बड़े मामाजी - स्टेशन वाले : स्मृतियों के चलचित्र
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अम्मा अपने कुटुंब में कई भाइयों की छोटी बहन थी . जिन भाइयों को अम्मा राखी बांधा करती थी उनमें सबसे बड़े थे जिन्हें हम बच्चे बड़े मामाजी स्टेशन वाले कहा करते थे , आज उन्हीं की एक बात का प्रसंग उठाता हूं .
मामाजी का परिचय :
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मामा जी ने रेल्वे में काम किया उस जमाने में जब भारत आजाद भी नहीं हुआ था. पचास के दशक में तो वो रिटायर होकर जयपुर में रहने लगे थे तब उनसे खूब खूब बातें होती थीं . जो उन्होंने बताया था वही बता रहा हूं .
कैसे गए रेलवे की नौकरी में :
जब स्कूली शिक्षा पूरी हुई तो अम्मा की बडिया(ताई जी ) ने घर में आए किसी महात्मा से बाल और बब्बू नाम के दो बेटोँ का भविष्य पूछा तो वो बोले :
" इन्हें रेलवे में नौकर करा दो ."
और सच में वही हुआ , दोनों भाई रेलवे में आवेदन कर स्टेशन मास्टर बन गए . जिस "बाल" का अभी जिक्र आया वही थे मेरे ' बड़े मामाजी स्टेशन वाले '.
किसी जमाने में ये मामाजी जयपुर स्टेशन के स्टेशन सुपरिंटेंडेंट हुआ करते थे . अपना नीला कोट और कैप पहन कर रेलवे प्लेटफार्म पर आते तो उन पर नूर आ जाता था . विदेशी सैलानी ट्रेन से उतरते तो उनसे अंग्रेजी में भी अच्छी खासी बात कर लेते .
जयपुर आने वाले हम लोगों के नाते रिश्तेदार कभी रात की गाडी से जयपुर स्टेशन पर उतरते तो सुबह होने तक उनके यहां ही ठहरते .
तब स्टेशन और शहर परकोटे के बीच का इलाका बड़ा सुनसान और उजाड़ हुआ करता था . ये सब तो तब की बातें हैं जब वो सेवारत थे . अभी तो बाद के जमाने की बात बाकी है जिसकी अभी भूमिका बनी है .
बाद की सिर्फ एक बात :
पृष्टभूमि- रिटायरमेंट के के बाद मामाजी एक आम ग्रामीण हिन्दुस्तानी के हुलिए में रहा करते थे . उरेप का एक जेबदार सिला हुआ बनियान , कमर के नींचे शायद धोती नहीं बल्कि एक अंगोछा और गर्मी में कंधे पर एक पारंपरिक लाल अंगोछा . मामी अलबत्ता करीने से साड़ी पहन कर , पतले फ्रेम का चश्मा पहनकर स्मार्ट लगती थी .
ये दोनों तब ट्रेन के उपलब्ध सबसे बड़े क्लॉस ' फर्स्ट क्लास ' में साधिकार यात्रा कर रहे थे . उन्हें यात्रा का पास मिलता था . उनके सहयात्रियों को मामी तो अपने क्लास के अनुरूप लग रही थी पर मामाजी को तो वो बगैर टिकट डब्बे में चढ़ आया कोई ग्रामीण अशिक्षित ही समझ रहे थे . शायद मामी से उन महिलाओं ने कुछ जिक्र भी छेड़ा पर मामी ने कोई तवज्जो नहीं दी . आखिर वह भी हो गया जो सहयात्री चाहते थे , टिकट चैकर डब्बे में आ गया . लोगों ने इस बगैर टिकट सवारी के डब्बे में बैठे होने की शिकायत की और आगे वही हुआ जो होना ही चाहिए था .
टिकट चैकर ने पूछा:
"बाबा ! आपका टिकिट ?"
" मेरे पास कोई टिकिट नहीं है ." बोला टिकिट चैकर का बाबा .
हम तो ये जानते ही थेे , इस भाव के साथ वो तथाकथित हाई सोसायटी
के लोग ये मान बैठे कि अब आया ऊंट पहाड़ के नींचे . तभी मामाजी ने उरेप के बनियान की जेब में हाथ डाल कर एक कागज़ निकाला और बोले:
" ये एक कागज़ का टुकड़ा जुरूर है , देख लो तुम्हारे समझ आवे तो ."
ये मामाजी और मामी का फ्री ट्रेवल पास था जो उन्हें सेवा काल के बाद मिली सुविधाओं के तहद मिलता था . इसमें उनकी हैसियत का बखान भी था .
देखकर संतुष्ट हुआ टिकिट चैकर और बरसा उन सहयात्रियों पर जो वेश भूषा देखकर लोगों की हैसियत नापते थे .
भाव ये था कि ' आप यात्रा करें न करें इस डिब्बे में ये तो यात्रा करेंगे ही .'
गजब थे बड़े मामाजी स्टेशन वाले .
उनकी कोई तस्वीर भी ढूंढने की कोशिश करूंगा .
प्रायवेट कॉफी डन .
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
इति.
सुमन्त पंड़्या
जयपुर .
23 मई 2015 .
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आज इस क़िस्से के साथ अनन्त की एक टिप्पणी भी जोड़ता हूं जो इस क़िस्से की रंगत बढ़ाने वाली है । देखिए अनन्त बताता है :
" यह घटना 70 के दशक की है जब बाबा और माताजी अम्मा गर्मियों की छुट्टियों में दिल्ली से हरिद्वार जा रहे थे बीना भी जिद करके उनके साथ चली गई थी , सहयात्री और उनकी पत्नी को लगा कि ये कोई बडे घर की महिला व बच्ची है और ये बुजुर्ग इनका अटेन्डेट है जब उस व्यक्ति ने अम्मा से कहा कि यह बुढ्ढा IInd क्लास में नहीं बैठ सकता तो मताजी अम्मा बोली कि क्या करूँ ये बुढ्ढा तो मानता ही नहीं है कहता पट्टा लिखाकर लाया हूँ । "
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आज दिन दिल्ली से प्रकाशित :
बुधवार २४ मई २०१७ ।
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