Tuesday, 28 November 2017

लप्रेक : राजस्थान विश्वविद्यालय - एक भूली बिसरी याद .

विश्वविद्यालय में वो दिन............ #लप्रेक साझा Manju Pandya


आज एक पुराना प्रसंग याद हो आया , मैं राजस्थान विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग में पढ़ रहा था , जिस विशेष ग्रुप का मैंने वरण किया था वह था गवर्नमेंट एंड पॉलिटिक्स । इस ग्रुप का एक पेपर था " गवर्नमेंट एण्ड पॉलिटिक्स ऑफ़ साउथ एशिया " , मिस जेकब ये पेपर पढ़ातीं थीं । कक्षा की संरचना कुछ ऐसी थी कि नौ लडकियां साथ पढ़ती थीं , मैडम पढ़ाने वाली थीं , लड़का प्रजाति का मैं गरीब अकेला था । डिपार्टमेन्ट के भूगोल में रत्नानी बाबू के दफ्तर के कमरे के अंदर से जाकर पीछे एक कमरा था ,उसमे क्लास होती थी । उस दिन मुझे क्या पता था ,कि आगे जाकर मैं एक लड़कियों की शिक्षा के लिए बनी संस्था से ही जुडूंगा ।  

      

उस दिन की बात पर आवूं , मैडम अपनी फिएट कार बाहर खड़ी कर क्लास में चली गयीं , उन्हें जाते हुए मैंने देख लिया , मैडम ने भी मुझे बाहर खड़े देख ही लिया होगा जहां मैं और लड़कों के साथ बातों में मशगूल था ये लडके दूसरे ग्रुप और विषय समूहों के थे जिनसे परिसर की गतिविधियों से जुड़ी एक पत्रिका के संपादक मंडल में होने के नाते मैं जुड़ा हुआ था । नौ की नौ लड़कियां क्लास में पहुंच गयीं , मैडम अपनी सीट पर पहुंच गईं पर मैं नहीँ पहुंचा । यहां मेरी बाते ही पूरी नहीं हो के दे रहीं थीं । उधर मैडम क्लास शुरू नहीं कर रही थीं और मुझे बुलाने को बार बार किसी न किसी लड़की को भेज रही थीं । मैडम बुला रही हैं , मैडम बुला रही हैं , ऐसा मुझे बार बार सुनने को मिला । शायद मैडम का भी वहीँ हिन्दुस्तानी सोच था कि लड़की का तो क्या है , जो होना है हो ही जाएगा , लड़का कुछ पढ़ लिख जाएगा तो कमा खायेगा । जैसे अदालत पहली बार सम्मन भेजती है दूसरी बार वारेंट और तीसरी बार में गिरफ्तारी वारेंट भेज देती है , मैडम ने भी मुझे बुला भेजा था । मुझे उनके सामने जाकर बैठना पड़ा । मैं गया और छात्रा समूह के साथ बैठ गया । तब जो संवाद शुरु हुआ वह कहता हूँ :


~ क्लास में आने का विचार नहीं था तुम्हारा ...?


*जी मैडम ...एन आर एस सी जाना चाहता था......चाय पीने ।


~ तो फिर गए क्यों नहीं , ... यहां क्यों आये ?


* जी मैडम कोई साथ देने वाला नहीं था ... और फिर आपने बुलाया था तो मुझे आना पड़ा ।


~ अब चले जाओ ..... इनमें से किसी को साथ ले जाओ ।


     अजीब सी असमंजस की स्थिति थी मेरे लिए , मुझे बुलाया भी और जाने को भी कह दिया पर मैडम के

चहरे पर कोई नाराजगी भी नहीं दीख रही थी । मैं अनायास कह बैठा :


* तो फिर मैडम जैतून @ को भेज दीजिये ।

         (@बदला हुआ नाम )


जैतून और मैडम की निगाहें मिली , और मैडम ने कहा :


~ जाओ ।


     लड़की उठ खड़ी हुई और हम दोनों चाय पीने चले गए । बाकी बची आठ लडकियां और मैडम ,उस दिन इसके बाद क्लास में हमारे जाने के बाद क्या हुआ या क्या हुआ होगा यह हमारी चिंता का विषय नहीं था । दो मुख्य पात्रों को तो मैडम बाहर भेज देने को स्वयं वचनबद्ध थीं ।


मैं समझ रहा था कि बात हो गई ....आई गई हो गई पर नहीं बातें तो चलती रहती हैं । शायद उसी दिन शाम किसी विशेष निमित्त से आयोजित सभा में विभाग के

  थियेटर में एक पर्ची हाथों हाथ घूम रही थी :


There wil be a party tomorrow at N R S C to commemorate the increasing friendship between so & so & so & so ..........


 वो प्रस्तावित पार्टी तो परवान नहीं चढ़ पायी , पर हां उस दिन मेरे रुपये दो रुपये जरूर से खर्च हो गए थे जब चाय पीने गया था ।

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आज ये कहानी   ( लप्रेक )  भी ब्लॉग पर प्रकाशित .

जयपुर 

बुधवार  २९ नवम्बर २०१७ .

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अच्छे दिनों की सौग़ात : भिवाड़ी डायरी - क़तारबद्ध देश .

ये गए बरस की बात है —

अच्छे दिनों की सौगात लेने को कतारबद्ध है सारा देश .


उधर ट्रॉल्स हैं कि पिले पड़े हैं , कह रहे हैं आम जन का आत्मविश्वास लौटेगा . इत्ते दिन तो हो गए कैसे लौटेगा ' आत्म विशवास ' ?


ऐसे भब्भड़ में सीनियर सिटीजन अपनी मट्टी कुटवाए ?


आशियाना से सुप्रभात  🌹 नमस्कार 🙏 .

आप जाणो देश तो बदल ही रहा है .


तरकीब से बताऊं : 

ये लोग सुबह से सत्यनारायण की कथा का प्रसाद लेने को खड़े हुए हैं . देखें कुछ जुगत बण जाय .

पट जब खुलेंगे तब खुलेंगे !


- सुमन्त पंड्या .

  मंगलवार 29 नवम्बर 2016 .

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व्यथा कथा आज ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

बुधवार २९ नवम्बर २०१७ .

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Monday, 27 November 2017

देबू जी महाराज की जय  :  बनस्थली डायरी .

कल दोपहर शिवाड़ एरिया में .......बनस्थलीडायरी के अंतर्गत समाविष्ट चर्चा  .


आजकल राम स्वरूप जी एक वैन में सब्जी बेचने इधर आते हैं , उणियारा के मूल निवासी राम स्वरूप जी घर बैठे जरूरत की सब्जी और फल दे जाते हैं मेरे घर के बाहर भी आकर रुकते हैं , सब्जी भी ले लेता हूं इतनी देर में दो बात भी होती है । परसों कुछ ऐसा हुआ कि मैं किसी काम से बाहर चला गया , जीवन संगिनी नहाने चली गयी और राम स्वरूप जी ’ सब्जीईईईई ." की आवाज लगाकर चले गए । कल भी जीवन संगिनी लगभग उसी समय बाजार चली गयी जब उनका आना हुआ । सारा दारोमदार मुझपर ही था । कहीं आज भी मेरी गैर हाजिरी न लग जाए इसलिए मैं थोड़ा सतर्क रहा ।


  राम स्वरूप जी बाबत और भी बताता चलूं , वे बातें यही कह देना ठीक रहेगा । वे पहले घोड़ा गाड़ी लेकर आते थे । घोड़ों से मेरा लगाव मेरे बनस्थली के सेवाकाल से रहा है , जो कई एक प्रसंगों में मेरी याद में आ ही जाता है । @ भगवान देव नारायण उनके देवता हैं । देबूजी महाराज का मंदिर मेरे सेवा क्षेत्र के निकट ही है । बहरहाल उणियारा और बनस्थली एक ही जिले के भाग हैं । 

     जब राम स्वरूप जी घोड़ा गाड़ी लेकर आते तो यहां होने पर श्रद्धा की बेटी उर्वी घोड़े पर जरूर बैठती । उस पर बैठकर फ़ोटो भी खिंचवाती । ये बदलाव तब आया जब उनका घोड़ा मर गया । अब तो मैं भी देबू जी के स्थान और घुड़सवारी मैदान वाले परिसर से थोड़ा दूर आ बसा हूँ ।


   कल की बात पर लौटूं । राम स्वरूप जी की आवाज दो मकानों की दूरी पर खड़े विद्या अपार्टमेंट्स के बाहर से कुछ बुलंद स्वर में  

 ऐसी सुनाई दी मानों वो गुलमोहर * के बाहर ही आ गए हैं । आवाज सुनकर मैं बाहर चला आया । लेकिन राम स्वरूप जी तो वो ही दो मकान की दूरी पर थे , याने विद्या अपार्टमेंट्स के बाहर । मैं यहां खड़ा न रहकर वहां तक चला गया । गलती शायद वहीँ कर बैठा , दो प्रकार से 1 झोला मेरे पास नहीं था जो एक ऐसा उपकरण है जो मेरे कंधे पर लटक जाता है और मेरा काम काज का बांया हाथ खाली रहता है । 2 मैं वहां तक गया ही क्यों , जबकि राम स्वरूप जी तो यहीं आने वाले थे । पर होनी को कौन टाल सकता है , बलवान होनहार मुझे वहां ले गयी ।

~ बाबूजी यहां तक क्यों आये , मैं तो वहीँ आ रहा था । वे बोले ।

~ कल मैं घर नहीं था , ऐसा न हो कि आप सीधे निकल जाओ मैं बोला ।


~खैर , अब यहीं सही ।


          गोभी, मटर जैसी निरापद सब्जियां थोड़ी तादाद में ले ली गईं । संतरा , सेव और अमरूद भी ले लिए गए । आदतन धनिया भी उन्होंने डाल दिया । मेरी आवश्यकता न होते हुए मिर्ची भी डाल दी । छोटी बड़ी दो थैलियां उन्होंने मुझे पकड़ा दीं । बहुत भारी सामान होता तो वे कमलेश को भेज देते या मेरे घर के बाहर से निकलते हुए उतार जाते पर उन्होंने मुझे वहां से सुरक्षित रवाना कर दिया और मैं इधर आने को चल दिया । अपने सब्जी खरीद अभियान की सफलता से मन ही मन प्रसन्न मैं विद्या अपरमेंट्स की ओर से गुलमोहर की दिशा में चला आ रहा था कि एक अप्रत्याशित परिघटना हुई जिसकी मुझे दूर दूर तक आशंका नहीं थी ।


   रामेश्वरम ( किक्की भाई साब का आवास ) के बाहर तक आते आते न जाने कैसे एक काली मोटी गाय का निशाना मैं बन गया । गाय की हमारे घर में अम्मा के जमाने से पूजा होती आई है , जीवन संगिनी आज भी गाय की पूजा करती है पर गौ माता एक बार बनस्थली में आक्रामक होकर उनकी ओर ऐसी बढ़ी थी कि उन्हें धराशायी करके ही वापस लौटी थी । मैं पहुंचा पर बचा नहीं पाया , मुझे बहुत आत्मग्लानि भी हुई थी कि इनकी तो रक्षा का मैंने शुक्ल जी के सामने वचन दिया था , उस वचन का क्या हुआ ? गाय थी कि मुझपर झपट रही थी । इधर शिवाड़ एरिया में दो जमाने साथ साथ चल रहे हैं । कुछ पचास साठ साल पहले से रह रहे लोग अभी भी कई कई गायें पालते हैं और दुग्ध व्यवसाय करते हैं । ये लोग गायों को दिन में खुला छोड़ देते हैं , उन्हीं में से किसी की ये गाय रही होगी । आसन्न संकट को भांपकर मैंने दोनों थैलियों सहित दोनों हाथ विश्राम की मुद्रा में पीछे की ओर किये तो गौ माता मेरी परिक्रमा करने लगी । अब मैं चक्कर लगाने लगा , लगा कि या तो मैं चककर आने से गिर पडूंगा या ये गौ माता मुझे वैसे ही धराशाई कर के मानेगी जैसे उस दिन इसकी बहन जीवन संगिनी को बनस्थली में धराशाई कर गई थी । उस दिन इनकी रक्षा मैं न कर पाया था , शायद इसी का दंड मुझे मिलने जा रहा है ।


परिवेश का विवरण और परिदृश्य :  

     जब गौ माता की गिरफ्त में ही आ गया तो मैं इस दृष्टि से चारों ओर झांका कि आपात सहायता कहां से मिल सकती है ? राम स्वरूप जी और उनके सहायक कमलेश को तो मैं इतना पीछे छोड़ आया था कि वो दोनों या उनमें कोई एक भी मौक़ा ए वारदात तक पहुंच ही नहीं सकता था । सामने यादव जी के घर के बाहर कई एक लड़कियां खड़ी खड़ी बातें कर रही थीं , जिनमें से कुछ की निगाह इधर भी थी । वे मेरी दुर्दशा की गवाह तो थीं पर मेरी कोई सहायता कर सकेंगी ऐसा मुझे नहीं लगा । यादव जी के घर में केवल लड़कियों के लिए छात्रावास जैसा है । इसी कारण यह लड़कियों का एक छोटा समूह वहां था । इतने में मैं क्या देखता हूँ कि एक मोटर साइकिल पर सवार लड़का भी वहां किसी प्रतीक्षा में खड़ा है । मरता क्या न करता , मैंने उसी से सहायता चाही :


           अरे मोटर साइकिल वाले लडके आ और मुझे गाय से बचा ।


  लड़का परिस्थिति को भांपकर मेरी आवाज सुनकर ही इधर मुड़ा था वरना तो वो दूसरी तरफ देख रहा था और परिस्थिति से पूरी तरह अनभिज्ञ था । लडके ने बैठे बैठे ही अपनी सवारी मोटर साइकिल की दिशा बदली और पलटकर आगे बढ़कर मोटर साइकिल को गाय की ओर बढ़ाने का उपक्रम करते मेरे और गाय के बीच जगह बना ली । मय अपनी सवारी के यह लड़का मेरी सुरक्षा के लिए ऐसे खड़ा हो गया जैसे मैं किसी दुर्ग में खड़ा हूं । मैं अपनी सुरक्षा के लिए आश्वस्त होकर गुलमोहर * की रैम्प तक सुरक्षित आ गया । फाटक खोल कर अंदर आ गया । हाथ खाली कर मैं उस लडके का आभार व्यक्त करने को दरवाजे के बाहर फिर गया , पर तब तक वो जा चुका था ।


    मैं तो यही कहूं कि साक्षात् भगवान देव नारायण आये आज के ज़माने के इस मशीनी घोड़े पर सवार होकर और उस घड़ी मेरे सुरक्षा प्रहरी बन गए ।


* मेरा जयपुर आवास ।


इति प्रातःकालीन सभा के लिए ।


शुभ प्रभात


Good morning !


नोट : ये मरखनी गाय की कहानी और भी पहले से मेरे जीवन में आई हुई है जिस पर अलग से पोस्ट लिखूंगा । आज इतना ही समय मिल पाया कि कल का तात्कालिक अनुभव ही लिखा । समयाभाव के चलते रही कमी के लिए क्षमा प्रार्थी हूं ।#Debuji_maharaj.


28 नवम्बर 2015 

--------------------- विगत वर्ष की इस पोस्ट को साझा करने की गरज से फिर से जारी करने का प्रयास कर रहा हूं .


अपडेट :

आशियाना 28 नवम्बर 2016 .


बोलो :

देबू जी महाराज की जय 👍

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आज के लिए ये पोस्ट ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर  

मंगलवार  २८ नवम्बर २०१७ .

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Sunday, 26 November 2017

बोर नहीं होते आप ?

“ बोर नहीं होते आप ?”

“ आपका मन कैसे लग जाता है ? “

“ दिनभर क्या करते रहते हो ?”


ये कुछ ऐसे स्टीरियोटाइप सवाल हैं जो सेवाकाल समाप्त होने के समय से लोग मुझसे पूछते रहे हैं . पूछें साब , कोई हर्ज नहीं इसी बहाने मुझे आत्माभिव्यक्ति का अवसर मिलता है . पूछे जाने पर कोई आपत्ति नहीं 

दो एक दिन पहले एक देवी जी ने ऐसे क़ई एक सवाल अपनी आत्मकथा \ आत्मव्यथा कहते कहते बीच में मुझसे फिर से पूछ लिए तो उनका मन रखने को थोड़ी देर के लिए मैं बोला पर अभी भी बहुत कुछ कहना बाक़ी रह गया , सोचा इसी मुद्दे पर गुड मॉर्निंग पोस्ट बणा देवूं .


तो अब मेरी सुनिए और अपनी कहिए :

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सिलसिलेवार जवाब .

१.

मेरा बोर होने का स्वभाव नहीं है . मेरी सोहबत में बोर होने के रोग से ग्रसित लोग भी प्रायः ख़ुश हो जाते हैं .

२.

वैसे तो मन बच्चों के साथ लगता है ये सच बात है . साल भर में आधा समय बच्चों के साथ ही बीतता है . इसके अलावा भी मन लग जाता है . कभी कहता हूं हम दो हैं , कभी कहता हूं हम छह हैं . अपने वय के लोग ढूँढ ही लेता हूं जहाँ भी जाता हूं . 

थोड़ी बहुत देश की चिंता जरूर है उस निमित्त लोक शिक्षण का काम करता हूं .

मन लग जाता है .

३.

दिन भर में घर बैठकर करने के , बाहर जाकर करने के हज़ार काम होते हैं . 

कभी अपनी एक दिन की दिनचर्या पर पूरी इबारत लिखूंग़ा तो ये बात बहुत अच्छे से स्पष्ट होवेगी .


आज के लिए चलताऊ पोस्ट तैयार हो गई . बस इतना कहकर विराम लूँ कि कोई मुझे फ़ालतू न समझे .


नमस्कार .🙏


गुलमोहर कैम्प , जयपुर .

सोमवार २७ नवम्बर २०१७ .

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ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

२७ नवम्बर २०१७ .

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Saturday, 25 November 2017

पोरंपरा  - मर्दाना धोती की बात - भाग तीन : बनस्थली डायरी .

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        #बनस्थलीडायरी #पोरम्परा: मर्दाना धोती की बात ~ भाग तीन .

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       बनस्थली का दीक्षांत समारोह : साझा Banasthali Pariwar


           ये सारा का सारा मर्दाना धोती प्रसंग बनस्थली विद्यापीठ के प्रतिवर्ष होने वाले दीक्षांत समारोह से जुड़ गया और इसे पोरम्परा का नाम दिया सेठ जी ने आज प्रयास करूंगा कि इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई ये बताऊं .

दीक्षांत समारोह की तैयारी :

----------------------------- जब अस्सी के दशक में विद्यापीठ को विश्वविद्यालय का दर्जा मिला और प्रतिवर्ष उपाधि वितरण के लिए दीक्षांत समारोह आयोजित किए जाने लगे तो डिग्री लेने वाली छात्राओं के लिए ड्रेस कोड भी निर्धारित किया गया . अलग अलग संकाय के लिए समान बॉर्डर वाली साड़ियां तैयार करवाई गईं और आगे चलकर एक सुन्दर दृष्य उत्पन्न हुआ प्रतिवर्ष आयोजित ऐसे समारोह में . यहां एक नुक्ता बचा हुआ था . उसी की बात बताऊंगा .


उन दिनों तिवारी जी ( श्री विद्याधर तिवारी ) विद्यापीठ में प्रिंसीपल की भूमिका से रिटायर होने के बाद विद्या मंदिर में ओ एस डी के रूप में कार्यरत थे और एकेडेमिक सेक्शन का काम भी देखते थे . मुझे याद आता है है कि हम में से कुछ लोगों ने उनके सामने ये प्रश्न उठाया था कि और सब कोई डिग्री लेने वाली तो लड़कियां - महिलाएं ही होंगी और साड़ी / जनाना धोती का ड्रैस कोड उनके लिए उचित होगा पर पी एच डी डिग्री पाने वाला तो कोई पुरुष दीक्षार्थी भी होवेगा उस के लिए साडी का ड्रैस कोड कैसे अनुकूल होगा . तिवारी जी ने हमारा सुझाव मानते हुए एक दुप्पट्टे / उत्तरीय का ड्रैस कोड इस कटेगरी के लिए निर्धारित कर दिया और शेष पोशाक का प्रश्न खुला रहा . कुल बात ये कि पी एच डी का दीक्षार्थी एक ख़ास दुपट्टा लगा कर मंच पर डिग्री लेने आएगा .


और वो दिन आ गया :

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मेरी जानकारी के अनुसार बनस्थली विद्यापीठ के विश्वविद्यालय बनने के बाद पहले पी एच डी के पुरुष दीक्षार्थी शिक्षा संकाय ( एज्यूकेशन फैकेल्टी ) के श्री गोपीनाथ शर्मा थे . समारोह के दिन उन्हें दुपट्टा मिल गया और वो एकेमेडेमिक सेक्शन के डिप्टी रजिस्ट्रार भंवर लाल जी से पूछने गए कि और वस्त्र क्या धारण कर के आवें . भंवर लाल जी ने जो तजवीज बताई उसी से एक परम्परा का श्री गणेश हो गया . भंवर लाल जी बोले :

“ धोती कुर्ता पहन कर आइए , उसी के साथ दुपट्टे का मेल बढ़िया रहेगा .”


पंडित जी ने भंवर लाल जी की बात मान ली . धोती , कुर्ता और दुपट्टा धारण कर उपाधि लेने गए और समारोह की शोभा बढ़ाई


अब तो यह निर्धारित हो गया कि पुरुष पी एच डी दीक्षार्थी का ड्रैस कोड होगा ~ धोती , कुर्ता और दुपट्टा . पंडित जी के पास ये पहनावा उपलब्ध था और उनके लिए सहज था . उन्होंने पहना और डिग्री हासिल की .

एक परम्परा की स्थापना यहीं से हो गई .


संयोग से अगले समारोह में शिक्षा संकाय के ही मेरे अभिन्न मित्र श्री विनोद जोशी को पी एच डी की डिग्री मिलने वाली थी और समारोह की पूर्व संध्या को वो मेरे पास आए थे . तब से मैं इस समारोह के पुरुष वस्त्र विन्यास से कुछ ऐसा जुड़ा मानो धोती पहनाना मेरा ही परमाधिकार हो . कई एक विभूतियां 44 रवीन्द्र निवास में आईं जिनमें से कुछ एक का मैं विशेष नामोल्लेख करना चाहूंगा .

आम तौर पर कुर्ते तो सब कोई के पास होते हैं पर धोती हर कोई के पास नहीं होती इसी लिए जोशी जी मुझसे धोती लेने आए थे उस दिन तो .

अपनी कहूं तो उन दिनों मेरी अवस्था के लोगों में परिसर में धोती कुर्ता पहनने वालों में मेरी भी पहचान थी . और बड़ी अवस्था के लोगों में तो धोती का चलन था पर मेरी पीढ़ी में तो नहीं के बराबर था .

 मैंने अपना धोतियों का संग्रह जोशी जी के सामने ला दिया और वे अपनी पसंद की धोती ले गए . अगले दिन समारोह से पहले जोशी जी 44 रवीन्द्र निवास में ही धोती पहनने आए तो पता लगा कि उनको घर ले जाकर धोती को फिर से धोना सुखाना और प्रेस करना पड़ा क्योंकि धोती में नील लगी होने के कारण कुर्ता धोती का रंग आपस में मेल नहीं खा रहा था . उन दिनों मैं औरों की देखा देखी सफ़ेद सूती खादी के कपड़ों में रॉबिन लिक्विड नील का प्रयोग किया करता था . खैर ये तो एक इतर बात थी जो मुझे यों ही याद रही . ख़ास बात ये कि उस दिन जोशी जी 44 रवीन्द्र निवास से ही तैयार होकर डिग्री लेने गए , धोती उन्हें मैंने ही पहनाई .


इस बार से यह स्थापित हो गया कि पी एच डी का दीक्षार्थी यदि कोई पुरुष है तो समारोह के लिए उसे धोती मैं ही पहनाता हूं .


अगली बार एक समारोह के दिन गणित विभाग के सोमानी जी रवीन्द्र निवास में हमारे घर की ओर आते हुए दिखाई दिए . सोमानी वैसे तो बनस्थली से कहीं बाहर चले गए थे , मेरा उनसे परिचय जब यहां काम करते थे तब का था पर कभी घर नहीं आए थे . उस दिन उन के हाथ में एक मर्दाना धोती देख कर सहज प्रश्न किया :


“ क्यों सोमानी जी , पी एच डी की डिग्री मिलने वाली है ?”

उन्होंने स्वीकृति में सर हिलाया और मैं बोला :

“ वाह , बहुत खुशी की बात , आ जाओ आप को तैयार कर देते हैं .”


शाम को हमारे पड़ोस के नवाल जी ने बताया कि उनके संपर्क में आए थे सोमानी जी , लेखानुभाग में एस ओ थे नवाल जी अतः उनको सब कोई लोग जानते ही थे . और उन्होंने ही बताया कि वो मेरे घर की दिशा इंगित कर बोले थे :

“ उनके पास जाइए , वो पहनाएंगे आप को धोती .”


सच कहूं उन दिनों 44 रवीन्द्र निवास किसी रूप में ग्रीन रूम से कम नहीं लगता था जहां से रेसिपिएंट्स ऑफ डिग्री बन संवर कर जाया करते थे .

जो और कुछ बातें याद आ गईं तो वो भी बताऊंगा वरना यों तो बात हो ही गई है लगभग पूरी .

पिछली शताब्दी के इष्ट मित्रों को याद करते हुए ..

सायंकालीन सभा स्थगित .

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शुभ संध्या .

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सुमन्त पंड्या 


लेखन अनुमति : Manju Pandya


@आशियाना आंगन , भिवाड़ी .

26 नवम्बर 2015 .

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आज दो बरस बाद ये संस्मरण ब्लॉग पर प्रकाशित और चर्चा के लिए प्रसारित .

जयपुर

रविवार २६ नवम्बर २०१७ .

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Friday, 24 November 2017

बोध कथा :  “ होयली तो अब “

बोध कथा : " ....होयली तो अब ! "

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भिवाड़ी से नमस्कार 🙏🌻


आज एक राजस्थानी बोध कथा का उल्लेख करता हूं और इसकी व्याख्या के अधिकार सार्वजनिक करता हूं , वैसे भी किसी लोक कथा पर मैं कौनसा एकाधिकार जता सकता हूं .


मैं एकाधिकारवादी सोच का अनुयायी नहीं हूं , आप तो जानते ही हैं .


कथा प्रारम्भ :

********* कथा एक तांत्रिक की है जो श्मशान में जाकर जाने क्या क्या विचित्र साधना किया करता था और उसकी स्त्री इन सब गतिविधियों से दुखी रहा करती थी जो बड़ी स्वाभाविक सी बात है .


यहां तक तो बात बड़ी तार्किक है , ऐसे विचित्र लोग होते हैं और ऐसे में दुखियारी स्त्रियां होती हैं , समझ में आने वाली बात है .


तर्क से न समझ में आने वाली बात आगे आएगी वही बताने का प्रयास करता हूं .


क्या हुआ आगे ?

----------------- एक दिन तांत्रिक को श्मशान में एक खोपड़ी मिली जिसके भाल - कपाल पर ये अंकित था :


      " हुई तो कांई छै होयली तो अब ! "

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( अर्थात् अभी तो क्या हुआ है , होगा तो अब )


वैसे तो हिन्दू अंतिम संस्कार में खोपड़ी की कपाल क्रिया कर ही देते हैं , खोपड़ी साबुत बचती ही नहीं . आश्चर्य था कि खोपड़ी साबुत थी . पर ऐसा भी खैर हो सकता है .


तांत्रिक को कौतुक हुआ कि अब आगे की होनहार क्या है ? और इसी कौतुहल के चलते वो तांत्रिक उस खोपड़ी को अपने साथ घर ले आया और एक ऊंचे आले पर रख दिया .


ऐसे जोड़े में गृह कलह तो स्वाभाविक है . आदमी तंतर - मंतर करता हो तो औरत कैसे सुखी रहेगी भला ?


एक दिन की बात : क्लाइमैक्स ऑफ द स्टोरी 💐

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औरत घर की कुछ साफ़ सफाई कर रही थी और उसी दौरान उसे ऊंचे आले पर रखी वो खोपड़ी मिल गई . अब उसका भी क्रोध जागृत हो गया . उसके क्रोध की वजह साफ़ थी कि अब तक तो ये आदमी श्मशान में जाकर ही तंत्र साधना किया करता था , अब जब उसने ये खोपड़ी घर ला रखी है तो वो अवश्य ही घर की स्त्री पर कोई तंत्र आजमाएगा .


क्यों आजमाए वो घर की स्त्री पर तंत्र ?


उस स्त्री ने अपने ढंग से आसन्न संकट का समाधान कर दिया .

उसने इमाम दस्ते से कूट पीट कर उस खोपड़ी का चूरा कर दिया और उसे तारत में फेंक आयी .

बिधना के लेख को कौन टाल पाया है .😢


राजस्थानी बोध कथा के लोकार्पण के साथ ही  

प्रातःकालीन सभा स्थगित .....


नोट : कुछ डिस्क्लेमर जोड़े जाने हैं जो अगले संशोधन में जोडूँग .


- सुमन्त पंड्या .

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

    शुक्रवार 25 नवम्बर 2016 .

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गए बरस भिवाड़ी में थे तब लिखी थी ये राजस्थानी बोध कथा . आज इसका ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण किए देता हूं .

जयपुर 

शनिवार २५ नवम्बर २०१७ .

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Thursday, 23 November 2017

उत्तरवर्ती थान कथा - भाग दो  : बनस्थली डायरी *

साझा Banasthali Pariwar & others .~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ #बनस्थलीडायरी उत्तरवर्ती थान कथा : भाग दो .

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 इस कथा के भाग एक में मैंने बताया था कि पप्पू की मार्फ़त मुझे दूसरी बार जुलाहे का बनाया देशी रेजी का थान मिला , मैंने सरगम गारमेंट्स वाले राजू और रामू की मदद से इस बार सफारी सूट बनवाया और इस प्रकार नए थान का श्री गणेश हुआ . इसी सफारी को पहनकर मैं महिमा के स्कूल में मुख्य अतिथि की भूमिका निभा आया . अभी इस थान से एक प्रीमियर प्रोडक्ट बनना बाकी था जो भी तैयार हुआ और उसकी कहानी भी सुनाने लायक है .


  सरगम गारमेंट्स के बारे में :

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 जब तक मैं बनस्थली में सेवारत रहा राजू और रामू मेरे लिए अनुकूल खादी के वस्त्र सिलवा दिया करते थे . नाप जोख का काम ये दोनों भाई या इनमें से कोई एक करता और बेहतरीन सिलाई इनके कारीगर कर देते .

ये मेरे सेवाकाल के अंतिम दौर की बात है . मेरे उधर से चले आने के बाद अब तो उन्होंने सिलाई का काम लेना बंद ही कर दिया और अब सिले सिलाए कपड़े ही बेचना शुरु कर दिया . पर मैं जब तक बनस्थली में रहा इन दोनों का बड़ा सहारा रहा . मेरे लिए तो वो कहो जो काम ओढ़ लेते वो भी बताऊंगा पर आगे वरना तो उस प्रीमियम प्रोडक्ट की बात छूट जाएगी जो आज के लिए लक्षित है .


प्रीमियाम प्रोडक्ट : ठंडी जवाहर जाकट :

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बड़ी कारीगरी से इन भाइयों ने मुझे जवाहर जाकेट तैयार करवाकर दी .

इसी तर्ज पर कुछ समय पहले पप्पू राष्ट्रपति कलाम को जाकेट तैयार कर पहना चुका था और देशी उत्पाद की सराहना पा चुका था .

मैं तो इन दो भाइयों को थान देकर आ गया था और कह आया था :

“ किसी आते जाते के साथ जाकेट भिजवा देना , जब भी तैयार होकर आवे .”

गणित वाले पांडे जी भी सरगम के ग्राहक थे , एक मंगलवार की शाम वो निवाई से आए और मुझे फोन किया कि मेरे लिए निवाई से कोई चीज लाए हैं . मैं उनके घर गया . उन्होंने मुझे पूरब दिशा की और मुखातिब होने को कहा और एक पोशाकी की तरह जाकेट पहनाई . फिर तो मैं ये वस्त्र धारण कर ख़ुशी ख़ुशी घर आया 44 रवीन्द्र निवास .

इस सन्दर्भ में एक बात और याद आती है , जब सरगम गारमेंट्स वालों ने नई नई दूकान खोली थी तो एक छुट्टी के दिन कुलश्रेष्ठ जी ने मुझे उस दूकान के पट्टे पर खड़ा किया और दोनों भाइयों से कहा :

   “ सर का एक अच्छा सा जोड़ सिल दीजिए आप को बनस्थली के बहुतेरे ग्राहक मिल जाएंगे .”

और सचमुच हुआ भी ऐसा ही कुछ .

अभी थान भी बहुतेरा बच गया था और इस वस्त्र की लोकप्रियता भी अभी और परवान चढ़नी थी पर वो आगे बता पावूंगा …  

ये प्रीमियम प्रोडक्ट तो मेरी देशी वारड्रोब का हिस्सा बन गया था .

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

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सुमन्त पंड्या .

सहयोग और आग्रह : Manju Pandya

   @ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

    24 नवम्बर 2015 .

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दो बरस पहले भिवाड़ी में लिखी थी ये पोस्ट और आप सबने बहुत सराहना की थी , आज इसे फिर से संचित ब्लॉग पोस्ट बनाया है . आप सब का बहुत आभारी हूं और ब्लॉग पोस्ट का लिंक फ़ेसबुक पर जोड़ने का प्रयास कर रहा हूं .


जयपुर 

शुक्रवार २४ नवम्बर २०१७ .

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मेरे सेवाकाल का पहला सत्रांत - बनस्थली डायरी 

आज इतिहास के झरोके से एक चित्र ब्लॉग पर जोड़ता हूं . ये चित्र महज़ संयोग से ही मेरे पास उपलब्ध था और जब पहली बार इसे फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर जोड़ा था तो असंख्य लोगों ने ख़ास तौर से बनस्थली की लड़कियों ने इसे साझा किया था . तब मेरा ब्लॉग नहीं हुआ करता था जब तीन बरस पहले ये पोस्ट लिखी गई थी .

आज भोर में ये विचार आया कि क्यों न इस चित्र और पोस्ट को ज्यों की त्यों ब्लॉग पर दर्ज कर देवूं .

पोस्ट इस प्रकार है —

“ बनस्थली के मेरे सेवा काल काल का पहला सत्रांत #बनस्थलीडायरी साझा : Manju Pandya

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एक संयोगों से उपलब्ध दुर्लभ चित्र जिसे फेसबुक परिवार और बनस्थली परिवार से साझा करना मैंने उपयुक्त समझा । 

 विदाई समारोह में एम ए के विद्यार्थियों के आग्रह और उपायों से लिया गया चित्र । 

      24 नवम्बर की भोर में इसे जारी करने बाबत पोस्ट भी जोड़ूंगा । अभी एक बार गुड मॅर्निंग कहकर नेट से उठता हूं ।


शुभ प्रभात !


पात्र परिचय :


         मेरी तेरी इसकी उसकी बात करने लगता हूं तो मेरी बातों में तारतम्य प्रायः बिगड़ जाता है इसके लिए क्षमा चाहते हुए सबसे पहले बाहरी दुनियां के लिए जो पंडित हीरा लाल शास्त्री कहलाये उनकी चर्चा , वे आपाजी क्यों कहलाये । भले घरों में बच्चों को आप बोलना सिखाया जाता है ताकि वे अपने सम्बोधन में इसका प्रयोग सीखें । हमारे समाज में ये आप और तुम का भेद और बड़ा चक्कर है इस बाबत फिर कभी....    

बेटी शांता बाई को भी यही सिखाया गया , वह अपने पिता को आप कहती । आप के साथ जी का प्रयोग सहज रूप से होने लगा । ये जीकारा तो हमारे देश में कुछ ऐसा है कि अंकल अंकलजी हो गए सर सरजी हो गए , आज तक होते आये हैं हालांकि ये दूसरी भाषा और समाज से आये सम्बोधन हैं और हमने भी इन्हें अपना लिया है । खैर.. मुख सुख के कारण आपजी सम्बोधन आपाजी हो गया । बनस्थली के इतिहास में उनका नाम ही आपाजी हो गया । इस चित्र में सबसे बड़े कद के वे ही हैं । बेटी तो चली गई और न जाने की उमर में चली गई परंतु पिता को नाम दे गई ।


      आपाजी के एक ओर जीजी याने सुशीला व्यास खड़ी हैं जो यों तो छुटपन से यहां आ गयीं थीं , उस सत्र में विभागाधक्ष बनी थीं , वाइस प्रिंसीपल का अतिरिक्त प्रभार भी उनके पास था , ज्ञान विज्ञान मंदिर में एक नंबर का कमरा उनका कमरा हुआ करता था । लगभग दस बजे वे आती थीँ अतः सुबह आठ बजे की मेरी क्लास के लिए अपना कमरा उन्होंने मुझे दे दिया था , ये ही छात्राएं थीं , जो इस चित्र में दिखाई दे रही हैं । ये तो तब की बातें हैं ..... 

     आपाजी के दूसरी ओर खड़े हैं डाक्टर रामेश्वर गुप्ता जो उसी सत्र में मेरे वहां पहुंचने से पहले प्रिंसिपल बनाए गए थे । उनके सहज मित्रवत व्यवहार को मैं जीवन में कभी भूल नहीं सकूंगा । कभी अमृतसर में पढकर आये थे , कहते : असी तो छोटे छोटे जन हैं जी........

      प्रिन्सिपल गुप्ता साब के बराबर मैं खड़ा हूं , थोड़ा सा पीछे की ओर , अब अपने बारे में भला क्या कहूं....... .......केवल अपनी छात्राओं को सलाम करता हूं जो इस तसवीर में साथ खड़ी है , इनकी बदौलत ही तो मैं इस तसवीर में हूँ । बाकी बातें फिर कभी ....... “

सुप्रभात 🌻

नमस्कार 🙏

जयपुर 

शुक्रवार २४ नवम्बर २०१७ .

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Wednesday, 22 November 2017

हज़ार का नोट  - भिवाड़ी डायरी . 

ये गए बरस की बात है जब हज़ार का नोट चलन से बाहर हो गया था  और वो तो आज तक भी रूप बदल कर लौटकर नहीं आया . होने को तो पांच सौ का भी चलन से बाहर हुआ था पर उसका तो डुप्लीकेट आ गया था थोड़े ही दिनों में . उसका अभी ज़िक्र नहीं है बात तो हज़ार के नोट की है , गया सो गया .

उन दिनों हज़ार के नोट के पुराने क़िस्से मुझे याद आते थे . हम लोग उन दिनों भिवाड़ी चले गए थे . वहां आज के दिन जो क़िस्सा लिखा था उसे ज्यों का त्यों यहां जोड़ रहा हूं . लीजिए हाज़िर —


“  हजार का नोट  🌹

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सायंकालीन सभा में आपका स्वागत  

नमस्कार 🙏


इन दिनों हजार का नोट बाजार से नदारद हुआ है और उसकी कमी भी महसूस की जा रही है ऐसे समय में दो किस्से याद आ रहे हैं बार बार तो सोचा आपसे साझा करूं . लीजिए दर्ज करता हूं .


1.

मामा जी का हजार का नोट :

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वो मुझ अकेले के मामा नहीं थे , जगत मामा थे , इसलिए उन्हें मामा लिख रहा हूं . उनका भव्य व्यक्तित्व था और सामने वाला उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था .

उस सस्ते जमाने में जब हम्मा तुम्मा के पास न तो हजार रूपए की रकम होती थी और न वो हजार का नोट लेकर बाजार जाता था तब की बात है पिछली शताब्दी की और बहुत पहले की .


मामा जी कोई एक सौ रुपए के फल खरीदते हैं बड़ी उदारता पूर्वक , मोटा आसामी देखकर फल वाला भी खुश है . मामाजी अपना हजार का नोट निकालते हैं खुले रूपए देने को पर्याप्त नहीं हैं फल वाले के पास और वो अपनी असमर्थता व्यक्त करता है . मामाजी नोट तो रख लेते हैं और बोलते हैं :


“चल रहने दे , गल्ले में से अभी हाल दो सौ और दे दे . अभी मुझे आगे और सामान लेना है और हजार के खुले शायद न मिलें .”


और फल वाला दो सौ और निकाल कर राजी राजी दे देता है . बहरहाल उसका हिसाब आगे जाने कब के लिए बाकी रहता है .

है न खटका हजार रुपए का ?


2.

काको सा के कई हजार :

------------------------- अब ये राजा खाते अलग तरह का किस्सा है जो काको सा ने स्वयं मुझे सुनाया था . बात यहां भी हजार के नोट की ही है , पिछली शताब्दी की ही है , हजार रुपए के पहले अवतार रूप की .

बम्बई की बात है तब हजार रुपए का नोट प्रचलन से हटा लिया गया था , बाजार से हटा लिया गया था . स्थिति ये थी कि हजार के नोट किसी बैंक खाते में ही जमा किए जा सकते थे .व्यापार के सिलसिले में तब काको सा बम्बई ( तब यही नाम था ) में थे और व्यापार में कोई बरकत नहीं हो रही थी . उसी दौरान ये हजार का नोट निष्कासित हो गया .

हालत ये हुई कि बाजार में हजार के नोट तीन तीन सौ में बिकने लगे . काको सा ने मुझे बताया कि उन्होंने भी सामर्थ्य के अनुसार बिकाऊ नोट खरीदे और शान से बैंक खाते में जमा करवाए . व्यापार में यही तो होता है सस्ता खरीदो और मंहगा बेचो तो बरकत होगी . यहां भी यही हुआ .

 बाकी आप समझदार हैं , मैं और विस्तार में न तो जाऊंगा और न और बात मुझे पता है कोई .


ये तो किस्से हैं जिनमें मैंने अपनी ओर से वास्तव में कुछ नहीं जोड़ा है .


इन कथाओं के नायकों को सादर नमन करते हुए …

सायंकालीन सभा स्थगित …


--सुमन्त पंड्या 

  @ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

   बुधवार 23 नवम्बर 2016 .   “


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क़िस्सा अविकल आज ब्लॉग पर प्रकाशित .

जयपुर 

गुरुवार २३ नवम्बर २०१७ .

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Tuesday, 21 November 2017

घुड़सवारी मैदान में   - बनस्थली डायरी .

पुरानी यादें । जो जानते हैं उन्हें पात्र परिचय की कोई आवश्यकता नहीं होगी । जो जानते ही नहीं उन्हें परिचय की आवश्यकता भी क्या है .....?             


घुड़सवारी मैदान में :


यहां दी गई तस्वीर थोड़े समय पहले की है और जो प्रसंग मैं सुनाने जा रहा हूं वह इससे थोड़े समय बाद का है । हमारे घर में परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि परिवार जयपुर में रह रहा था और मैं बनस्थली में अकेला रह रहा था । बनस्थली परिवार तो था ही पर मैं तो घर में अकेला रहने की कह रहा हूं । एक बार जीवन संगिनी बच्चों को साथ लेकर बनस्थली आयीं । उदय भैया भी साथ था बाकी तीनों के । बच्चे घुड़सवारी देखना चाहते थे । वैसे घुड़सवारी मैदान के अतिथि पांडाल में मेरी ड्यूटी भी लगती थी उत्सव के समय इसलिए रिसालदार जी मुझे जानते थे और विनीता हमें समयानुसार मैदान में ले गई थी जो एक कुशल घुड़सवार थी ।


अभ्यास शुरु होने वाला था घोड़े घोड़ी अस्तबल से लाये जा चुके थे और मैं छह बच्चों के साथ मैदान के छोर पर खड़ा था । स्वीटी जो कि मेरे पास प्री यूनिवर्सिटी कक्षा में पढ़ती थी ने पूछा: ये सब बच्चे आपके हैं सर ? " मैंने हां ही कहा । इधर रिसालदार जी का मुझपर ध्यान गया तो बोले : वहां बाहर क्यों खड़े हो ? बच्चों को यहां भेज दो तो घुड़सवारी करवा दूंगा । 

           उदय और अनुज , दोनों थोड़े छोटे बड़े उपयुक्त पाए गए इन दोनों को एक एक घोड़े पर बैठाकर नकेल सईसों के हाथ में देकर रिसालदार जी बोले : जाओ इनको मैदान का चक्कर कटवा लाओ " 

      दोनों दादा चले गए देखकर उस समय जो सबसे छोटा मेरी गोद में था , वह मचलने लगा । वो मुठ्ठी में पकड़कर मेरी कालर खींच रहा था । यह देखकर रिसालदार जी बोले : अरे दादाभाई तेरा भी करता हूं इंतजाम ।

          रिसालदार जी ने अपने एक घोड़े पर शानदार जीन कसवाई , खुद उसपर बैठे छोटे वाले को आगे बैठाया लगाम भी उसके हाथ में दे दी मानो वही चला रहा हो ,रकाब में पैर तो रिसालदार जी के थे जिससे वे घोड़ी को नियंत्रित कर रहे थे । बड़े दो के साथ साथ रिसालदार जी की युक्ति से सबसे छोटा भी घुड़सवारी कर आया । जब लौटकर मेरे पास आया तो इसकी ख़ुशी का पारावार न था । दोनों हाथों से लगाम की मुद्रा बनाके हुम हुम करके मुझे बताता रहा कि वो क्या सफलता अर्जित करके आया है ।


उसदिन तो मिशन घुड़सवारी सफल रहा पर कुछ दिनों पहले जीवनसंगिनी ने मुझे यह कहकर ताना दिया कि मैंने उस दिन शगुन टला दिया तभी तो छोटा वाला घोड़ी चढ़ने को टालमटोल करता है ।


Good morning friends !

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ये संस्मरण  फ़ेसबुक पर तो बना रहा  ,  पहली बार आज के दिन  २०१४ में लिखा था  , साल दर साल फ़ेसबुक ने याद भी दिलाया पर अभी न तो ब्लॉग बना था और न ही ये संस्मरण ब्लॉग पर दर्ज हुआ था , फ़ेसबुक पर अलबत्ता इस पर काफ़ी बहस हुई थी . 

आज इसे ब्लॉग पर प्रकाशित करने से पहले  अपने मित्र प्रियंकर पालीवाल की तब की टिप्पणी यहां जोड़ता हूं  , उन्होंने कहा था —

“    आपने शगुन टलाकर अच्छा नहीं किया . देखिए ! अब बच्चा घोड़ी देख कर ही बिदकता है . :) तस्वीर सचमुच बहुत सुंदर है . वर्णनशैली की सादगी-सुथराई और सहजता देखते ही बनती है . आपको आत्मकथा लिखनी चाहिए . “

ऐसे ही अविनाश दास ने कहा था —

“   बहुत खूबसूरत यादें... और अंदाज आपका वही, बेमिसाल बतकही वाला... अब नयी किस्त का इंतजार है, नयी तस्वीरों के साथ... “

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तब से अब में समय और आगे बढ़ गया , बच्चे बड़े हो गए पर ये तो स्मृतियों  के चलचित्र हैं  जो आज भी मुझे दीखते हैं . 

आज इस संस्मरण को सहेजने को ब्लॉग पर प्रकाशित किए देता हूं  .

जयपुर 

बुधवार  २२ नवम्बर २०१७ .

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Saturday, 18 November 2017

हजामत तो रोज़ ही बणाते हैं     - जयपुर डायरी .


हजामत तो रोज ही बनाते हैं...........

Photo credit goes to my better half Manju pandya .


मैंने खुद कह के अपनी उतरवाई ........

यह तो मेरी अपनी , खुद की फोटो है जो सिर्फ इस लिए यहां लगाईं है क्यों कि जय भैया jai Jai Pandya ने मुझे ये सिखाया था कि पोस्ट के साथ कोई फोटो हो तो ज्यादा लोगोँ का ध्यान आकर्षित होता है । 


Disclaimer: ये मेरे साथ घटी हुई घटना नहीं है । ये तो अखबार में पढ़ी हुई एक बात है जो उन दिनों की है जब मैं अखबार पढने लायक हो गया था और कुछ कुछ बातें समझने लगा था । आप स्वयं अंदाज लगा सकते हैं कि कितनी पुरानी होगी ये बात ।


चुनाव प्रचार का दौर था । जन प्रतिनिधि किसी बस्ती में वोट मांगने पहुंचे थे । नेताजी के आने का शोरगुल सुनकर एक व्यक्ति अपने घर से निकलकर नेताजी। के पास लगभग इसी स्थिति में चला आया जिस स्थिति में मैं खड़ा हूं ।

     नेताजी बोले : आप हजामत तो पूरी बना लेते !

     वह व्यक्ति बोला : साब हजामत तो रोज ही बनाते हैं , वो तो बनती रहेगी , आप तो पांच साल में एक बार आते हैं । खैर ये तो उस जमाने की बातें हैं जब पांच साल बाद चुनाव होते थे , अब तो........


    इन दिनों यहां भी कोई स्थानीय निकाय के चुनाव होने जा रहे हैं । प्रचार के लिए काफिले डोलते रहते है । एक दोपहर ऐसा ही एक शिष्टमंडल गुलमोहर * में मेरा आशीर्वाद लेने चला आया । ओल्ले मोहल्ले के कुछ आवासों की और इशारा कर मुझे ये लोग बताने लगे कि ये फलाणे ढिकाने से इस प्रकार सम्बंधित हैं । 


मैंने उनसे कह दिया कि मैं तो फॉरिन सर्विस से आया हूं और इनमें से किसी को नहीं जानता , अब आप आज आए हैं तो आपको जान गया हूँ ।


* मेरा स्थानीय आवास ।  


स्पष्टीकरण : पहले वाली घटना जैसा मैंने कहा अखबार की खबर पर आधारित है , दूसरी वाली एकदम सच्ची है ।

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पुराना क़िस्सा है , आज ब्लॉग पर प्रकाशित किया है  .

जयपुर 

रविवार १९ नवम्बर २०१७ .

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Friday, 17 November 2017

१२३***


केवल ट्रायल पोस्ट है .

फ़ोटो डाउनलोड नहीं हो पा रही थी इसलिए जाँच करने को ये पोस्ट  बनाई .

जयपुर 

 १८ नवम्बर २०१७ .

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Thursday, 16 November 2017

बाईस रूपए का थान खरीदा था ** भाग एक .




रवीन्द्र निवास से गुलमोहर

Thursday, 3 December 2015

            बाईस रूपए का थान खरीदा था ~ भाग एक .

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  #बाईस रूपए का थान खरीदा था  ~ भाग एक .

  ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~    #बनस्थलीडायरी

ये तो कोई कल की  सी बात लगती है जब बड़ी चौपड़ पर लगने वाले जुलाहों के हाट ( कोल्याओं का हटवाड़ा ) से बाईस रूपए का थान खरीदा था और मैंने अपने जीवन में पहला ठंडा सूट सिलवाया था .

थान की खरीद से लेकर थान के बरतने की कहानी थोड़ी दिलचस्ब है , शायद आप उसे सुनना पसंद करें ऐसा सोचकर ही यहां यह थान - कथा लेकर बैठा हूं .

अगर च संभव हो गया तो उस थान की बची खुची एक पतलून जो मेरे पास है उसकी तस्वीर भी उतारूंगा और यहां जोड़ूंगा पहले कथा तो पूरी कर लेवूं .

सौदे की पृष्ठभूमि ~

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जब मैंने बनस्थली में काम करना शुरु किया तो खादी पहनने की आदत हो गई इसी क्रम में खादी भंडारों से खादी खरीदी शुरु हुई . गांधी जयन्ती के बाद के दिनों में इस पर कुछ छूट भी मिलती पर आजाद भारत में ये कोई सस्ता पहनावा नहीं रह गया था . रख रखाव और निर्वाह भी थोड़ा मेंहगा ही रहा .

एक दिन मुझे विचार आया कि क्यों न किसी जुलाहे से ही खादी खरीदी जाए और सरदार जसवंत सिंह जी से सूट सिलवा लिया जाय .

सरदार जसवंत सिंह उन दिनों बापू बाज़ार में 62 नंबर की दूकान में अपना सिलाई का कारोबार किया करते थे . वे ही मेरे ड्रेस डिजाइनर हुआ करते थे . बाद में तो मेरे देखते देखते ही सरदार जी ने अपनी दूकान बढ़ा दी और रिटायरमेंट ले लिया , दूकान में सरदार जी के  बेटों ने महिला प्रसाधनों का कारोबार भी शुरु किया था और मैंने जीवन संगिनी को कहा था कि अब वो उनकी ग्राहक बन सकती हैं . ये तो हुई ड्रेस डिजाइनर की बात . पर असल बात तो जुलाहे की बनाई खादी की थी . ड्रेस डिजाइनर की बात तो इसलिए आ गई कि तब तो कम से कम मेरे नाप के तैयार कमीज पतलून  खादी भंडारों में मिलते नहीं थे  और तैयार ठंडा सूट तो कहां से मिलता .

जुलाहों का साप्ताहिक हाट ~

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एक रविवार को दिन ढलने से थोड़ा पहले मैं फूफाजी को साथ लेकर  बड़ी चौपड़ के दक्षिण - पूर्व  खंदे में पहुंचा और जुलाहों के बुनकर लाए हुए कपडे के थान देखने लगा . थान पसंद आता देख जुलाहा फूफाजी को समझाने लगा  :

“ डेढ़ पाट की बण जायली.”

ये मोटा करघे पर बुना हुआ , हाथ के काते हुए सूत का  कपड़ा था जो प्रायः ओढ़ने की दोहर बनाने के काम मे लिया  जाता  था और मैं उसे पहनने के कपडे के रूप में देख रहा था .

मोल भाव के बाद जुलाहे  ने बाईस रूपए में पूरा थान दे दिया था और फिर सिलसिला शुरु हुआ उससे कपडे सिलवाने का . कैसे कैसे कपडे सिले और कौन कौन सिले और बिना सिले कपडे उसमें से ले गया वो भी बताऊंगा .

इतिहास अपने आप को दोहराता है ~ वो बात भी बताऊंगा .

अभी हाल के लिए तो बची हुई एक पतलून है जो यादगार रूप में बनस्थली से आए सामानों के साथ आई है .

आज के लिए सायंकालीन सभा स्थगित ..

शुभ संध्या

~~~~~~~~~

सुमन्त पंड्या .

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

17 नवम्बर 2015 .

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आज ब्लॉग पर सचित्र प्रकाशन  

जयपुर 

शुक्रवार १७ नवम्बर  २०१७ .

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Sumant Pandya at 09:07


 

2 comments:

Sumant Pandya3 December 2015 at 09:22

बड़ी कठिनाई से ये पोस्ट यहां ब्लॉग पर साझा कर पा रहा हूं . ब्लॉग गतिविधि सीख रहा हूं .

Reply


Sumant Pandya3 December 2015 at 09:23

बड़ी कठिनाई से ये पोस्ट यहां ब्लॉग पर साझा कर पा रहा हूं . ब्लॉग गतिविधि सीख रहा हूं .

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About Me

Sumant Pandya 

लगभग चार दशक बनस्थली विद्यापीठ में राजनीति शास्त्र विषय के अध्यापन के बाद अपने आवास गुलमोहर में जयपुर में रहता हूं . सभी नए पुराने दोस्तों और अपनी असंख्य छात्राओं से भी संपर्क बनाए हुए हूं . फेसबुक और ब्लॉग की दुनियां इसमें मददगार होगी यह आशा है .View my complete profile

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Wednesday, 15 November 2017

चलो घूमने चलते हैं  — बनस्थली डायरी 

चलो घूमने चलते हैं  .....  ब्रदर बोले थे      


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  बनस्थली की एक शाम ब्रदर ( डाक्टर शिव बिहारी माथुर ) मेरे घर आये  , वही 44  रवीन्द्र निवास , और बोले ,' निगम साब के साथ घूमने चलना है , आ जावो ।'


निगम साब को वो सड़क पर छोड़ कर आये थे और इधर गली में  मुड़कर मुझे  साथ लेने आये थे । अपना काला कोट पहन कर मैं भी साथ हो लिया । गली से निकलकर हम दोनों निगम साब के साथ हो लिए और सीधी सड़क पर  पूर्व दिशा की ओर चल पड़े , मेरे अभिवादन के साथ ही बातचीत होने लगी ।........

      पात्र  परिचय : 


    निगम साब उस जमाने में राजस्थान कालेज में इकॉनॉमिक्स पढ़ाया करते थे जब यह  कालेज नया नया बना था । राजस्थान कालेज  की यह प्रतिष्ठा थी कि श्रेष्ठ अंक अर्जित करने वाले  विद्यार्थियों को ही प्रवेश दिया जाता था  और ब्रदर उसी जमाने के निगम साब के विद्यार्थी थे  । इकॉनॉमिक्स उनका विषय भी  रहा था । कालान्तर में निगम साब राजास्थान  कालेज के डायरेक्टर बने __ पहले डिप्टी डायरेक्टर और शंकर सहाय सक्सेना साब के  रिटायरमेंट के बाद  डायरेक्टर । जिस शाम का मैंने जिक्र चलाया  है उन दिनों वह राजस्थान विश्वविद्यालय से रिटायरमेंट के बाद बनस्थली में  प्रोफ़ेसर एमेरिटस के रूप में बनस्थली आये हुए थे  उद्बोधन मंदिर , अरविन्द निवास में  ठहरे थे जो विशिष्ठ व्यक्तियों के लिए स्थानापन्न गेस्ट हाउस बनाया हुआ था । शाम को घूमने जाते  तो अपने पुराने  छात्र को साथ ले जाते थे  । कुछ बात चलेगी तो मैं भी बात में बात मिला दूंगा  ,  यही सोचकर ब्रदर मुझे साथ ले गए थे  ।


   मैं भी बाद की पीढ़ी का वह छात्र था जो राजस्थान  कालेज में तो पढ़ा था पर इकॉनॉमिक्स मेरा विषय नहीं रहा था इसलिए मेरा निगम साब से वैसा संपर्क नहीं था जैसा ब्रदर का था । इसी लिए आते जाते कभी निगम साब से अटका भी नहीं था । राजस्थान कालेज छोड़े भी  तब मुझे कोई बीस वर्ष  से अधिक हो गए थे ।


आज अचानक वो भागवत मुहूर्त्त  आ गाया था कि मैं निगम साब के साथ सड़क पर चल रहा था । ब्रदर ने निगम साब को कहा , ' डा.साब ये भी राजस्थान कालेज के / से ही हैं  ।' और मेरा नाम  बताया , या शायद मैंने ही अपना नाम बताया कि निगम साब ठहर गए   मेरे कंधे  पर हाथ रखा , उनका स्नेहालिंगन् मुझे  प्राप्त हुआ और बोले :' अरे तुम  तो राजस्थान कालेज के बेस्ट डिबेटर  हुआ करते थे । '  मुझे लगा गुरु जी ने  फिर एक बार मुझे पुरुस्कार दे दिया है


   कहां गया वो समय , कहां गए वो लोग ? निगम साब भी नहीं रहे , ब्रदर भी नहीं रहे  , स्मृतियां शेष हैं और शेष हैं स्मृतियों के  चलचित्र !


   मैं भी अध्यापक रहा मैंने भी    छात्राओं को पढ़ाया , बाद में मिलने पर खट्टे मीठे सभी प्रकार के अनुभव हुए  पर उनके बाबत फिर कभी.........


  अपने सेवाकाल को याद करते हुए ....

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संस्मरण ब्लॉग पर प्रकाशित 

जयपुर 

१५ नवम्बर २०१७ .

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Tuesday, 14 November 2017

" बीड़ी पिला ! " : भरतपुर डायरी .

मैं पिछले दिनों जब बच्चों के दबाव के चलते भरतपुर आगरा और फतेहपुर सीकरी जाकर आया तो  एक रात भरतपुर में बिताई । भरतपुर जाकर बरसों पहले की एक रात की बात याद हो आई  ।मैं अकेला वहां गया हुआ था और प्रभावती जीजी और परमानंद जीजाजी के पास बासन दरवाजे के पास  उनके  घर पर रुका था ।

थोड़ा पात्र परिचय दे दूं  । जीजाजी आयुर्वेद विभाग में वैद्य थे और जीजी प्राइमरी स्कूल की प्रिंसीपल /   प्रधानाध्यापिका थीं । उदयपुर में वसुधा के विवाह में जब प्रभावती जीजी गयीं थी , वर आर ए एस था अतः सारा जिला प्रशासन भी वहां और मेहमानों के साथ उपस्थित था , कलेक्टर साब ने अपने पी ए को भेज कर प्रभावती जीजी से मिलने का समय मांगा । इन्हें आश्चर्य हुआ भला कलेक्टर साब को उनसे मिलने का क्या काम आ गया  । खैर कलेक्टर साब सामने आए और बरसों पुरानी एक बात पूछी  कि क्या आपको याद है कि स्कूल जाते समय रास्ते में एक धोबी धोबिन के लडके को आग्रह करके अपने साथ ले जाती थीं और पढने को  मजबूर कराती थीं । उन्हें घटना याद थी और पता लगा कि उनका   वही लड़का  उदयपुर का तत्कालीन कलेक्टर था ।            एक बार प्रभावती जीजी और जीजाजी बनस्थली आये तो पता लगा कि बाल्य काल में उन्होंने  अरुणा  वत्स को भी पढ़ाया था । अरुणा वत्स ने उन्हें दावत पर बुलाया  ।  खैर ये तो उनके  परिचय की ही बात हुई :

आगे की बात जब मैं उनके घर ठहरा था । घर की बनावट उस समय तक ऐसी थी कि पीछे का हिस्सा खुला हुआ था । चौक से सीढियां उतरतीं थीं । पीछे छींपी  मोहल्ला था ।  छीपी मोहल्ले में दो व्यक्ति शायद कुछ नशे में लड़ने लगे और लड़ाई हिंसक हो गयी । मेरा वहां जाकर अटकने का मन था अतः मैं उधर जाने को सीढियां  उतरने लगा ।  जीजाजी बोले ,'  मरने दे इनको तू मत जा । ' उन्हें लगता था साला बिला वजह इनकी लड़ाई में उलझकर घायल हो कर आएगा । मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कि मुझे कुछ नहीं होगा और झगड़ा सुलटवाकर आवूंगा ।

खैर मैं गया मैंने उसके कंधे पर पीछे से हाथ रखा जो उसर रहा था और दूसरे पर वार कर रहा था । उसने मुड़कर पीछे देखा । उसकी आँखों में सवाल था । मैंने तत्काल कहा ' बीड़ी पिला ।'  उसने ऊपर की जेब से बीड़ी का बण्डल निकाला  बगल की जेब से माचिस की पेटी निकाली और मुझे देने लगा । नहीं, मैंने कहा कि सुलगा कर दे । अब उसने दो बीड़ी निकाली माचिस की तीली निकाली  बीड़ी को हथेली की ओट में लेकर तरीके से बीड़ी सुलगाई । सुलगी बीड़ी एक उसके हाथ में एक मेरे हाथ में और संवाद शुरू हुआ "  कौन गांव ? मैं अपने बारे में बताता रहा  बीड़ी का धुआं उल्टे उसी के मुंह पर उडाता रहा जिससे उसे कुछ असुविधा ही हो रही थी पर भला मुझसे क्या कहता । मैं तो मेहमान था ।

आज प्रभावती जीजी और परमानंद जीजाजी भी नहीं रहे मेरे विभाग की डॉ अरुणा वत्स भी नहीं रही पर ये बातें मुझे याद आती हैं । उस दिन तो जैसा मैंने जीजाजी को भरोसा दिलाया था  झगड़ा सुलटवाकर सुरक्षित लौट आया था ।

#स्मृतियोंकेचलचित्र #जयपुरडायरी #sumantpandya

ब्लॉग पर प्रकाशित —

जयपुर

मंगलवार १४ नवम्बर २०१७ .

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Monday, 13 November 2017

जिसके खाते में दो हज़ार का बैलेंस नहीं  ~~ बनस्थली डायरी .

सायंकालीन सभा भिवाड़ी से 🌻

नमस्कार 🌹

इनदिनों कुछ आपाधापी है इसलिए बैंक बाबत लिखी मेरी पुरानी पोस्ट खोज रहा था , आज ढूंढें से एक पोस्ट मिली  इसमें छापे की कुछ कमी तो है पर इसे पेस्ट और पोस्ट कर रहा हूं .

मौजूदा राष्ट्रीय आपदा के दौरान हिम्मत से काम करते हुए  डटे रहने के लिए मैं भारत के सभी बैंक कर्मियों को सलाम करता हूं और ये संस्मरण साझा करता हूं .

ये रकम दो हजार का जिकरा यहां भी है , बड़ा मानीखेज लगता है ये आंकड़ा .

इस संस्मरण में पिछली शताब्दी की बनस्थली की स्मृतियां जुडी हुई हैं  .

#स्मृतियोंकेचलचित्र  #बनस्थलीडायरी  #sumantpandya

सुमन्त पंड्या

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

14 नवम्बर 2016

जिसके खाते में  दो हजार का  बैलेंस नहीं .

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बनस्थली  में  एक दिन जब एम फिल  की  क्लास को  मैं   पढ़ाकर निकल रहा  था  तो  मेरे  पास पढने वाली  एक छात्रा  ने  जानना चाहा  कि क्या मेरा  परिसर में  कोई बैंक खाता है  । बातचीत कुछ इस प्रकार आगे  बढ़ी :

~  सर , क्या आपका कोई  बैंक अकाउंट  है यहां  पर   ?

*   है ,  दोनों  बैंकों  में  खाते हैं , दोनों के  दोनों एक्सटेंशन  काउंटर पर भी  खाते हैं  ,  बोलो  क्या काम है  ?

~  सर , आप मेरा  इंट्रोडकशन कर देंगे  , मुझे  एक ड्राफ्ट का भुगतान लेना है  ?

*  जरूर , ले  आना  इसमे  क्या बात है  ?  मैं न केवल खातेदार हूं , अभी तो मैं कोऑपरेटिव सोसायटी का  चेयरमैन भी  हूं और  बैंकर्स उल्टे मुझसे   संपर्क करते क हैं  लाखों  की  डिपॉज़िट  के  कारण  ।े

मैंने  गर्व से  कहा  मानो  मेरे  हस्ताक्षर   का बड़ा मोल हो   एक बड़ा खातेदार होने के  नाते । गीतांजलि का  कुल काम ये था  कि उसके  पास बैंक ड्राफ़्ट  कुल दो हजार का  जिसका एक  राष्ट्रीयकृत  बैंक की  बनस्थली शाखा  से  बिना खाता खुलवाए भुगतान ले  लेना  था  ।

गीतांजलि  वो ड्राफ्ट लाई , मैंने  मुख्य  शाखा  का  अपना  खाते का  हवाला देते हुए उसका  काम कर दिया ।  हस्ताक्षर कर दिए , एस बी खाते का  नंबर डाल दिया  ।  भुगतान मिल गया ये  उसने   मुझे  बताया  था  और दूसरी  बार भी  ऐसा ही  हुआ था । मेरा  उधर जाना  कम होता था   क्योँकि विद्यामंदिर में एक्सटेंशन काउंटर का खाता  ज्यादा  काम में   आने  लगा  था।

एक दिन  मेरा  उधर जाना  हुआ । बैंक की  प्रधान शाखा  में  भी मैं चला   गया  उन लोगों  का आभार जताने कि मेरी  तस्दीक पर मेरी  बच्ची का काम हो  गया ।  प्रसंग आने पर  वहां  जो  पुराने  अधिकारी  और  कर्मचारी  थे  उनहोंने सुझाव दिया कि मैं  एक नए अधिकारी  छगनलाल ( बदला  हुआ नाम ) जी  से  भी  मिलता   जाऊं  जिन्होंने  गीतांजलि को  ड्राफ्ट  यह कहकर लौटा  दिया था कि  भुगतान के  लिए किसी  और खातेदार से  तस्दीक करवा कर लाये  । मेरे  इंट्रोडक्शन  से  वे  आश्वस्त नहीं थे  । इन लोगों  ने  बीच में  पड़कर  भुगतान  करवाया  था जब उन्होंने  जाना  कि मेरी  और से   सिफारिश थी  । ये  लोग चाहते  थे  कि मैं छगंलालजी  से  अटकूं  ताकि बात साफ़ हो  और उसकी  तार्किक परिणति हो ।  जो  बात इन लोगों  ने  बताई  वो मुझे  पहले  पता नहीं थी  ।   छगन लाल  जी  के  लिए खाता संख्या  ही  मेरी  पहचान थी और लैजर देख कर यह तय कर लिया था  उन्होंने कि मैं कैसा  खातेदार हूं , मैं कौन हूं ये   जानने के लिए आज की  तरह  मेरी  तस्वीर भी  वहां  नहीं थी , वहां  तो जमा रकम ही  मेरी  तस्वीर थी , मेरी  हैसियत थी । अब फ्रैंडली एनकाउंटर होना ही  था ।  उन्होंने  अपना  पक्ष कहा  कि  जिसके खाते में  दो हजार का  बैलेंस भी  नहीं  उसके  इंट्रोडक्शन पर  दो हजार का  भुगतान वो कैसे कर देते भला  , कल को  इंस्ट्रूमेंट में  कोई गड़बड़ पता लगे  तो वसूलें  किससे । 

छगनलाल जी  से  मेरा  कहना था कि मैं सबसे पुराने खातेदारों में से  एक हूं और मेराखाता  नियमानुसार ठीक है , मुझपर कोई कर्ज का  बकाया नहीं है  । रही  बात इंट्रोडक्शन की तो मैंने तो पहचान  केवल गीतांजलि की की थी  , ड्राफ्ट से  बाकी   मेरा  कोई लेनादेना  नहीं था , वह उसके  पिताजी का  बनवाया  हुआ था ।

ड्राफ्ट की  असलियत  को  जांचने को  तो आप बैठे  हैं  महाराज , गड़बड़ होने पर मुझसे  वसूली  की  नौबत  भला  कैसे आती  । रही  बात जमा रकम की   तो मैंने यह भी  कहा था उस समय कि  मैं क्या कोई  जे एम एम सांसद हूं जो  मेरे  करोड़ों जमा होंगे आपके पास । खैर , अत्यंत सौहार्द्र के  वातावरण में  चर्चा समाप्त हुई और  छगन लाल जी  मुझे  बोले  :

"आज आपसे  परिचय हो  गया , अब भविष्य में  ऐसा कभी  नहीं होगा । "

इति प्रातः कालीन सभा

शुभ प्रभात

good morning

7 दिसंबर 2014 .

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भिवाड़ी   में  सायंकालीन सभा  स्थगित ..............

आज ब्लॉग पर प्रकाशित 

जयपुर 

मंगलवार  १४ नवम्बर २०१७ .

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मेरा नया घर -४४ रवीन्द्र निवास : बनस्थली डायरी .

मेरा नया घर :  44  रवीन्द्र निवास (डबल फोर )

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~     #बनस्थलीडायरी      #डबलफोर

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" स्मृतियों  के अछोर सागर के बीच उसने कई द्वीप बना लिए थे  । पिछले अनेक वर्षों से वह इन्हीं द्वीपों में रह रहा था .......  ......."

      किनारे के लोग , हिमांशु जोशी  की एक कहानी से ....।

     ~~~~~~~~

बरसों पहले यह कहानी पढ़ी थी उसी का एक वाक्य मुझे याद रहा ।

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जब बनस्थली गया तो  हरि भाई और भाभी के साथ  जाकर रहने लगा  । पूरा एक  सत्र उन्हीं के साथ रहा । भाई भाभी दोनों ही मेडिकल  आफिसर थे  और कच्चे मकानों में शांता कुञ्ज के पास कमला नेहरू अस्पताल चलता था  उधर ही आरोग्य शाला थी जिसे पुल्लम्मा बहन जी  सम्हालती थी  ।यह था लड़कियों का इनडोर अस्पताल । छोटी सी एक बात बताता चलूं  - एक ग्रामीण महिला भाभी के पास कुछ निदान व चिकत्सा के लिए आई बैठी थी  । मैं भी भण्डार से लौटते हुए अस्पताल में आया था । इस महिला ने पूछा ,' ये आपणा  भायाजी दीखै  ? '  याने ये आपका बेटा है क्या ?  भाभी ने स्वीकृति में सिर हिला दिया  और वह महिला मुझे असीस दे गई ,' भगवान यां की हजारी उमर करै  ! ' मैं उनके बच्चों में बच्चा शामिल हो गया था  । यहां रश्मि  रंजना और रोहित का जिक्र करने लगूंगा तो बात लंबी हो जायेगी । बहरहाल मेरा डाक का पता हो गया था : 14 अरविन्द निवास ।

  सत्रांत से पहले मेरा विवाह हो चुका था और  सत्रांत के समय मुझे मकान मिला था 44 रवीन्द्र निवास ।दोस्तों की राय थी कि गर्मी की छुट्टी का किराया फालतू न देकर मकान जुलाई में ही लिया जाय क्यों कि  गर्मी की छुट्टी में तो मुझे जयपुर आ ही जाना था  ।  पर मैंने तो मकान ले लिया  और अब मेरा नया पता हो गया था _ 44 रवीन्द्र निवास ।  मुझे तो इतना भी ज्ञान नहीं था कि  घर बसाने पर एक अलग चूल्हा भी तैयार करना पड़ता है पर हरि भाई ने  भण्डार से नया चूल्हा और मेरे लिए गैस कनेक्शन  पहले ही लेकर रख लिया था  जो अब 44 रवीन्द्र निवास में आ गया था ।  जब तक बनस्थली  में रहा मेरा घर परिवार का यही पता रहा  और सहज चर्चाओं में यही घर डबल  फोर  कहलाया  । बड़े बड़े लोग यहां आये गए  जिसकी चर्चा फिर कभी...

     तीन खजूर के पेड़ उस पगडंडी की पहचान थे  जहां से मुड़ कर मेरा घर आता था । इधर सब मकान एक  जैसे थे  पहली कतार में 13 से 30 तक और  दूसरी कतार में  31 से  48 तक । 44 नंबर 17 नंबर  के ठीक पीछे था । 17 नंबर में  देवेन्द्र शंकर अपनी जीवन संगिनी के साथ रहते थे , भरत नाट्यम के  सुयोग्य प्रशिक्षक थे और सितार माइस्त्रो  विश्व विख्यात रवि शंकर के बड़े भाई थे ।

    मेरे घर के दो प्रवेश द्वार थे  एक जो चौक की तरफ अंदर वाले  बरामदे में  ले जाता था , दूसरा उठने बैठने के कमरे का दरवाजा  जिसके बाहर एक छोटा सा बरामदा था । दोनों ही से आया जाया जा सकता था ।  दरवाजे का चयन निमित्त और सम्बन्ध से निर्धारित होता था ।  तब का केवल एक प्रसंग । शाम का अंधेरा चौक की तरफ वाले दरवाजे पर आहट हुई  , खोला तो कोई बाई कमल कांती जी को पूछ रही थी  उसे अगली गली में भेजा क्योंकि कमलकांती और जे पी श्रीवास्तव तो  46 नंबर में  रहते थे । एक दिन ऐसे ही अँधेरे के बखत पिछले दरवाजे से रैना साब आ गए  श्रीवास्तव को पूछते हुए । चाय के शौक़ीन थे  चाय पीकर गए  ।

अंतिम  बात इस  क्रम में कि हद तो उस दिन हो गई जब ऐसे ही अपना घर समझकर एक दिन खुद श्रीवास्तव मेरे घर चले आए । मेरी जीवनसंगिनी ने दरवाजा खोला  तो भी वो भोले  आदमी ये समझे  कि पड़ोसन कमलकांती से मिलने आई हुई है , साथ साथ अंदर चले आए  , जब मुझे मेरे अपने घर में विश्राम की मुद्रा में पाया तब उसे भूल का अहसास  हुआ । मैं मिला और मेरा इतना ही कहना हुआ :

"  ये भी आपका ही घर है श्रीवास्तव ! लेकिन एक बात आज साफ़ जरूर हो गई  कि इससे पहले जो दो बार लोग यहां आये वो भी ग़लत नहीं थे ! "

आशियाना से अपडेट :

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आज फेसबुक एक पुरानी पोस्ट बाबत याद दिला रहा है , उस दौर का उल्लेख आते ही मैं पुरानी यादों में खो जाता हूं , जीवन संगिनी जब फेसबुक पर आयी तो उन्होंने पहला काम ये किया कि इस पोस्ट को साझा किया . आज एडिट कर उस घर की तस्वीर भी जोड़ रहा हूं , बहरहाल एक छोटा सा किस्सा तो खैर यहां है ही .

आभार और नमस्कार 💐

सुमन्त पंड्या .

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

  बाल दिवस  , सोमवार 14 नवम्बर 2016 .

#स्मृतियोंकेचलचित्र  #बनस्थलीडायरी #sumantpandya .

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आज ब्लॉग पर प्रकाशित —

जयपुर 

मंगलवार १४  नवम्बर २०१७ .

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“ ......... नहीं हैं तो करना ही क्या है ? “  जयपुर डायरी .




........नहीं हैं  तो करना ही क्या है  ?

  पिछली   शताब्दी  ( सहस्राब्दी भी ) के अंत में हम लोग शहर  के पैतृक आवास से चलकर बापूनगर में रहने आये  तब की बात है ।  आ तो गए थे  पर जुड़ाव  नाहरगढ़ रोड़ और चांदपोल बाजार से ही था , आज भी है ।  मेट्रो की तैयारी के नाम पर शहर खुद रहा है पर वहां जाने को मन करता है चाहे यातायात में कितनी ही दिक्कत आये । खैर ये तो तब की बात है जब यह उत्पात नहीं था ।


          नाहर गढ़ रोड़ के नुक्कड़ पर न्यूं लक्ष्मी जनरल स्टोर हुआ करता था जिसका मालिक उस समय गोवर्धन था । इससे दो पीढ़ी का चला आ रहा रिश्ता था जब गोवर्धन के पिताजी दूकान पर बैठा   करते थे तो काकाजी * भी उसके यहां से सामान खरीद कर लाते थे  । अब  हम लोग सामान खरीदते थे ।  उसे हमारी जरूरतों का भी पता होता घर में टूथ पेस्ट बीत रहा है और भाई लेने पहुंचा तो वो ये भी बता देता ,' ये रहने दो भाई  साब पहले ही ले जा चुके हैं ।'   


   शहर से बापूनगर आते हुए छोटा भाई विनोद Vinod Pandya , बहुतेरा सामान इकठ्ठा खरीदकर ला रहा था  ।  जेब में थे वो पैसे कम पड़ गए  । उसने सोचा कुछ आयटम कम कर दूं  जितने पैसे हैं  उतने का ही सामान ले चलूं । इस सोच के चलते  हजामत के सामान में से एक  मंहगा रेजर  गोवर्धन को लौटाया कि रकम कम हो जाए । ये रहने दो फिर कभी  ऐसा कहा ।


     खैर ये तो बात थी विनोद की तरफ से । अब बारी थी गोवर्धन के बोलने की और वो बोला :  साब इसे क्यों छोड़ जाते हो यही तो एक पुरुषों का सौंदर्य प्रसाधन * * है ।.... रही बात पैसों की तो  अगर  आप हैं  और हम हैं तो ये  गए ही कहां हैं  ...... और अगर नहीं हैं  तो इनका करना ही क्या है  ? खैर विनोद ने वो सामान भी ले लिया जो वो छोड़ रहा  था ।


अब तो हम लोग भी जनता स्टोर , बापू नगर और टोंक रोड़ के ग्राहक बन गए , गोवर्धन ने नुक्कड़ की वो दूकान छोड़ दी , बेटे को अशोका नाम से एक और दूकान खुलवा दी और खुद रिटायरमेंट ले लिया ।


उसकी  तब की कही दो बातें - पुरुषो का प्रसाधन और जेब में   पैसा बाबत मुझे याद रहीं , विनोद भी अवश्य इसकी पुष्टि करेगा ।

#स्मृतियोंकेचलचित्र #जयपुरडायरी #sumantpandya

पुराना संस्मरण सर्वानुमति के आधार पर आज ब्लॉग पर प्रकाशित  —

जयपुर 

मंगलवार  १४ नवम्बर  २०१७ .

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Sunday, 12 November 2017

मन की उलझन : जयपुर डायरी

गुलमोहर कैम्प , जयपुर से नमस्कार 🙏

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कल इत्ती बात कही थी रेग्युलर पोस्ट के नाम पर और बात ऐसी अटकी के पूरी करने का ओसाण ही नहीं मिला .  भूल में न पड़े इसलिए तब तक कही बात यहां टीप देता हूं --

"   नमस्कार 🙏

सुबह खिचड़ी पोस्ट मांड़कर हो लिया था वर्धमान पार्क और वहां भी जित्ती देर बैठा रहा ये बात सोचता रहा पर ये गुत्थी सुलझी नहीं वही बताने का प्रयास कर रहा हूं .

कैसी गुत्थी ?

वो ही बताता हूं .

कल दोपहर अजीब उलझन में पड़ गया . अपने ही घर में जूतों के ढेर में  क़ई  एक अच्छे अच्छे जूते मिलें पर हर एक जूता एक पैर का और जोड़ी का जूता नदारद . अब क्या तो करो आप , एक बार को घर से निकलने  का विचार ही स्थगित करना पड़ गया .

दूसरा जूता न मिले तो एक मिला मिलाया भी बेकार .

ऐसा हो क्यों रहा है ये सोच सोचकर परेशान . मेरे साथ ये चोट की किसने ये बात भी समझ से बाहर . सिवाय जूतों के ढेर को कुखेरने के और क्या करता  ?

बहुत देर तक उधेड़बुन में रहा और उद्यम करता रहा पर कोई हल  न निकला .

गए दिनों मुझपर दबाव रहा कि मैं भी और लोगों की तरह मँहगे विदेशी जूते ख़रीद लेवूं और ठमके से चलूँ  , लगा ये उसी का दंड भुगतना पड़ रहा है , पर अब क्या करो आप . सच परेशान हो गया .

सच ये रम्बाद लम्बा चला .

इस रम्बाद के और पहलू  भी हैं पर अभी थक गया हूँ कुछ ठहर कर बताऊंग़ा .......

अधूरी बात पूरी करूंग़ा जरूर से ...."

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अब आगे --

मैंने कल  सुबह जो कुछ लिखा था उसे फ़ेसबुक पर अधूरी पोस्ट के रूप में जारी कर दिया था और आपने मेरी उलझन को सराहा उसके लिए तो आप सब  का जित्ता आभार व्यक्त करूं कम होगा पर बात आगे तो बतानी ही पड़ेगी --

ये मँहगे जूते के विचार और जूता जोड़ी के तालमेल में उलझकर जब मैं ख़ूब परेशान हो लिया तो मेरी आँख खुली और ये अहसास हुआ कि हालात यथावत हैं . पर आश्चर्य की बात ये कि मुझे ये ही लगता रहा कि अगर थोड़ा सा वक़्त और मिलता तो मैं कोई  न कोई जोड़ी का जूता ढूँढ ही लेता पर अब वो अवसर छिन चुका था  और मैं स्वप्न से वर्तमान में आ चुका था .

स्वप्न की व्याख्या

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१.

मनसाराम से मेरी दोस्ती और  देशी जोड़ी से मेरा लगाव शायद कहीं मेरे अंतर्मन में रहा हो जो ऐसे सपने का कारण रहा हो .

२.

एक जूता मिले और जूते की जोड़ी न मिले इसमें कोई प्रतीकात्मक संकेत तो नहीं है ?  ये भी कल सोचता ही रहा .

३.

मैं और जीवन संगिनी इत्तफ़ाक़ से ऐसा जोड़ा हैं जिनकी जूता नाप एक है  , क्या इसमें हम दोनों को जीवन के लिए कोई सीख है ? ये भी सोचने वाली बात है .

४.

स्वप्न की व्याख्या में विनोद ने बड़ीं मदद की  जिससे ही  ये पोस्ट आज पूरी हो पाई .ऐसे और कोई को कोई इंटरप्रटेशन सूझे तो वो भी बतावें अच्छा रहेगा

अब मनसाराम की बनाईं प्रीमियम जूता जोड़ी की फ़ोटो यहां जोडूंग़ा जो कल से पहनकर घूम फिर रहा हूं .

अथ श्री जूता पुराण समाप्त .

प्रातःक़ालीन सभा स्थगित .............

जयपुर

शनिवार ११ नवम्बर २०१७ .

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मेरी इस  "  मन की उलझन " को समझने में सर्वाधिक सहायक हुई प्रोफ़ेसर सुभाष गुप्ता की व्याख्या जो उनके शब्दों में यहां जोड़ता हूं  --

"  भाई साहब, सुप्रभात! कल उत्सुकता थी, आज का समापन अनपेक्षित और सारगर्भित। मुझे लगता है कि चूंकि "जुड़ाव ", "मित्रता", "प्रेम"आपका स्थाई भाव है, तो " बिछड़ना" आपका स्वाभाविक भय, जो सपने में जूतों के माध्यम से प्रकट हुआ। वैसे पंड्याजी (विनोद) मनोविज्ञान पढ़े हैं, ज्यादा बेहतर विश्लेषण कर सकते हैं।  "

आद्या जी का भी समर्थन मिला इस बात के लिए कि क़िस्सा ब्लॉग पर जोड़ा जाय .

आभार सभी टिप्पणीकारों का . क़िस्सा आज ब्लॉग पर प्रकाशित -

जयपुर 

सोमवार १२ नवम्बर २०१७ .


Wednesday, 8 November 2017

लंबरदार स्कूल की याद — भाग पांच — उदयपुरडायरी 

लम्बरदार स्कूल की याद : भाग पांच ~ प्रधान मंत्री की विदाई . ..#लम्बरदार_स्कूल_की_याद

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विगत अक्टूबर माह में मैंने सत्र 1962 -63 की अपनी स्कूली शिक्षा के संस्मरणों पर आधारित पोस्ट लिखना प्रारम्भ किया था . केवल मोटा मोटी कुछ बातें ही बताई थीं चार कड़ियों के अंतर्गत और फिर वो क्रम छूट गया था . दीपावली आते आते घरेलू व्यस्तताएं बहुत बढ़ गई थीं और पुराने काल खंड के बारे में सोचने का समय ही नहीं था .


   इस प्रसंग में बहुत सी छोटी छोटी बातें हैं बताने लायक , दिखाने लायक . उस बाबत बहुत सी सामग्री मेरे तीर्थ ( मेरे जन्म स्थान , पैतृक आवास ) में रखी है . अगली तीर्थ यात्रा के बाद वो भी यहां फेसबुक पर जोड़ूंगा , आप को दिखाऊंगा , अभी यहां भिवाड़ी में बैठे एक प्रसंग के बारे में सोच पा रहा हूं और वो ही बताने जा रहा हूं .


अगला सत्र :

~~~~~~~ अगला सत्र उन्नीस सौ तिरेसठ चोंसठ प्रारम्भ हो गया , नए सत्र में संसद और मंत्रिमंडल का नए सिरे से चुनाव होता इस से पहले ही एक नई परिस्थिति उत्पन्न हो गई जिसके चलते मेरा स्कूल छोड़ना लाजमी हो गया अन्यथा मेरे रहते प्रधान मंत्री पद का कोई अन्य दावेदार नहीं था .

स्कूल प्रशासन में शीर्ष पर भी महत्वपूर्ण बदलाव ये हुआ था कि श्री गोपाल लाल शर्मा , हैड मास्टर साहब का तबादला हो गया था उनका विदाई समारोह आयोजित करने का जिम्मा मैंने ही निभाया था . नए हैड मास्टर साहब श्री बी पी जोशी आए थे , जिन्हें उत्कृष्ट सेवाओं के लिए उसी वर्ष राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला था . जोशी जी की भी पुराने हैड मास्टर साब की तरह मुझपर वैसी ही छत्र छाया थी .


काकाजी ( हमारे पिताजी ) का ट्रांसफर अजमेर का हो गया . परिवार को अजमेर जाना था और इस लिए मेरे टी सी के लिए स्कूल में आवेदन दिया गया . ये बात मेरे लिए सुखद नहीं थी और न ही सुखद थी मेरे अध्यापकों और साथियों के लिए . हैड मास्टर साहब को अध्यापकों और साथियों की ओर से ये सुझाव मिला कि प्रधान मंत्री की विदाई पार्टी आयोजित होनी चाहिए और उसे उन्होंने मान लिया .

आखिर जिस दिन मुझे परिवार के साथ अजमेर जाना था उसके पहले दिन उधर काकाजी अपने ट्रेजरी ऑफिस विदाई पार्टी के लिए गए और मैं अपने स्कूल गया विदा होने . 

मेरे समझ कितनी थी इसका अनुमान आज मैं स्वयं लगा सकता हूं . विदाई पार्टी में मेरे एक अध्यापक एक मुहावरा बोले थे और मैंने घर आकर उसका अर्थ अपने घर वालों से पूछा था . मुहावरा था,” होनहार बिरवान के होत चीकने पात .” अब आप भी अनुमान लगा लीजिए .

बहरहाल मुझे साथियों ने और अध्यापकों ने भाव विभोर कर दिया था . इतनी मालाओं से मुझे लाद दिया था कि अगर उस दिन स्कूल सायकल न ले गया होता तो घर भी कैसे लेकर आता . मेरे घर वाले सब ये देखकर चकित थे कि जितनी मालाएं ट्रेजरी से लौटने पर काकाजी की सायकल के हैंडिल पर टंगी थी लगभग उतनी ही मालाएं स्कूल से लौटने पर मेरे साथ थीं .

 मेरा स्कूल छूटने के साथ ही प्रधान मंत्री के रूप में कार्यकाल भी समाप्त हो गया था . वो एक ऐसा शैक्षिक सत्र रहा जिसके दौरान मैं एक एक कर तीन शहरों के तीन स्कूलों में पढ़ने गया था .

पहले अजमेर और उसके कुछ महीनों बाद जयपुर पहुंचने के बाद भी लम्बरदार स्कूल के छात्र साथियों से मेरा पत्र व्यवहार और संपर्क रहा .

मेरे ही मंत्रिमंडल का एक साथी नेमुद्दीन मेरे बाद प्रधान मंत्री बना ये भी एक साथी ने मुझे पत्र में लिखा था .

अभी हाल के लिए बचपन के उन सुनहरे दिनों को याद करते हुए 

प्रातःकालीन सभा स्थगित ….

सुप्रभात .

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सुमन्त पंड्या  

सह अभिवादन Manju Pandya


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@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी

   1 दिसंबर 2015.


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आज का अपडेट : बुधवार 9 नवम्बर 2016 .


गए बरस इस संस्मरण की जो पांच कड़ियां मैंने लिखी थी उनमें ये आखिरी कड़ी है . चर्चा में तारतम्य बना रहे इस नाते आज इसे फिर से प्रकाश में लाने का प्रयास कर रहा हूं .

और बहुत कुछ है बचपन के उन दिनों के बारे में बताए जाने लायक पर उसके लिए अलग पोस्ट ही बनेगी .


सुप्रभात  🌹


सुमन्त पंड्या 

@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

  बुधवार 9 नवम्बर 2016 .


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लंबरदार स्कूल विषयक इस संस्मरण की पाँचवीं कड़ी आज ब्लॉग पर प्रकाशित -

जयपुर 

गुरुवार  ९ नवम्बर  २०१७ .

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Tuesday, 7 November 2017

लंबरदार स्कूल की याद - भाग चार -  उदयपुर डायरी 

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#लम्बरदार_स्कूल_की_याद : भाग चार .

------------------------------------------ पिछली तीन पोस्ट में बात यहां तक पहुंची थी कि मैं उदयपुर के लम्बरदार हायर सैकेण्डरी स्कूल का प्रधान मंत्री चुन लिया गया . तीसरी पोस्ट के अंत में मैं यह कह बैठा था कि अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी था और कि ‘ पिक्चर अभी बाकी है ….’ आज उसी बात को आगे बढ़ाने का प्रयास करता हूं .


वैधानिक प्रावधान ~

~~~~~~~~~~~ मैं प्रधान मंत्री तो चुन लिया गया , साथ ही विधान में ये भी प्रावधान था कि प्रधान मंत्री पद के लिए चुनाव हारने वाले उम्मीदवार को विरोधी दल के नेता का दर्जा दिया जाएगा .

प्रावधान के अनुसार ये अवसर जॉन फ्रांसिस को मिलना चाहिए था चाहे उसे एक ही वोट मिला हो . आखिर वो प्रधान मंत्री पद के लिए चुनाव हारा था . इस प्रसंग में हैड मास्टर साब ने ये फैसला किया कि हमारे स्कूल में कोई विरोध की राजनीति नहीं होगी इस लिए कोई विरोधी दल का नेता भी नहीं होगा . 

हां , जॉन फ्रांसिस ने चुनाव लड़ा था और इस लिए इस सर्वानुमति की राजनीति में उसे भी कोई पद अवश्य मिलना चाहिए . सोहन लाल जी माट साब ने हैड माट साब की ये इच्छा मुझ तक पहुंचाई कि जैसा विधान में प्रावधान था, एक संसदीय सचिव की नियुक्ति होनी थी , प्रधान मंत्री पद ग्रहण करने के बाद इस पद पर नियुक्ति के लिए मैं फ्रांसिस के नाम की सिफारिश कर दूं . ऐसा ही हुआ और पदेन अध्यक्ष के नाते हैड माट साब ने जॉन फ्रांसिस को संसदीय सचिव नियुक्त कर दिया . सर्वानुमति और वैचारिक मामलों में समन्वय की सीख मुझे वहीँ से मिली .

अब जो कुछ विरोध था वो मंत्रिमंडल में ही समाहित था , उसकी गूंज संसद तक नहीं पहुंच रही थी , संसद के समक्ष पूरा मंत्रिमंडल एकजुट था .

इस प्रकार सत्र उन्नीस सौ बासठ - तिरेसठ के दौरान लम्बरदार स्कूल की तमाम मंचीय गतिविधियों में मैं लिप्त रहा. धूम धाम से वार्षिकोत्सव मना. 

पारस्परिक सहयोग कैसे आयोजन को सफल बनाता है इसका एक उदाहरण याद आता है . मैं चिंतित था कि शहर भर में वार्षिकोत्सव के निमन्त्रण पत्र बटेंगे कैसे . सोहन लाल जी माट साब ने इसका सहज समाधान कर दिया . वे पते लिखे हुए निमंत्रण पत्र प्रत्येक विद्यार्थी को पांच -पांच सौंपने लगे इस निर्देश के साथ कि पता लिखे स्थान पर पहुंचा कर आवें और इस प्रकार शहर भर में निमंत्रण पत्र सहज बंट गए .


इस सन्दर्भ और उस समय के बारे में बहुत कुछ कहना अभी भी बाकी है पर प्रातःकालीन सभा के लिए उपलब्ध समय सीमा समाप्त हो रही है .

क्षमा प्रार्थना के साथ प्रातःकालीन सभा स्थगित ..

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सुप्रभात .

सहज अनुमति और समीक्षा: Manju Pandya

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सुमन्त पंड्या.

@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर . जयपुर .

12 नवम्बर 2015 .


अपडेट आज का : 8 नवम्बर 2016 .

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आज इस संस्मरण की चौथी कड़ी फिर से प्रकाश में लाने का प्रयास है जिससे क्रम बना रहे .

#स्मृतियोंकेचलचित्र #उदयपुरडायरी #sumantpandya


सुमन्त पंड्या 

@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

मंगलवार 8 नवम्बर 2016 .


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आज संस्मरण की चौथी कड़ी ब्लॉग पर प्रकाशित  —

बुधवार  ८  नवम्बर  २०१७ .

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Monday, 6 November 2017

लंबरदार स्कूल की याद — भाग तीन — उदयपुर डायरी .

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   #लम्बरदार_स्कूल_की_याद : भाग तीन 

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विगत दो कड़ियों में मैंने उदयपुर के ऐतिहासिक लम्बरदार स्कूल में अपने अनुभवों पर आधारित संस्मरणों को अंकित किया है जिनमें मुख्य रूप से ये बात आई कि हैड मास्टर साब ने पहले तो मुझे कमजोर देखकर फिर से नवें दर्जे में दाखिल करवाने की बात कही पर फिर वो मान गए . और दूसरे श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर मुझे बोलता हुआ देख सुनकर वो बहुत खुश हुए . उन्होंने मुझे स्टेज से उतरते हुए रोका और मेरी पीठ पर हाथ रख दिया . मानों मुझसे वो कह रहे हों कि इस स्कूल में रहते बार बार मुझे स्टेज पर ही देखना चाहते हैं . आगे के घटनाक्रम ने स्पष्ट किया कि हैड माट साब ने उस दिन क्या कुछ सोच लिया होगा ….

“ मंच अधिग्रहण “ ये जुमला मैंने तब ही सीखा था और गाहे ब गाहे ये तब से मेरी आदतों में शुमार हो गया .


अगले दिनों का घटनाक्रम :

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शिक्षा निदेशालय से स्कूलों में छात्र संघ के लिए नया विधान बनकर आया था और उसके अनुसार वैस्टमिन्स्टर मॉडल को अपनाया गया था . इस विधान के अंतर्गत प्रधानाध्यापक पदेन अध्यक्ष और अन्य छात्र प्रतिनिधि चुने जाने थे .

देश में उस समय जवाहरलाल नेहरू प्रधान मंत्री थे और शायद डाक्टर राजेन्द्र प्रसाद का कार्यकाल पूरा हो गया था तथा डाक्टर राधाकृष्णन राष्ट्रपति बने थे . इसी प्रणाली की सीख विद्यार्थियों को दी जानी थी . इंग्लैण्ड में जैसे राष्ट्राध्यक्ष निर्वाचित नहीं होता वैसे ही प्रधानाध्यापक जी को ये दर्जा पदेन दिया गया था . कक्षा प्रतिनिधियों और मंत्रिमण्डल का निर्वाचन होना था . अनुशासन बना रहे इस नाते अध्यक्ष पद प्रधानाध्यापक को दिया गया था . सब बातों की एक बात ये कि निर्वाचित छात्र संघ / छात्र संसद में सब से चमकदार पद प्रधान मंत्री का था .


जिस से मैं चकित हुआ :

~~~~~~~~~~~~~~~ छात्र संघ के चुनावों के बारे में मैंने नोटिस बोर्ड पर नोटिस तो देखा था पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया था . मेरी कोई निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं थी . ऐसी महत्वाकांक्षा न तब थी और न आज दिन तक कोई है . पर हालात मुझे ठाला बैठने नहीं दे रहे थे .


एक दिन सोहन लाल जी माट साब , जो हमें नागरिक शास्त्र पढ़ाया करते थे और छात्र संघ का भी काम देखते थे , मुझे अलग बुलाकर ले गए और ये बोले कि हैड मास्टर साब मुझे प्रधान मंत्री पद पर देखना चाहते हैं . इस पर मैंने अपनी अनिच्छा यह कहकर जताई कि मैं अभी स्कूल में नया नया हूं और कोई चुनाव लड़ने का इच्छुक इसलिए नहीं हूं कि मुझे जानने वाले छात्र भी अधिक नहीं हैं . पर हैड माट साब की इच्छा , जो सोहन लाल जी माट साब के माध्यम से ही व्यक्त हुई थी , के समक्ष मुझे झुकना पड़ा . मैंने नामांकन पत्र पर अपनी ओर से सहमति के हस्ताक्षर कर दिए .

आगे मुझे तो ये भी पता नहीं था कि मेरा प्रस्तावक कौन बना और कौन बना समर्थक .

मेरा यह अभिमत कि मेरी कोई ज्यादा जान पहचान भी नहीं है तिस पर माट साब का कहना था ,” उस दिन बोले थे न तुम , तुम को सब जानते हैं .”

मैंने अपनी ओर से माट साब को यह स्पष्ट कर दिया था कि मैं किसी से वोट मांगने नहीं जाऊंगा , कोई चुनाव प्रचार नहीं करूंगा .

इस सब के बावजूद जो परिणाम आया वो था आश्चर्यजनक .


आगे का हाल ~

~~~~~~~~ आखिर छात्रप्रतिनिधियों ने मंत्रिमंडल चुनने के लिए मतदान किया और मतगणना हुई . मैं भी मतगणना के समय उपस्थित रहने को बुलाया गया . 

जहां तक प्रधान मंत्री पद का सवाल था एक नामांकन पत्र और दाखिल हुआ था और वो था मेरी ही क्लास के , लेकिन स्कूल के पुराने छात्र , जॉन फ्रांसिस का . मत गणना के परिणाम आश्चर्यजनक थे .

निर्वाचक मंडल के कुल पच्चीस में से चौबीस वोट मुझे मिले और एक वोट मिला जॉन फ्रांसिस को .

मैं निर्वाचित घोषित कर दिया गया . 

यह पदभार मुझे मिला पर अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी था .

  पिक्चर अभी भी बाकी है ……

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प्रातःकालीन सभा स्थगित.. 

सुप्रभात.

सहयोग : Manju Pandya

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सुमन्त पंड्या

@आशियाना आंगन , भिवाड़ी


#स्मृतियोंकेचलचित्र #उदयपुरडायरी #sumantpandya


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  7 नवम्बर 2015 

संस्मरण की तीसरी कड़ी आज ब्लॉग पर प्रकाशित —

जयपुर 

मंगलवार  ७ नवम्बर २०१७ .

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Sunday, 5 November 2017

लम्बरदार स्कूल की याद -- भाग दो -- उदयपुर डायरी .

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#लम्बरदार_स्कूल_की_याद : भाग दो .


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कल मैंने अपने स्कूल की यादों का सिलसिला शुरु किया था , आज इसे आगे बढ़ाता हूं .

दाखिले की पृष्ठभूमि :


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काकाजी * का ट्रान्सफर  उदयपुर का हो गया था , वो उदयपुर के ट्रेजरी ऑफिसर बनाए गए थे . जीजी जीजाजी और उनके दो बच्चे पहले से ही उदयपुर में थे . बीते सत्र में हम तीन भाई अम्मा के साथ जयपुर में रहकर पढ़ रहे थे , बदले हालात में पूरे परिवार के उदयपुर में जा बसने का निर्णय लिया गया . इसी क्रम में मेरी पांती में उदयपुर का लम्बरदार हायर सैकेण्डरी स्कूल आया दाखिले के लिए , आखिर पढ़ाई तो आगे जारी रहनी ही थी . छोटा भाई पड़ोस के मिडिल स्कूल में भर्ती करवाया गया और बड़े भाई कालेज में .


काकाजी दफ्तर में व्यस्त थे और इसलिए जीजाजी मुझे स्कूल में भर्ती करवाने गए थे . उस समय जीजाजी एम बी कॉलेज में प्राध्यापक थे और जीजी मीरां गर्ल्स कॉलेज में .

लम्बरदार स्कूल की बात :


---------------------------  यह स्कूल हाई स्कूल से हायर सैकेंडरी स्कूल बनाया जा रहा था . नए कोर्स के हिसाब से तीन वर्ष के हायर सैकेंडरी कोर्स की दसवीं कक्षा के लिए मेरा प्रवेश आवेदन पत्र था जो हैड माट साब के विचाराधीन था .

दो प्रकार की दसवीं क्लास .


----------------------------- दसवीं क्लास के भी कई सैक्शन थे उनमें वो भी थे जो पिछली मैट्रिक परीक्षा में फेल विद्यार्थी थे और पुराने पाठ्यक्रम से ही फिर पढ़ाई कर रहे थे . इनमें कुछ एक बहुत अच्छे खिलाड़ी भी थे और वो भी स्कूल के लिए कीमती थे . उनका डील डोल ही हैड माट साब के ध्यान में था और इसलिए वो मुझे एक कमजोर लड़का मान रहे थे .

कैसे माने हैड माट साब ..


~~~~~~~~~~~~~~  जब हैड माट साब ने मुझे फिर से नवें दर्जे में भर्ती करवाने की बात की तो जीजाजी ने एडमिशन फॉर्म के साथ नत्थी नवें दर्जे की मार्कलिस्ट को उनके सामने रखा जिसमे प्रथम श्रेणी , कक्षा में पहला स्थान और अधिकांश विषयों में विशेष योग्यता का उल्लेख था .


आखिर हैड माट साब मान गए और मेरा दाखिला हो गया . मैं अपनी पढ़ाई में लग गया . मेरी ज्यादा  कोई जान पहचान नहीं थी मैं स्कूल में नया नया था , लेकिन तभी एक अवसर आया , ऐसा आया कि लोग मुझे जानने लगे . क्या था  वो अवसर वही  बताने जा रहा हूं . ये केवल तब की बात नहीं है ये तो अब की भी बात है कि कोई कारण बन जाता है ऐसा कि अनायास बहुत से लोगों से जान पहचान हो जाती है .

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी .


-------------------- ये ही कोई अगस्त का महीना रहा होगा . भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को  लम्बरदार स्कूल में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाने वाला था और मैं भी उसमें भाग लेने के लिए घर से  निकला था और यह विचार करता जा रहा था कि इस उत्सव में मेरी भागीदारी क्या हो .


हम लोग तब भूपालपुरा में बाबूजी बोहत लाल धाकड़ के मकान में किराए पर रहा करते थे , वहां से चेटक सर्किल के पास स्कूल पहुंचने के लिए मीरां  गर्ल्स कालेज याने रेजीडेन्सी के अहाते से होकर भी सीधा रास्ता जाता था ,मेरा  मन किया और मैं उसी रास्ते से गया . इसी परिसर के अहाते में स्टाफ क्वार्टर भी थे जिनमें जीजी जीजाजी रहा करते थे  . स्कूल जाते हुए मैं उनके पास पहुंचा और ये इच्छा प्रगट की कि मैं स्कूल के इस आयोजन में एक भाषण देवूं .


सुबब सुबह का समय था , जीजी जीजाजी दोनों ही मुझे भाषण के लिए  बिंदु बताने लगे और विभिन्न सुझाव देने लगे . श्री कृष्ण की बाल लीला, उनका सखा रूप , उनकी रास लीला और अलौकिक प्रेम , उनका दार्शनिक रूप , उनका राजनीतिज्ञ रूप इन सब के उदाहरण भी बताए और इस प्रकार भाषण की रूपरेखा सुझा दी दोनों ने मिलकर .


पूरा भाषण लिखने बांचने का तो समय नहीं था लेकिन बातें मुझे कहने लायक समझ में आ गई थीं . मैं स्कूल चला गया और उत्सव में भाषण देने के लिए अपना नाम दर्ज करवा दिया .

उत्सव का परिदृश्य :


~~~~~~~~~~~~ लम्बरदार स्कूल परिसर में एक बड़ा बगीचा था जिसमें एक पक्की स्टेज बनी हुई थी .आयोजक  और विशिष्ट व्यक्ति स्टेज पर बैठे थे और सारा विद्यार्थी समुदाय बाग़ में बिछायात पर , इसी समुदाय का मैं भी एक हिस्सा था . संगीत के लिए साज और माइक का भी इंतजाम था , मुख्य रूप से भजन गए जा रहे थे .


  मैं भी इस आयोजन के दौरान स्टेज पर बुलाए जाने का इंतज़ार कर रहा था . आखिर मेरा भी नाम पुकारा गया और मैं माइक के पास पहुंचा . पैरों में थोड़ी कंपकंपी थी पर मैंने उसपर जल्द काबू पा लिया और जो विचार मेरे ध्यान में  थोड़ी देर पहले कायम हुए थे उनके आधार पर  अवसर के अनुकूल भाषण दे डाला . अपनी भूमिका पूरी हुई जानकार स्टेज से उतरने के लिए सीढ़ियों की ओर बढ़ने लगा . वहां  मंचस्थ व्यक्तियों में बीचों बीच हैड माट साब बैठे हुए थे , उन्होंने मुझे रोका और मेरी पीठ पर हाथ रख दिया .


मैंने अपने जीवन में उस दिन पहला एक्सटेम्पोर भाषण दिया था .


ऊपर भूमिका पूरी होने की बात आई है , मुझे उस दिन सुबह पता नहीं था कि वास्तव में भूमिका तो उस दिन नए सिरे से प्रारम्भ हो रही थी .


बचपन की इन मीठी यादों को सहेजते हुए .


~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~  * काकाजी ~ हमारे पिता जी .


सुप्रभात .


प्रातःकालीन सभा स्थगित ….


विशेष उल्लेख : Manju Pandya


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सुमन्त पंड्या.


@ आशियाना आंगन , भिवाड़ी.


6 नवम्बर 2015.


#स्मृतियोंकेचलचित्र    #उदयपुडायरी  #sumantPandya

संस्मरण  की। ये दूसरी कड़ी आज ब्लॉग पर प्रकाशित -

जयपुर 

  सोमवार   ६  नवम्बर  २०१७ .

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Saturday, 4 November 2017

लंबरदार स्कूल की याद  — भाग एक —उदयपुर डायरी .

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     #लम्बरदार_स्कूल_की_याद : भाग एक .#स्मृतियोंकेचलचित्र #उदयपुरडायरी #sumantpandya

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बचपन में कक्षा दस और थोड़े समय कक्षा ग्यारह में मैं उदयपुर के ऐतिहासिक लम्बरदार हायर सैकेण्डरी स्कूल में पढने गया , जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो उस दौर की एक एक बात याद आती है . किस तरह वहां मेरा दाखिला हुआ और कैसे वो स्कूल मुझे अगले सत्र के बीच में छोड़ना पड़ा उस बारे में एक एक बात याद आती है और कुछ बातें याद करके तो मुझे आज दिन तक आश्चर्य होता है . उस दौर के सहपाठी दोस्तों को मैं आज दिन तक याद करता हूं . उस दौर के साथियों में से एक स्कूल की पढ़ाई के कोई एक दशक बाद फिर मिले थे जो अब भी मेरे संपर्क में हैं , वो खुद ही मेरी समझ से बोल पड़ेंगे जब ये यादगार सिलसिला आगे बढ़ेगा .

उस दौर के मेरे अध्यापकों और प्रधानाध्यापकों को आज दिन तक याद करता हूं , कुछ एक से बाद में मिलना भी हुआ . कैसे अलग थे वो लोग , किस मिट्टी के बने थे वो लोग , आज स्कूल शिक्षा और ख़ास तौर से सरकारी स्कूलों के हाल बेहाल देखकर मुझे बरबस वे दिन और वे लोग याद आ जाते हैं .


और भी संस्मरण हैं बताने लायक : पर अभी नहीं .

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किस तरह मैं राजनीतिशास्त्र विभाग में पढ़ने गया वो भी कोई कम रोचक कहानी नहीं है पर वो अगले दौर में आ ही जाएगी , अभी तो लम्बरदार स्कूल की ही बात करते हैं , उस दौर की स्कूल शिक्षा की ही बात करते हैं .


वर्ष उन्नीस सौ बासठ की बात ~

--------------------------------- कुछ दिनों पहले मैंने अपनी वो तस्वीर अपनी फेसबुक दीवार पर इस आशय से टांकी थी कि स्कूल के जमाने के मेमोयर्स लिखूंगा, वो तस्वीर जो पहली बार बोर्ड परीक्षा के फार्म में चिपकाई गई थी . पर शायद वो फजूल की लगाईं उसमें तो मैंने कोट पहना हुआ है और उस बात की कोई विशेष पुष्टि नहीं होती जो मैं बताने जा रहा हूं . जब वो बात खुलेगी तो आप भी बोलोगे ,” ऐसा भी होता है !”

उदयपुर के लम्बरदार स्कूल में दाखिले की नौबत क्यों आई ये भी बताना पड़ेगा पर अभी हाल सीधे हैड मास्टर साब के कमरे की घटना पर आ जाते हैं . बात सत्रारम्भ जुलाई उन्नीस सौ बासठ की है ~~~~


प्रवेश आवेदन ~

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तत्कालीन लम्बरदार हायर सैकेंडरी स्कूल के बड़े से प्रवेश द्वार में घुसते ही दायें हाथ को ऊंचे से लंबे चबूतरे पर पहला ही कमरा हैड मास्टर साब का था , श्री गोपाल लाल शर्मा हैड मास्टर थे , जीजाजी मुझे स्कूल में दाखिल करवाने गए थे . कक्षा नौ की अंकतालिका और कक्षा दस में दाखिले का फ़ार्म हैड मास्टर साब की टेबिल पर था . मैं हैड मास्टर साब की टेबिल के नजदीक एक स्टूल पर बैठा , एकदम जैसे डाक्टर को दिखाने के लिए मरीज बैठता है . उन्होंने फ़ार्म देखा और मुझपर नजर डाली और एक बार को जो निर्णय सुना दिया उससे तो मेरा उत्साह ही ठंडा पड़ गया . हैड माट साब बोले :


“ इसे मैं नवें दर्जे में ही दाखिला दे पाऊंगा , इतना कमजोर बच्चा दसवें दर्जे की पढ़ाई कैसे कर पाएगा …. .? “


असल में दसवें की पढ़ाई के लिए लडके को जैसा हृष्टपुष्ट होना चाहिए था उस मानक से मैं तो बहुत दूर था .

बात थोड़ी लंबी चली हैड माट साब और जीजाजी के बीच और कैसे पसीजे हैड माट साब ये भी बताऊंगा , असल में उस समय उस स्कूल में दसवां दर्जा भी तो दो तरह का होता था तो डील डौल में तो दसवें दर्जे लायक लड़कों में मैं कहां ठहरता इसलिए हैड माट साब जो बोले वो समझ में आता है .


वे दिन और वे लोग बहुत याद आते हैं . उन दिनों को याद करते हुए..

प्रातःकालीन सभा स्थगित…

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  सुमन्त पंड्या   

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  आप की सुविधा के लिए साझा करने का प्रयास जीवन संगिनी 

 Manju Pandya #मंजु


   @ आशियाना आंगन, भिवाड़ी .

    5 नवम्बर 2015 .

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आज ब्लॉग पर प्रकाशित —

जयपुर 

रविवार ५ नवम्बर  २०१७ .

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