Friday, 10 March 2017
विश्वविद्यालय से लेखानुभाग़ तक : बनस्थली डायरी .
विश्वविद्यालय से लेखानुभाग तक :
मेरी पिछली पोस्ट में बात मेरी अटकती कलम से शुरु होकर लेखानुभाग पर ख़त्म हुई थी , वो बात तो अभी चलेगी लेकिन आज एक और प्रसंग पर चर्चा जो रोचक भी है और कुछ हद तक प्रासंगिक भी .
सन 2000 में शताब्दी तो बदल ही रही थी सहस्राब्दी भी बदलने जा रही थी . भारत के संविधान के पचास वर्ष पूरे हो गए थे और संविधान संशोधन परिवर्तन जैसे मुद्दे अकादमिक जगत में सेमीनार का विषय बनाए जा रहे थे . इसी क्रम में राजस्थान विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग ने भी एक सेमीनार का आयोजन किया था और मैं भी उसमे भागीदारी करने गया था . जयपुर जाना और बोलना मुझे अच्छा लगता था सो गया और विश्वविद्यालय के आयोजन में व्यस्त रहा . वहां अब कमल साब , जो मेरे जमाने के टीचर थे अब विश्विद्यालय के कुलपति थे , मुझसे पूछने लगे : सुमन्त , इतने दुबले कैसे हो गए ? मैं बोला: सर , देश की तो ऐसी हालत हो रही है और आप मुझसे पूछ रहे हैं कि दुबले क्यों हो गए . तब तो दोपहर के भोजन का समय था बात आई गई हो गई . शाम के सत्र में मुझे भी भागीदारी करनी थी पर मेरा नम्बर आ पायेगा ऐसा मुझे लगा नहीं , वहां युवक युवतियों में अपना अपना पर्चा लगवाने की होड़ थी ताकि उनके केरियर में उसे गिनाकर कुछ इज़ाफ़ा हो . मेरा तो पेपर भी छपकर तैयार नहीं था , बदले समय में मुझे जानने वाले यहां कम रह गए थे . पेपर लगाकर श्रेय लेने की कोई जरूरत भी अब मुझे नहीं रह गई थी . मैं तो शांतिपूर्वक सब कुछ सुन रहा था कि अचानक सदारत कर रहे प्रोफ़ेसर साब ने मेरा नाम पुकारा, मैंने अनिच्छा व्यक्त की तो भी वो बोले कि मैं मंच पर आकर कुछ तो बोलूं ही . खैर उनके आग्रह पर मैं गया भी और बोला भी . बोलने को विषय तो अब रीत गया था पर मैं देश में बढ़ रही माफ़िया की भूमिका पर बोला , संविधान की लिखत और जमीनी सचाई के बाबत बोला . मेरा कहना था कि आप करते रहिये संविधान की लिखत पर चर्चा देश तो माफिया चला रहा है जिसे इस सब से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं . धन बल और भुज बल के आगे सब तो नत सिर हैं .
और इस प्रकार अपनी बात को दोपहर कमल साब से हुई बात को दोहराते हुए समाप्त किया कि कोई तो हो जो देश के लिए दुबला हो !
सेमीनार तो हो गया , घर लौटा तो अम्मा ने कहा कि मैं दोनों दिन या शायद तीन दिन घर में तो रुक ही नहीं पाया सुबह से ही विश्वविद्यालय चला गया अतः अब एक दिन के लिए मुझे घर में भी रुकना चाहिए , खैर मैं एक दिन के लिए और घर में रुका और लौटकर बनस्थली पहुंचा . लौटने के बाद की दो बातें उल्लेखनीय हैं जो मैं यहां कहना चाहूंगा .
1. एकेडेमिक लीव के साथ कैजुअल लीव नहीं जोड़ी जा सकती अतः सवाल था कि एक और दिन की छुट्टी का क्या हो जो मैंने बढ़ाई थी ? दफ्तर वालों का सुझाव था कि एक दिन की बीमारी की छुट्टी मांग ली जाए जो नियमानुसार स्वीकार्य होगी . पर मेरा कहना था कि मैं बीमार हुआ ही नहीं था तो ऐसा क्यों करूं . दूसरा उपाय था कि मैं चित्रा जी से मिलकर अवकाश की विशेष स्वीकृति प्राप्त कर लूं , जो उस समय विद्यापीठ की निदेशक थीं . मैंने तीसरा विकल्प चुना और वह था कि अपना अवकाश का आवेदन निदेशक कार्यालय को विधिवत भिजवा दिया और वह कुछ समय बाद स्वीकृत होकर आ भी गया और वह बात पूरी हुई .
2. दूसरी बात जो अनायास हुई वो यह कि एक दिन मैं लेखानुभाग में तब के डिप्टी रजिस्ट्रार द्विवेदी जी के सामने बैठा था कि कोई टी ए बिल के भुगतान का मुद्दा आ गया जो विज्ञान संकाय के एक प्रतिष्ठित विभाग से सम्बंधित था और उस मामले में क्या देय है और क्या अदेय है इसकी व्याख्या चल रही थी .
वहां पता चला कि यू जी सी की अन असाइंड ग्रांट के नाम पर अब तो सदावर्त्त खुला हुआ है और ऐसी सेमिनारों में भागीदारी का टी ए डी ए उस के प्रावधान से मिल सकता है . मैं भी एक नेशनल सेमीनार में जाकर आया था लेकिन खर्च की पूर्व स्वीकृति नहीं ली गई थी , लेखानुभाग के लोगों का सुझाव था कि यदि मैं भी चाहूं तो सेमीनार में भागीदारी का टी ए डी ए अब स्वीकृत हो सकता है . ले दे कर मैं एक ही तो सेमीनार में तब जाकर आया था मैंने उसके बाबत आवेदन लगा दिया . तत्काल ही केंद्रीय कार्यालय से मुझे उस बाबत स्वीकृति मिल गई . इस प्रकार के बिल बनाना मैं कभी सीख नहीं पाया था और इस लिए स्वीकृति का पत्र , भागीदारी का प्रमाणपत्र और अन्य कागजात लेकर मैं वाणीमन्दिर पहुंचा जहां मेरे मित्र सुरेन्द्र मिश्रा सहायक रजिस्ट्रार थे , अब भी वहीं हैं, उनसे सहायता मांगी कि वे मेरा बिल बबवा देवें . मैंने उनके बाबू लोगों को कहा कि घर जाने के लिए तो कोई खर्चा नहीं चाहिए पर एक जूता जोड़ी नई लाया उसका मोल मिल जावे इतना बिल बन जावे .
यहां जूता जोड़ी की बात भी स्पष्ट करता चलूं . जिस दिन जयपुर में अतिरिक्त रुका तो उदय बोला कि बाटा का एम्बेसेडर शू पांच सौ रुपये में सेल में मिल रहा है और आप भी ले लेवो . खैर इस जूते को मैं भी पसंद करता था सो ले आया था . वैसे तो मैं सामान्यतः फुटपाथ पर बिकने वाली देशी जोड़ी ही बनस्थली में पहनता था पर उन दिनों वह नई जोड़ी पहन रहा था .
खैर अब बाबूलोग मेरा बिल बना रहे थे और उसमे कोई बढ़ाचढ़ाकर राशि नहीं डाली गई पर बिल जूते की लागत के बराबर पांच सौ का बन गया था. बिल स्वीकृति के लिए गया , स्वीकृत होकर आ गया और मुझे उसका भुगतान भी मिल गया . आते जाते मैं सामान्य रूप से लेखानुभाग का और विशेष रूप से द्विवेदी जी का आभार भी व्यक्त कर आया इस बिल के भुगतान के बाबत .
एक दिन लेखनुभाग में द्विवेदी जी से जो संवाद हुआ वो बड़ा रोचक था :
~ ये वही जूता है सुमन्त जी ?
* जी हां वही है , जिसका भुगतान आपने दिलवाया था .
~~ मुलायम है ... ?
* जी हां सॉफ्ट है , कम्फर्टेबल है . पर आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं ?
द्विवेदी जी ने सवाल फिर दोहराया और जानना चाहा कि जूता मुलायम है कि नहीं .
मैंने जानना चाहा कि बार बार ये सवाल क्यों पूछ रहे हैं तो द्विवेदी जी ने मुझे यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि :
~ आखिर झेलना तो हमें ही पड़ता है !
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