(1)
मंगलवार का दिन था , सुबह का समय था और मैं जयपुर आया था .
लक्ष्मी मंदिर पर जब बनस्थली से आने वाली बस रुकी तो मैं भी और सवारियों के साथ उतर लिया . आदत से बाज न आना था सो न आया . यूनिवसिर्टी मार्ग आने के लिए रोड़वेज की सिटी बस में सवार हो गया .
सिटी बस का कायदा होता है सवारी बस के पिछले दरवाजे से बस में चढ़े, वहीं कंडक्टर बैठा होता है उससे टिकिट लेवे , आगे के दरवाजे से उतरे .
मेरा बस में सवार होना और टिकिट लेना ये कार्यक्रम तो सही से हो गया संघर्ष तो आगे करना था . मैं आदतन कहा करता था :' मैं चलता हूं तो मेरे साथ सारा देश चलता है .' उस दिन ये बात बहुत शिद्दत से महसूस हुई . मेरे लिए तो मंगलवार का दिन छुट्टी का था मगर जयपुर में तो ये दिन 'कार्य दिवस ' था . सारे जयपुरवासी मानो मेरे सहयात्री बन गए थे. मैंने भरसक प्रयास किया कि यूनिवर्सिटी मार्ग आने से पहले बस के अगले दरवाजे पर पहुंच जावूं पर होनहार को कुछ और ही मंजूर था . जब तक मैं उतार गेट पर पहुंचता बस नारायण सिंह स्टैंड पर पहुंच गई थी . गंतव्य से दूर तो आ गया था पर अब बस मुझे छोड़ने वांछित स्टैंड पर लौटकर तो जाने से रही थी अतः वहीँ उतर गया और सोचने लगा कि अब क्या हो .
अब मैंने दक्षिण दिशा का रुख किया और पैदल पैदल वापिस चल दिया यूनिवर्सिटी मार्ग की दिशा में . बैग कंधे पर लटक रहा था छतरी साथ थी , कुछ देर को छींटे भी पड़ने लगे सो छतरी काम आई . जस तस घर पहुंचा , विलम्ब हो गया था , घर पर अम्मा फिकर कर रही थी . खैर अम्मा की चिंता दूर हुई अब क्या कहता कि क्यों देर हुई .
हमेशा की तरह जब ये बात जीवन संगिनी को बताई तो उन्होंने अपना विचार कहा और उचित ही कहा," लक्ष्मी मंदिर उतर कर रिक्शा नहीं ले सकते थे , बस में बैठने की जरूरत ही क्या थी ?"
(2)
ये शाम को जयपुर पहुंचने का प्रसंग है . हमेशा की तरह लक्ष्मी मंदिर पर बनस्थली की बस से उतरा . उस समय एक प्रायवेट मिनी बस राम बाग़ की दिशा में जाने को खड़ी हुई थी , भीड़ भी नहीं थी और कम से कम वहां से तो बस के रवाना होने की ही तैयारी दीख रही थी सो मैं उस बस में चढ़ गया . मेरे बाएं कंधे पर हमेशा की तरह मेरा बैग लटक रहा था और बाकी आपात स्थिति से निपटने को मेरा बांया हाथ खाली था .
मैं बामुश्किल बस में चढ़ा होऊंगा कि ड्राईवार ने बस चला दी . मुझे औसाण आ गया और मैंने बांये हाथ से ही लग्गा पकड़ लिया पर मेरा बैग कंडक्टर के सिर से बुरी तरह टकराया और उसके सिर में बिजलियां चमक गयीं . गलती ड्राईवार की भुगतना पड़ा कंडक्टर को . मैं तो खैर बच गया वरना गिर भी सकता था . उस क्षण जो संवाद हुआ वह उल्लेखनीय है .
कंडक्टर बोला:
"मारोगे क्या बाबू जी ?"
" मरेंगे तो बाबूजी , पर जाएंगे तेरे ही कंधे पर ."
मैं बोला था और भी बोला :
" कम्बखत ऐसे मोटर चलाते हैं क्या ? मुझे साबुत , वन पीस यूनिवर्सिटी मार्ग पर उतार देना , तुम लोगों को मोटर हांकने की बड़ी जल्दी रहती है !"
यूनिवर्सिटी मार्ग पर ड्राइवर और कंडक्टर दोनों अलर्ट रहे . कंडक्टर युवक मुझे उतारने को खुद बस से उतरा और ड्राईवर ने भी मेरे सुरक्षित उतरने तक बस रोके रखी .
मैं उस रात सुरक्षित अपने घर बापू नगर शिवाड़ एरिया पहुंच गया .
सतत समर्थन : Manju Pandya
#सिटीबसमेंयात्रा
सुप्रभात
Good morning.
सुमन्त .
आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
26 मार्च 2015
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गुलमोहर , जयपुर से सुप्रभात 🌅
नमस्कार 🙏
किस्सा ब्लॉग पर दर्ज किए देता हूं ।
रविवार 26 मार्च 2017 ।
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इन क़िस्सों को आज फिर आपकी नज़र में लाया हूं ।
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