Saturday, 11 March 2017

बैचरर्स किचन : बनस्थली डायरी

बातें बनस्थली की : बैचलर्स किचन .  #बनस्थली डायरी #स्मृतियोंकेचलचित्र

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आज की तारीख में विनीत कुमार लन्दन पहुंचा हुआ है वैसे वो बैचलर्स किचन का मास्टर शैफ़ है और इस बाबत खूब लिखता है .

इधर मुझे लगा कि क्यों न इस प्रसंग में मैं अपने खट्टे मीठे अनुभव जोड़ कर एक पोस्ट बनाऊं सो ये ही किस्से लिखने बैठा हूं .

(1)

परनामी और गौतम के साथ :

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अंग्रेजी विभाग के परनामी और गौतम दो युवा प्राध्यापक उन दिनों मेरे साथी थे . परनामी का तो तब तक  विवाह ही नहीं हुआ था , मुसीबत का मारा गौतम अपनी पत्नी और बेटी को मां बाप के पास छोड़ आया था और उसके घर में रोटियों का कोई इंतजाम ही नहीं था .

परनामी की छोटी बहन साथ रहती थी पर शायद उस दिन वो भी बाहर गई हुई थी .

मेरे कब्जे में 44 रवीन्द्र निवास था और उस दिन तो रसोई पर भी मेरा एकाधिकार था , जीवन संगिनी वहां नहीं थी , अब ये याद नहीं कि वो जयपुर आई हुई थी या अलवर गई हुई थी . बहर हाल हम तीन साथी छड़े और अपने भोजन का इंतजाम करने को स्वतन्त्र थे , कहिए मजबूर थे .

कैसा विरोधाभास है हमारी स्वतंत्रता ही हमारी मजबूरी थी .

ऐसे में परनामी और गौतम ने घोषणा कर दी :

"सुमंत के  यहां चलते हैं , वहां चलते हैं , वहीँ खाना बनाएंगे और खाएंगे ."

मुझे ऐतराज ही क्या हो सकता था , दोनों यार अलग विषय के चाहे रहे हों , हम लोग एक ही विश्वविद्यालय के पढ़े हुए थे और एक ही  परिसर में काम करने आ गए थे . तो साब हम आ गए 44 रवीन्द्र निवास में . अब संसाधन मेरे थे और रोटी सब्जी  तैयार करने की भूमिका बाकी दोनों की .

गौतम ने सब्जी का जिम्मा लिया और परनामी ने रोटी का . उस दिन सब्जी के नाम पर गाजर और मटर ही घर में उपलब्ध थे , आलू जैसा कोई पदार्थ घर में नहीं था इस बाबत दोनों ने मुझे धिक्कारा पर शाम पड़े अब क्या हो सकता था . वो इसी की सब्जी बनाने लगे .

उन दिनों डालडा नाम का बनस्पती घी घर में पाया जाता था , था घर में उपलब्ध , मुझे सब्जी में डालडा बरतने के सुझाव पर कंजूस घोषित करते हुए दोनों ने देशी घी में ही सब्जी बनाने का निर्णय लिया . सरसों के तेल का प्रस्ताव भी गिर गया . मेरा हर प्रस्ताव दो तिहाई  बहुमत से गिरता रहा और सब्जी भी देशी घी में ही बनी आखिरकार .

देशी घी : उन दिनों देशी घी चौबीस रूपए का दो किलो आने लगा था और ठाकुर अभय सिंह जी मुझे वक्त  जरूरत अपने घर या पड़ोस से ला दिया करते थे .

डब्बा भरा रखा था और यार लोग इसे बरतने को उद्यत थे .

सतपुड़ा के परांवठे :

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परनामी ने आटा लगाया और साधारण रोटी बनाने का विचार रद्द करते हुए  सतपुड़ा के परांवठे बनाने का संकल्प व्यक्त किया जो ऐसे बने जैसे आज कल होटलों में लच्छा परांवठा मिलता है उसका बाप !

लोया रोटी की तरह बेल कर उसको घी से चुपड़ा गया . बीचों बीच से शुरू कर परिधि की  और कुरचे से काटा गया और फिर इस तरह रोल किया गया कि बार बार घी लगाकर बेलने पर उसके सात परत बन गए और जब घी की सहायता से लोहे के तवे कर सेका गया तो सुन्दर परांवठा तैयार हुआ .

यही प्रक्रिया दोहराते हुए परनामी ने पर्याप्त मात्रा में सतपुड़ा के परांवठे बना डाले .

उस दिन जो विशिष्ट परांवठे बनाना मैंने परनामी से उस दिन सीखा बाद में भाभी जी और जीवन संगिनी के सामने भी बनाकर मैंने प्रदर्शित किया पर उस रात यारों के साथ डिनर का आनंद तो कमाल ही रहा .

भोजन में कंपनी का बड़ा महत्त्व होता है ये बात उस दिन की आकस्मिक परिघटना से सिद्ध हुई  थी .

आज की भोर में ले दे कर ये एक ही किस्सा लिखा जा सका . आगे ऐसे और किस्से आएंगे जिनमें और पात्र भी प्रकट होंगे .

प्रातःकालीन सभा अनायास स्थगित ,

(क्या करें टैम नहीं है .)

इति.

समर्थन और अपार सहयोग : मंजु पंड़्या .

सुमन्त

जयपुर .

25 मई 2015 .

कभी एफ बी के लिए बनाई थी ये पोस्ट  ।  आज सामग्री को क़ुखेरते हुए लगा  इसे ब्लॉग पर जोड़ा जाना चाहिए , ऐसे में इसे ब्लॉग पर टीपने की। कोशिश करूंग़ा .

@ जयपुर   ११ मार्च २०१७ .

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