंगन , भिवाड़ी.

7 जुलाई 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशित  जुलाई २०१८.



Monday, 2 July 2018

नानगा द ग्रेट : स्मृतियों के चलचित्र ७.

नानगा द ग्रेट : सातवीं कड़ी .


     नानगा गवर्नर हाउस याने राज भवन में त्रस्त था और नौकरी छोड़ने पर आमादा था . जैसी खान पान की सामग्री उसे बाजार से लेकर आनी होती थी उसे अच्छा नहीं लगता था . राज भवन में भी उसके काम काज का तरीका निराला था . निरक्षर व्यक्ति दुनियां भर में डाक बांट आता आखिर वो साइकिल सवार था , कैसे छटनी करता कैसे यथा स्थान पहुंचाता उसका अपना ढंग था . 

वहां रहते भी वो अपनी करनी से बाज नहीं आता .

तीतर उड़ाया .

    एक दिन नानगा को लगा कि रात के भोजन में एक तीतर भोज्य बनने वाला है . आखिर नॉन वैज खाने वालों को तो वो सुस्वादु लगता है ऐसा मैंने समझदार लोगों से सुना ही है . नानगा को तीतर पर दया आ गई और उसने तीतर उड़ा दिया . खुले आकाश में उड़ने वाला पक्षी चला गया आकाश में . रसोइया चाहे नॉन वैज बनाता रहा हो नानगा की शाकाहारी विचारधारा का भी तो आदर करता था . 

डिनर के लिए काटे जाने को तीतर उपलब्ध नहीं रहा . क्या हुआ उसके बाद आपकी जानने की उत्सुकता होगी पर ये बात आ पाएगी अगली कड़ी में ही . 

अनायास प्रातःकालीन सभा स्थगित 

(कथाक्रम आगे जारी रहेगा ....)

सुप्रभात .

सहयोग और समीक्षा : Manju Pandya .

सुमन्त पंड्य 

आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

6 जुलाई 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशित  जुलाई २०१८ .

फोटो में शंकर के साथ मेरी जुगलबंदी .


Sunday, 1 July 2018

नानगा द ग्रेट  : स्मृतियों के चलचित्र ६ .

नानगा द ग्रेट : छठी कड़ी


                                   मैंने पिछली कड़ी में लिखा था ,लिखा क्या था बल्कि कहा था कि नानगा ने जयपुर शहर से दूर सुक्या गांव में अपनी खुरपी गाड़ी थी , शहर में तो वो जीवन निर्वाह के लिए आश्रय और रोजगार की तलाश में आया था . मैंने वादा किया था कि इसे समझने के लिए नानगा का अर्थशास्त्र भी बताऊंगा . इस के साथ ही नानगा के केरियर में आए बदलाव भी तो बताने हैं , एक एक कर दोनों ही बातें बताता हूं . पहले अर्थशास्त्र को ही ले लेते हैं , इस बाबात जानने की उत्सुकता ज्यादा रहती है .


नानगा का अर्थशास्त्र :

  नानगा को यदि पांच रूपए महीना काकाजी से मिलता था तो वो यहीं अपने रुपयों को घर के बिस्तरों में दबाकर रख छोड़ता था . दस महीनों की इस प्रकार इकठ्ठा बचत से सस्ते जमाने में एक सोने की मोहर खरीदी जा सकती थी और नानगा वही करता . सोने की खरीद में उसके मददगार होते मुनीम साब जो एक सर्राफा व्यपारी सेठ के विश्वास पात्र मुनीम हुआ करते थे . नानगा ने अपनी मेहनत की कमाई को सोने में बदला और इस काम में कभी नहीं ठगाया . हमारे ही घर के एक सुरक्षित कमरे में नानगा का एक ट्रंक रखा रहता था . उस ट्रंक में मोहरें होंगी किसी को पता नहीं था बहुत बाद तक भी पता नहीं था . वही नानगा का बैंक था , वही स्ट्रांग रूम वही ट्रेजरी ।


आगे चलकर इसी स्वर्ण धन से उसने आज के सुखपुरिया और तब के सुक्या गांव में खेती की जमीन खरीदने की शुरुआत की जिसके लिए मैंने कहा है कि नानगा ने खुरपी गाड़ी . बहुत समय वहां खेती का काम हुआ लेकिन नगर विस्तार के चलते वहां तक तो आज शहर चला गया . रूपांतरण के बाद जमीन के भाव तो अप्रत्याशित बढ़ गए . नानगा के बाद नानगा के बेटों ने अवाप्ति के चलते अगर पांच बीघा जमीन बेचीं तो आवक से अठ्ठाईस बीघा जमीन और खरीदी . इस तरह वो योगः क्षेम की नीति पर चले . जो था उसका संवर्धन ही किया .


पर अब नानगा के केरियर की बात .


नानगा राज प्रमुख के दफ्तर में :

 राजस्थान के निर्माण के बाद जयपुर महाराजा नई व्यवस्था में राज प्रमुख बने और पद पर रहे तब तक नानागा उस दफ्तर में साइकिल सवार रहा .


विलक्षण बुद्धि थी उसकी . उसे ढेरों निमंत्रण पत्र दे दिए जाते जिनपर अंग्रेजी में नाम पते लिखे होते मगर मजाल जो कोई कार्ड इधर उधर हो जाता . हर एक कार्ड पर वो अपनी समझ से कोई निशान बना लेता और सब को यथा स्थान पहुंचा आता .


राज भवन में नानगा :

  1956 में एक परिवर्तन हुआ . राज प्रमुख का पद समाप्त हो गया और राज्यपाल का पद सृजित हुआ . राज प्रमुख के स्टाफ के ये लोग याने हिज हाइनेस हाउसहोल्ड के लोग राज भवन का स्टाफ बनाकर भेज दिए गए . नानगा भी उनमें से एक था .


नानगा को वहां बड़ा कष्ट था और एक बार तो वो नौकरी छोड़ने पर ही आमादा हो गया था , काकाजी ने उसे समझा बुझाकर यह कहकर रोका था कि मिली मिलाई सरकारी नौकरी ऐसे न छोड़े उसका और कहीं तबादला ही करवा देंगे और ये कष्ट मिट जाएगा .


नानगा के शाकाहारी स्वभाव को ये मंजूर नहीं था कि वो मुर्गी के अंडे पोल्ट्री से लेकर आए .

तात्कालिक समाधान ये निकाला गया कि वो रसोइए को कहता कि उसकी साइकिल के हैंडिल पर वो अपना थैला टांक देवे . विक्रेता से कहवे कि वो थैला उतार कर उसमे अंडे भर देवे और फिर टांक देवे . लौट कर रसोइए से थैला उतरवा देवे . गरज ये कि उसे अण्डों को हाथ न लगाना पड़े .


ऐसा था नानगा द ग्रेट .......


कथाक्रम जारी रहेगा.......


सायंकालीन सभा स्थगित .


समर्थन और सहयोग :

Manju Pandya

Himanshu Pandya


नमस्कार .


सुमन्त पंड्या .

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर . जयपुर .

3 जुलाई 2015 .

ब्लॉग पर प्रकाशित   जुलाई  २०१८. 



 लड़ो मन्नै   : जयपुर डायरी 

" लड़ो मन्नै !"

       जयपुर डायरी 


 पुरानी बात याद आ गई . नाहर गढ़ की सड़क पर घोषी समुदाय का पपैया पहलवान कबूतर पालता था , बड़ा सुन्दर बांस का मचान था उसके घर " पपैया मंजिल " की छत पर , उस पर भांत भांत के कबूतर बैठे रहते . इनमें कई एक सफ़ेद कबूतर भी होते मुझे लगता ये ठंडे मुल्कों से आए हुए हैं . इन कबूतरों से जुडी हुई कई एक यादें हैं , बताऊंगा और अभी क्यों बात याद आई वो भी बताऊंगा .

ये कबूतर खुले आकाश में खूब उड़ते और लौट कर अपने घर के मचान पर आ बैठते बड़ा ही सुन्दर दृष्य होता . बाकी उनके लिए घर की नीचे की मंजिल में , पोळी में , जालीदार घर भी बने थे जहां ज्वार के चुग्गे का भरपूर इंतजाम होता था . पोळी में एक साथ चुग्गा डाल दिया जाता और कबूतरों की घुटर घूं - शुरु हो जाती . घूम घूम कर सारे कबूतर चुग्गे के पास भी आते , दाना भी चुगते और लड़ते भी .


एक दिन की बात 

एक कबूतर रास्ता भटक कर या पता नहीं क्यों सामने हमारे घर की दूसरी मंजिल में आ गया और वो वापिस न जा पावे . सामने के घर में पुकार कर बताया कि एक कबूतर यहां आ गया है , सुनकर पपैया पहलवान का बड़ा बेटा सिकंदर आया , उसने पास जाकर कबूतर को उठाया और अपने कंधे पर बैठा लिया और सिकंदर के कंधे पर बैठकर वो कबूतर अपने घर गया साब वैसे ही जैसे यज्ञोपवीत के दौरान बटुक मामा की गोद में चढ़कर यज्ञस्थल पर आता है . दो अलग अलग बातें हैं पर मुझे उपमा निमित्त ऐसे ही बातें याद आ जाती हैं . कबूतरों का वो ही सिलसिला कभी मचान पर कभी विश्राम और भोजन के लिए पोळी में .


और एक पुरानी याद 

ये उन दिनों की बात है जब जयपुर में टी वी प्रसारण सायंकालीन सभा में शुरु ही हुआ था . घर घर में टी वी लाए जा रहे थे और घरों की छतों पर टी वी के पुराने किस्म के एंटीना लगने लगे थे . पपैया मंजिल के कबूतरों के मचान और टी वी के एन्टीनाओं में बहुत कुछ एक जैसा था पर थोड़ा फरक भी था , मचान बांस का था और एंटीना मैटल के . हमारे घर की छत पर भी था एंटीना और जाहिर था इसका सम्बन्ध ऊपर की मंजिल में रखे टी वी से था . हुआ क्या कि मैं घर की छत पर मन बहलाव के लिए छोटी सी महिमा को लेकर गया था . बमुश्किल बोलना सीखी थी बेटी लेकिन एंटीना और मचान का फरक उसने मुझे समझाया था इस प्रकार :


" जे फूटू , जे फ़ूटू , जे फूटू , जे फूटू ना ! "


उसने अपनी जुबान में मुझे समझाया था कि बाकी सब तो टी वी एंटीना थे और कबूतरों का मचान एक अलग वर्ग था .


तब तो महिमा उस अवस्था से भी कुछ छोटी थी जित्ता अब सैम है .


आज का शीर्षक : लड़ो मन्नै . *


 एक दिन मेरे सामने की घटना , मैं पपैया के पास कुछ दूध का हिसाब करने गया था कि वहां कबूतरों के झुंड में ज्वार के दानों के आस पास कुछ लड़ाई शुरु हो गई आपस में , कुछ कबूतरों ने दादागिरी शुरु कर दी , घुटर घूं की आवाज तेज हो गई . इस गतिविधि को देखकर पपैया दो ही शब्द बोला :


" लड़ो मन्नै . "


और फिर शान्ति हो गई . कबूतर कित्ती आसानी से उस्ताद की बात समझ गए ये देखना बहुत आश्चर्य जनक था .


अभी क्यों याद आई बात 

"...... मैं उनसे लड़ी सर ,’ ये तो हमारे सर हैं , आप इनकी फ्रैंड कैसे बन गईं ??? "


दिल्ली से मेरे पास मेरी विद्यार्थी के भेजे लंबे सन्देश में से एक कतरन उद्धृत की है मैंने . कितना अपनत्व है ऐसा कहने में वही बताने को मैंने इत्ती सी बात खोली है . ऐसे अपनापन जताते सन्देश मुझे और जीवन संगिनी को बहुत भाव विभोर करते हैं और बनस्थली के दिनों की याद दिला जाते हैं .

और मैं यहीं पपैया की कही बात दोहराता हूं :

" लड़ो मन्नै

माने , " लड़ो मत . "

दोनों ही दोस्त बनो , मेरे और गुरु मां के आशीर्वाद दोनों को .


और चलते चलाते दुष्यंत का कहा 

" …. राम जाने किस जगह होंगे कबूतर ,

  इस इमारत में कोई गुम्बद नहीं है . " 

सुप्रभात 

Good morning

Sumantpandya

@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

  शुक्रवार , 1 जुलाई 2016 .

ब्लॉग पर प्रकाशित   जुलाई २०१८.