Wednesday, 29 March 2017

चक्की की कहानी : बनस्थली डायरी। स्मृतियों के चलचित्र ।



https://instagram.com/p/BSNbwMaAKAx/

चक्की बाबत ये तो है वीडियो लिंक और अब शुरू होती है इस चक्की की कहानी :  

जब हमलोग बनस्थली के रवीन्द्र निवास में रहा करते थे और निवाई आया जाया करते थे तब की बात है । वहां रामेश्वर जी हैड़ माट साब के ड्राइंग रूम में मैंने और व्यास जी ने ऐसी चक्की रखी देखी थी ।  एक बड़ा छोटा सा उपकरण जो घरेलू आटा चक्की के रूप में काम करता है जानकर हमें बहुत ख़ुशी हुई  । हम दोनों ही दोस्त  इस चक्की पर लट्टू हो गए थे उस दिन तो  । हैड माट साब बताने लगे  कि उनके लिए  तब पांच किलो अनाज भी उठाकर ले जाना और चक्की पर पिसवाकर  लाना कठिन होता था और ऐसे में उन्हें इस उपकरण  से बड़ी सुविधा रही  । व्यास जी से टेंडर मिलने पर  उनको तो  हैड माट साब ने वैसी ही एक चक्की जयपुर से मंगवाकर  दे दी  । उनकी चक्की बनस्थली पहुंच  गई  । मैंने हैड माट साब पर ये भार नहीं डाला और अपने से चक्की जुटाने का निर्णय  लिया  ।

क्यों चाहिए थी चक्की  ?

हम लोग ग़ांव देहात में रहे थे , ये नब्बे के दशक की बात है । तब आजकल की तरह आटे के बैग नहीं ख़रीदे जाते थे । हम लोग साल भर के लिए इकठ्ठा अनाज ख़रीदा करते थे और जैसे जैसे ज़रूरत पड़ती  ग़ांव में लूनिया की चक्की से अनाज पिसवा कर लाया करते थे । इस सब में कम से कम मुझे तो बहुत कष्ट होता था । इसलिए ये उपकरण मुझे भी ज़च गया और सर्वानुमति से ये तय हुआ कि एक चक्की अपण भी ख़रीदेंगे ।

तब हमलोग जयपुर में अपने शहर वाले घर में रहा करते थे । चक्की बनस्थली ले जाने के लिए चाहिए थी पर खोज जयपुर में ही शुरु हुई और उसका पहला ट्रायल भी जयपुर में  ही  हुआ था । उन दिनों सुरेश मदान त्रिपोलिया बाजार में इलेक्ट्रानिक सामानों की दूकान किया करता था ।  उसने कहते ही हमारे घर , नाहरगढ रोड ये चक्की भिजवा दी थी । मुझे आज भी याद है पहली बार इस चक्की से मोटा आटा पीसकर हलुआ बनाया गया था और भगवान जी के भोग भी लगाया गया था ।

तब की एक मज़ेदार बात बताऊं । चक्की आई उसके बाद कम्पनी का मैकेनिक ट्रायल ड़िमोंसट्रेट करने आया था तो वो मुझे पीछे हटाता और जीवन संगिनी को कहता ,"  आप आगे आओ , आप देखो !"  वही सोच कि ये घरेलू काम महिला का है । ये ल्लो पगले को ये अन्दाज़ भी नहीं था कि चक्की तो मुझे चलानी थी और आज दिन गर्व से कहता हूं मुझे बीस बरस से अधिक हो गए सफलता पूर्वक चक्की चलाते ।



( ये फ़ोटो तो मैंने फ़ाइल से लेकर ऐसे ही यहां जोड़ दी है कि जब मैं चक्की के काम में लगता हूं तो कैसे लगता हूं , आप देख लेवें । फ़ोटो २००९ का है , गुलमोहर का । )

चक्की अम्मा को पसंद आई :

---------------------------      ये चक्की जब आई तो अम्मा को बहुत पसंद आई । अम्मा के पास अपनी  बड़ी बढ़िया हाथ की चक्की थी पत्थर के पाटों और सीमेंट के गरंड वाली जिसकी भोर में चलने वाली आवाज़ तो मेरी बचपन की यादों में बसी है । पर ये ही तो ख़ास बात थी अम्मा की अम्मा ने इस नए ज़माने की चक्की को स्वीकार किया और बहुत सराहा । 

उदय भैया को इस चक्की का मोटा आटा इसलिए बहुत अच्छा लगता कि वो अपनी मम्मी से इस आटे से उत्तपम बनाने की फ़रमाइश करता । बहरहाल जितनी देर चक्की चलती अम्मा पास बैठती ये मुझे आज भी याद आता है ।  चूरमा और बाटी के लिए ख़ास आटा तो क्या ही ज़ोरदार तैयार होता इस चक्की से । ये उपयोग यहां  जयपुर में भी हुआ और आगे जाकर बनस्थली में भी जो आगे बताऊंग़ा ही आपको ।

चक्की का यातायात :

---------------------     चक्की आई तो जयपुर में थी और ज़ाणी थी बनस्थली  इसलिए ये ज़िम्मेदारी हिमांशु को सौंपी गई कि वो इसे बनस्थली पहुंचाए । हिमांशु उन दिनों जयपुर में रहकर पढ़ता था और यदा कदा बनस्थली जाता था । अगले फेरे में वो जय भैया के दोस्त वीरू उर्फ़ इक़बाल की ठेली से चक्की सिंधी कैम्प बस स्टैंड ले गया । वहां बुकिंग खिड़की पर फिर दिक़्क़त दरपेश । बुकिंग क्लर्क कहवे  कि चक्की बस में नहीं ले जा सकते । बस के साथ कंडक्टर कहीं समझदार था  और वो था बनस्थली का ही लड़का प्रमोद । उसने तजवीज़ दी कि ये कोई चक्की है ही नहीं  , ये तो मशीन है छोटी सी । लगेज टिकिट बणा दिया और चक्की का लदान हो गया सफलता पूर्वक । अब तो चक्की को पहुँचना ही था बनस्थली ।

चक्की के बनस्थली पहुँचने पर कैसा हर्षोल्लास का वातावरण था ! ये किसी भी रूप में उससे कम  नहीं था जो पहली बार टी वी और वो भी कलर टी वी आने पर बना था ।

मेरा नास्टेलजिया :

-------------------  

छोटे छोटे स्मृतियों के चलचित्र हैं जो आपके सामने प्रस्तुत करता हूं । इस चक्की से नियमित गेहूं तो पीसा ही गया इसके अलावा बेजड़ , बाजरा , ज्वार , मक्का और स्वतंत्र रूप से चना दाल की भी पिसाई हुई । कुछ बातें संक्षेप में :

१.

चक्की आने के बाद हमारा स्टाइल था कि नया अनाज ख़रीदने से पहले सैम्पल के लिए पनसेरी अनाज ख़रीदते और उसे पीस और उसकी रोटी बनाकर परीक्षण करते  फिर ख़रीदते अनाज की बोरी क्विंटल या दो क्विंटल । ये आइडिया मोहल्ले में लोकप्रिय हुआ । एक बार श्याम जी ने भी सैम्पल गेहूं पिसवाया । मैंने आटा उनके घर पहुंचा दिया तो श्याम जी लौटकर आए ये कहने को ," भाई साब काटो तो काट लेता ।"  माने ये कि हम भी उसे बरत कर देखने को थोड़ा आटा रख लेते । ख़ैर वो भी हुआ और फिर तो श्याम जी भी एक दमदार चक्की ले ही आए ।

२.

एक्सपोर्ट क्वालिटी का दलिया तैयार हुआ इसी चक्की से । कब ? एस एस गुप्ता साब और भाभी जी विशाखा के पास रहने को अमरीका जा रहे थे । बेटी की जचगी का समय आने वाला था । भाभी जी ने साथ ले जाने को दलिया इसी चक्की पर तैयार करवाया  और ये लोग अमरीका लेकर गए  ।

३.

एक दिन चक्की वाले लूनिया ने टोका  , " आजकाल तो आओ ही क़ोनै  ?" माने आजकल तो आते ही नहीं हो ।

और मैंने गर्व से कह दिया :" थे भी चक्कीआळा  म्हे भी चक्की आळा  अब घरां ही चक्की छै ज़द काँ बेई आवां ?" माने आप भी चक्की वाले हम भी चक्की वाले , जब हमारे घर ही चक्की है तब क्यों आवें भला ?    पर लूनिया से तो अपना याराना था जो बरक़रार रहा । उसमें कोई फरक नहीं आया ।

अभी तो चक्की से जुड़े प्रसंगों पर और भी कई स्मृतियों के चलचित्र साझा करने हैं आपसे जो दूसरे खंड में ही बता पाऊँगा ।

जीवन संगिनी का यह भी सुझाव है कि स्टोरी बराबर से फ़ेसबुक पर भी आनी चाहिए , लोगों को ब्लॉग खोलने में कठिनाई होती है । इसका भी उपाय करूंग़ा ।

अभी हाल के लिए प्रातःक़ालीन सभा स्थगित ....  

डूंगरपुर

मंगलवार २ मई २०१७ ।

------------------------------- 

No comments:

Post a Comment