Wednesday, 17 May 2017

रामेश्वर जी बीडोली वाले : स्मृतियों के चलचित्र 

बनस्थली की बातें :


बनस्थली की बातेँ : रामेश्वर जी बीड़ोली वाले . 

बनस्थलीडायरी ________________________________

बनस्थली में मई 1971 में जब हम लोग 44 रवीन्द्र निवास में रहने आए तब से बीड़ोली वाले रामेश्वर जी से संपर्क प्रारम्भ हुआ और वो मेरे ऐसे आत्मीय बन गए कि मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा .

पीली पगड़ी और धोती कुर्ता पहनने वाले पंडित रामेश्वर जी अपनी सायकल के पीछे दो ढोल भर कर दूध लाद कर अपने गांव से चलते और बनस्थली परिसर में दूध बेचते थे .

मुझे तो छह सात बरस हो गए वहां का घर छोड़े पर जब पिछले फेरे में वहां जाना हुआ तो राम जी लाल नाम के एक और दूध वाले ने सायकल रोक कर मुझे बताया ," माट साब , थां नै ठीक पड्यो क कोनै पंडित जी गया ?." अर्थात माट साब आपको पता लगा कि नहीं कि पंडित जी गए .

मुझे ऐसा लगा मेरी आत्मीय समष्टि का एक भाग मुझसे छिन गया .


रामेश्वर जी से जुडी हुई इतनी यादें हैं कि लंबी चर्चा हो सकती है , उनमें से थोड़ी सी ही साझा करूंगा . उनकी पहचान उनके गांव बीड़ोली से थी क्योंकि इस नाम के तो कई लोग थे जैसे दफ्तर में रामेश्वर जी हींगोटिया वाले इधर खेल मैदान वाला रामेश्वर , स्कूल वाला , कैंटीन वाला .....और भी कई रामेश्वर थे वहां आने जाने वाले पर आज की बात के कथा नायक पीली पगड़ी वाले बीड़ोली के रामेश्वर जी . एक रुपये लीटर के भाव जो उन्होंने सन इकहत्तर में दूध देना शुरु किया तो ये ग्राहकी शुरु हुई और उनके आते रहने तक बाद में उनके बेटे केदार और कैलाश तथा पोते सूरज के आने तक भी जारी रही . 

आज छोटी छोटी बातें बताऊंगा . 

एक दिन रामेश्वर जी आए , साथ में एक और दूधवाला मंसाराम भी था .

जीवन संगिनी ने हम सब के लिए चाय बनाई . मैं , रामेश्वर जी और मंसाराम बाहर वाले कमरे में बैठे चाय पी रहे थे और जीवन संगिनी चाय देकर रसोई - चौक की ओर लौट चुकी थी . शायद छुट्टी का दिन था मुझे भी बातों में बैठने की फुरसत थी और इन लोगों का भी दूध बांटने का काम पूरा हो चुका था अपने अपने गांव लौटने की कुछ बहुत जल्दी नहीं दीख रही थी . बातों का सिलसिला जारी था .

प्यालों में चाय बीती और तुरत पंडित जी ने एक कार्रवाही की . मंसाराम का कप तो उसके हाथ ही था , मेरा और अपना कप उठाकर पंडित जी ने मंसाराम को टिका दिया और कहा:


" ....जा रै मंशा , प्याला धो ..अर टंकी पै मेल्या .."

अर्थात मंशा ! कप धोकर टंकी पर रखकर आ जा ...।


मैं ने रोकने की कोशिश की दो कारणों से एक तो ये कि अपने ये चलन नहीं है कि अतिथि अपने बरतन धोकर ही जाए चाहे वो कोई भी हो और दूसरे बिना बात .... बैगर बात घर के अंदरूनी हिस्से में वो क्यों जावे जीवन संगिनी इसे गैर जरूरी हस्तक्षेप समझेगी और ...और मुझे टोकेगी ," हर किसी को अंदर भेज देते हो ?"

पर पंडित जी कब मानने वाले थे उन्होंने तो लपका दिया मंसाराम को और मुझे बोले :


" माट साब .... यो मन्शो कुम्हार छै .. आपणा प्याला धोवैलो तो ईं को जनम सुधर जायलो "

अर्थात ये मंशा कुम्हार है , अगर अपने कप धोवेगा तो इस का जनम सुधरेगा .

मेरे लिए एक से व्यवसाय के दोनों वक्ति बराबर थे पर पंडित जी के संस्कारों में बावजूद व्यावसायिक आत्मीयता के ये बात बच रही थी .


मंशाराम उमर में पंडित जी से कुछ छोटा जरूर था वो बात मानने वाली थी पर मेरा तो वो भी प्रेमी था .

कुम्हारों से मेरी दोस्ती के और भी किस्से हैं ... आएंगे आगे किस्सागोई में .

खैर मंसाराम अंदर चौक में गया और प्याले धोकर रख आया .

 पंडित जी महिमा को भूआ जी कहते थे ये भी मुझे याद है .


तब लोग वेतन का रोना रोया करते थे . मैंने वेतन का रोना कभी नहीं रोया ये तो मेरा अपना सोच है पर मेरे वेतन के बारे में पंडित जी का सोच बताता हूं जिसका अभिप्राय उनके कहे से ही स्पष्ट है . कहा उन्होंने :


" माट साब , थां कै जित्ता रिप्या मिलता होता नै तो बार तांई निवाई को आधो डूंगर घरां लिआतो ...",


अर्थात , माट साब आपके जितने रूपए मिलते होते तो निवाई के पहाड़ का आधा हिस्सा अब तक अपने घर ले आता .


पत्थर प्रतीक है पक्की तामीर का .


उस दिन मैं समझा कि किसी भी रकम के मायने देखने वाले के नजरिए के हिसाब से अलग अलग होते है . दाल रोटी का तो घाटा नहीं है और भुभुक्षा का कोई अंत नहीं हैं . रामेश्वर जी ने अपनी बात से मुझे बहुत जबर्दस्त कॉम्प्लीमेंट दिया था .


आज रामेश्वर जी से जुडी बनस्थली की यादों के साथ ही प्रातःकालीन सभा स्थगित करता हूं .

साथियों देर हुई है , आधी अधूरी ही सही पर ये है आज की पोस्ट और आज के नायक हैं मेरे अभिन्न मित्र पंडित रामेश्वर जी बीडोली वाले और सह नायक मंसाराम . इनकी याद आ जाती है तो और बात भूल जाता हूं .


इति .

सुप्रभात .

सुमन्त पंड़्या 

( sumant pandya )

 गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

17 मई 2015 .

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आज ये दो बरस पुरानी लिखी पोस्ट देखने में आई । आजकल मैं स्मृतियों के चलचित्र ब्लॉग पर प्रकाशित करने में लगा हुआ हूं । ये पोस्ट भी मेरे उसी नास्टेलज़िया का भाग है । 

आज प्रकाशित 

दिल्ली   

बुधवार १७ मई २०१७ ।

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