कल रात विनीत ने पूछा मेरी पार्क में संगत के बारे में तो मैंने बताया कि आनन्द तो आता है इन प्रातःक़ालीन सभाओं में । आज के ज़माने में ज़हां आदमी के पास फ़ुरसत का टोटा है कोई लोग तो हैं जो एक दूसरे की सुनते हैं इन सभाओं में ।
बातें तो बहुत तरह की होती हैं पर मुझे ये अच्छा लगा कि इन लोगों ने मेरी कही बातों को सुनने का समय दिया जो अब प्रायः राजनीति से इतर होती हैं हालांकि वो मेरा विषय रहा पढ़ने पढ़ाने का ।
अब सुनिए छोटी सी बात । अग्रवाल साब जो अमूमन सभा की सदारत करते हैं मुझे नेक सलाह दे बैठते हैं :
" ख़ुश रहा करो ।"
इस अच्छी सलाह को मानते हुए मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कैना ख़ुश ही रहता हूं । तज़ुर्बेकार लोग बात में नुक़्ता ढूँढ ही लेते हैं उनने भी दूंढ लिया , बोले :
" ख़ुश रहते तो ऐसे न होते ?"
उन्होंने दाएँ बाएँ ऊँगली हिलाकर मेरी दुबली काया को इंगित किया । मैंने मुद्दा घड़ लिया और संगत के विचारार्थ रख दिया कि अग्रवाल साब ख़ुशी और मोटापे का अनिवार्य सम्बन्ध मान बैठे हैं ।
इस फ़्रण्ट पर तो मात खाए बराबर ही थी अपनी स्थिति कि एक उपाय से हो गई मेरी बचत । पार्क के कुछ एक चक्कर लगाकर जीवन संगिनी वहाँ आ निकली मुझे साथ लेने को और मैंने सबसे सशक्त तर्क इस्तेमाल कर दिया , कहा :
" आप देखते नहीं खुशी तो मैं साथ लेकर घूमता हूं !"
मेरी इस बात को सुनकर सब कोई बहुत ही ख़ुश हुए और जीवन संगिनी का सबने स्वागत अभिवादन किया ।
जो संवाद हुआ वही कहा है । अब अपडेट ये है कि वहां न जा पावूं तो अगले दिन ये लोग कहते हैं कि कल आपको मिस किया ।
जितने दिन दिल्ली में हैं मिलता रहे पार्क में जाने का अवसर , ये ही कामना है ।
दिल्ली
गुरुवार ११ मई २०१७ ।
संलग्न : बीती रात का हमारा फ़ोटो बच्चों साथ ।
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