Wednesday, 31 May 2017

इनबॉक्स में अंट संट : फ़ेसबुक लीला :स्मृतियों के चलचित्र 

इन बॉक्स में अंट संट 

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मैसेंजर और इन बॉक्स का निमित्त ये है कि आप किसी को बंद लिफ़ाफ़े में पत्र भेज सकते हैं , ऐसे अनेक सन्देश मुझे भी प्राप्त होते हैं और पत्र पाकर खुशी होती है . इनमें मेरी प्रिय छात्राओं के सन्देश भी होते हैं जो मैं अपने लिए टेस्टीमोनियल की तरह सहेज कर रखता हूं , अन्यान्य मित्रों के भी सन्देश आते हैं बड़ा अच्छा लगता है . कोई ऐतराज नहीं , लिखा कीजिए अगर आप को जरूरी लगे और खुल्लम खुल्ला लिखें मेरी दीवार पर तो तो क्या ही बात और लोग भी देखें . मेरी तो क्लास के दरवाजे भी सब के लिए खुले होते थे और आज दिन गुलमोहर के दरवाजे भी सब कोई के लिए खुले होते हैं सब का स्वागत . 🌷🌷


तो फिर बात क्या है सुमन्त ?

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 बात होने को तो ज़रा सी है पर जाने क्यों कोई कोई जरा सी बात पे मेरा माथा ठनक जाता है और मैं बिना पूरी बात साफ़ किए ऐसी बात कह डालता हूं जो मेरे अपनों को बुरी लगती है मानों उनको कह दी हो , जैसे मैंने कह दिया 


“, कुछ लोग ऐसे आ घुसे हैं जो न लीपणे के काम के न पोतने के काम के . “ “, गोबर से भी निकृष्ट ! “


ये बात आप में से किसी भी फेसबुक मित्र के सन्दर्भ में नहीं कही गई थी , जिस सन्दर्भ में कही गई थी वही बताता हूं तो बात साफ हो ही जाएगी .

फ्रैंड रिक्वेस्ट आती रहती है , देखता रहता हूं पर हर बखत उस तरफ ध्यान नहीं दे पाता . एक साब रिक्वेस्ट भेजकर चैट पर आ गए , खैर आए अच्छी बात , लिखना आवे नहीं वो भी जाने दो , उल्टी सीधी रोमन में हिंदी लिखें और मुझे उकसावें पूछ लो , पूछ लो करके . खैर मैंने इस बीच उनका प्रोफाइल खोला कुछ कॉमन फ्रैंड देखकर और शकल सूरत ठीक देखकर मैंने रिक्वेस्ट मान ली .

अब भी खुली बात न करके चैट ही करे जाएं , रात बढ़ रही मैं चाहूं बात बंद हो वो टन टनाए ही जाएं और अन्त में उन्होंने अपनी बुद्धि का समग्र परिचय दे दिया , बोले :


“ आय एम ए सैक्सी मैन . “

---------------------- न जान न पहचान और ये बोल बोला सुनकर ऐसा बुरा लगा मुझे के मैं एक शब्द तलाशने लगा कि क्या कहूं इस व्यक्ति के लिए , फिर मुझे चुन्ना भाई की एक पोस्ट में वो शब्द भी मिल गया और अब मैं इस बात को यों कहता हूं :


“ अरे ये सांड कहां से आ गया ? “


ऐसे इक्का दुक्का छोरे छापरे और भी हैं जो इनबॉक्स का इस्तेमाल गैर जरूरी नॉनसेन्स बातों के लिए करते हैं उनको भी चेतावनी दिए देता हूं कि चपक्या रहो न तो स्क्रीन शॉट लगा दूंगा और शांतिप्रिय जरूर हूँ लेकिन ऐसों को घर पे आ के ठोकूंगा अलग से . 

ऐसी बातें थी कि मैंने कहा था ,” न लीपणे के काम के न पोतने के काम के , गोबर से भी निकृष्ट . “

आत्मालाप :

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“ इत्ता गुस्सा , इत्ता हिंसक विचार काहे सुमन्त ? “

वो राजस्थानी सोरठा की अंतिम पंक्ति में कुछ लोगों के स्वभाव के विषय में कहा है न :

“.....पुचकारयां माथै चढ़ै , ठोक्यां आवै काम . “

कुछ लोग ठुकाई , ममाई डिजर्व करते हैं और उनके विशेष सम्मान में लिखी ये आज की पोस्ट .


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सुप्रभात 

सुमन्त पंड्या .

@, गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

    सोमवार 30 मई 2016 .

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आज दिन ब्लॉग पर प्रकाशित :

जयपुर 

गुरुवार १ जून  २०१७ ।

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बात की बात : ई एम एस नम्बूदरीपाद : स्मृतियों के चलचित्र 


बात की बात : ई एम एस नम्बूदरीपाद .

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कोई बात देख सुनकर पुरानी बात याद आ जाती है . अगर आज के बच्चों की शब्दावली में कहूं तो बात हैश टैग (#Tag.) हो जाती है , ऐसी ही बात की बात बताता हूं . कल की ही बात है :

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जीवन संगिनी टी वी के सामने बैठी कोई कार्यक्रम देख रही थी . अब ये तो मुझे पता नहीं कोई सीरियल था या कहानी थी पर मैं भी कंपनी देने को थोड़ी देर को बैठ गया . मामला एक लड़की का था और विवाह का प्रसंग विचारार्थ आ गया था . लड़की बोलने में हकलाती थी और इसी नाते बात कुछ अटक रही थी , लेकिन बावजूद इस वक्तृत्व कौशल सीमा के उसका आत्म विशवास देखते ही बनता था . मैं दो कारण से उससे अपनत्व अनुभव कर रहा था . एक तो बेटी और दूसरे उसका हैंडीकैप .

पर हुआ कुछ ऐसा कि पिता की इस बेटी ने ऐसी हिमायत की जो शायद और कोई न कर पाता . 

मैं बेटी जात का हिमायती हूं ये तो बताने की शायद आवश्यकता नहीं है , मैं हमेशा यह भी कहता हूं कि किसी के हैंडीकैप का मज़ाक मत उड़ाओ , मजाक उड़ाने वालों से मैं हमेशा भिड़ जाता हूं कि समझते क्या हो तुम्हारा हैंडीकैप मैं तुम्हें बताऊंगा . आपने यह भी पाया होगा कि मां बाप को हमेशा ही अपने हैंडीकैप बच्चे से सबसे अधिक प्यार होता है और अगर नहीं होता है तो मैं ऐसे मां बाप को मां बाप कहलाने के लिए लायक ही नहीं मानता . खैर ये विचार तो मेरे अपने हैं किसी के लिए इनको मानना लाजिमी नहीं है . खैर , कल की बात से जो पुरानी बात याद आती है वो बताता हूं .......


राजनीति शास्त्र विभाग , राजस्थान विश्वविद्यालय :


मैं वहां पढ़ा करता था , विभाग के संस्थापक अध्यक्ष और मेरे भी गुरु डाक्टर एस पी वर्मा इस बात को बड़े गर्व से कहा करते थे कि शायद ही कोई ऐसा नामी राजनीति शास्त्र का विद्वान बचा होगा जो विभाग में आया न हो और इस मंच से बोला न हो . इस विभाग में भाषण देने का निमंत्रण राजनेता भी ख़ुशी ख़ुशी स्वीकार करते थे और खुल कर बात होती थी . इसी सन्दर्भ में मुझे याद आते हैं ई एम एस नम्बूदरीपाद जो विभाग में भाषण देने आए थे . लुंगी और बुश्शर्ट कहा जाने वाला कमीज और गांधी जी जैसी चप्पल पहने विभाग के एक नंबर थियेटर में रॉसट्रम के पीछे खड़े होकर बोलते नम्बूदरीपाद मुझे आज भी याद हैं .


क्यों आई ये बात याद ?


मुझे तो तो उस लड़की की बात पर याद आए ई एम एस .

वो भी हकलाते थे , लेकिन अपनी इस कमजोरी को वो किसी भी प्रकार से हीनता ग्रंथी का कारण बनने देने को तैयार नहीं थे , विभाग में भी जब वो बोले थे तो उनकी बात को सबने शान्ति पूर्वक सुना था . उनकी बात में दम था . उनके तर्क में दम था .


उपसंहार :


एक बार की बात , सिर्फ उन्हें सताने को किसी अकल से पैदल पत्रकार ने ई एम एस से पूछ लिया :


" सर ! डू यू ऑलवेज स्टैमर ....?"

जवाब में बोले ई एम एस और तपाक से बोले , पूरे आत्म विशवास से बोले :

" नो ओ ओ....."

"ओनली व्हेन आई स्पी अ अ क ."

इससे बढ़िया जवाब क्या हो सकता था भला?


प्रातःकालीन सभा अनायास स्थगित .

इति .

सुप्रभात 

सुमन्त पंड़्या 

गुलमोहर कैम्प , जयपुर .

31 मई 2015 .

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पुराना संस्मरण है ।

आज दिन जयपुर से ब्लॉग पर प्रकाशित ।

बुधवार ३१ मई २०१७ ।

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Monday, 29 May 2017

" जो कुछ करना है आप ने ही करना है ....."। ज्योति क़ौल  : बनस्थली डायरी 

" जो कुछ करना है आप ने ही करना है , हमने क्या करना है ......"

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बनस्थली डायरी : ज्योति कौल की बाबत .

ऊपर लिखा वाक्य बनस्थली में हमारे यहां आए एक अतिथि ने तब कहा था जब वो ज्योति को साथ लेकर मिलने आए थे . ये एक ऐसा वाक्य है जो न केवल मुझे बार बार याद आ जाता है वरन मैं इसे वक्त बे वक्त मिलता जुलता प्रसंग आने पर दोहराता भी हूं .


अतिथि का परिचय :

______________ आगंतुक अतिथि का इतना ही परिचय यहां काफी होगा कि वो एस ओ एस बाल ग्राम के चंडीगढ़ कैम्पस के डायरेक्ट और ज्योति कौल के अंकल थे और ज्योति को साथ लेकर आए थे जो उन दिनों उनके बाल ग्राम में जा रही थी . ज्योति इस संगठन की सबसे बड़ी हस्ती कौल साहब की बेटी थी . शायद कौल साब उस समय बाल ग्राम संगठन के डायरेक्टर जनरल थे .

आगंतुक मुझे जता रहे थे कि लड़की के जीवन में सभी बातों के फैसले लेने हैं जैसे नौकरी , शादी और इसका भावी जीवन का मार्ग . अपनेअध्ययन के अंतिम पड़ाव में वो मेरे और मेरे परिवार के सर्वाधिक संपर्क में आई थी और इस सब के चलते ज्योति के बारे में मेरी जिम्मेदारी को अपने से अधिक बताकर एक प्रकार से आदर ही दे रहे थे .


ज्योति का परिचय और हमारे परिवारों से जुड़ाव :

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बाल ग्राम से ज्योति बनस्थली कब पढ़ने आई ये बताना तो मेरे लिए संभव नहीं पर इतना याद है कि बी ए , एम ए कक्षाओँ की पढ़ाई के बाद एम फिल की पढ़ाई के दौरान जब बच्चों को अपने लिए एक एक सुपरवाइजर और शोध विषय चुनने का समय आया तो अजय राय की सलाह पर ज्योति मेरे निर्देशन में आई और असंलग्नता आंदोलन के किसी पहलू पर उसने प्रबंध तैयार किया था . अजय राय कुछ समय से बनस्थली में रहे थे , मेरे अच्छे मित्र बन गए थे और आगे चलकर बाल ग्राम जयपुर के डायरेक्टर बने थे .


एक बार की बात :

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हम लोग इंद्रा कालोनी से शहर के मकान लौट रहे थे कि जीवन संगिनी ने ये घोषित कर दिया कि एस ओ एस बाल ग्राम होकर ही घर चलेंगे . देखे तो सही कि हमारी बेटी कैसे है , ज्योति से मिलने के लिए रास्ते में रुकना जरूरी था .


वो बात तो रह ही गई ......

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जब चंडीगढ़ से चलकर ज्योति आई तो तो काम दिलाने के लिए तो जो कुछ सलाह और सिफारिश मैं दे सकता था वो उपलब्ध कराई ही , विवाह के प्रसंग में मैंने जो कहा वो यहां रेखांकित करता हूं .


" अगर तुम्हारी निगाह में कोई लड़का है तो हमें बता दो ......मैं लडके वालों से आगे बढ़कर बात करूंगा . अगर हमें लड़का ढूंढना है तो वैसा कह दो जो मेरे द्वारा लिए गए साक्षत्कार में खरा उतरेगा उसको तुम्हारे पापा और अंकल से मिलवाऊंगा ."  

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ज्योति न केवल मुझे वरन जीवन संगिनी को आज भी याद आती है और याद आता है उसके अंकल का वो वाक्य जो उन्होंने उस दिन कहा था और कितना अपनत्व दिया था .


विलंबित प्रातःकालीन सभा स्थगित .

इति .


सह अभिवादन और सतत समर्थन :

Manju Pandya

सुमन्त

गुलमोहर कैम्प, जयपुर .

29 मई 2015 .

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आज दिन जयपुर से ब्लॉग पर प्रकाशित :

सोमवार २९ मई २०१७ ।

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Saturday, 27 May 2017

सूरजभान खत्री : स्मृतियों के चलचित्र

सूरजभान खत्री : ऐसे दोस्त जो मुझे आज भी याद आ जाते हैं .
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जयपुर के त्रिपोलिया  बाजार में जैसे मेरा आना जाना बाबूलाल  तरसेन कुमार की बरतनों की दूकान  पर होता था वैसे ही ठाकुरदास खत्री  एंड संस  नाम की घडी की दूकान पर भी होता था . ये लोग  विभाजन के बाद डेरा इस्माइल खां से चल कर जयपुर में आ बसे लोग थे . घड़िया विदेश से मंगवाते  बेचते . फर्म का वही नाम रखा गया था जो वहां से लेकर आए
थे . बड़े भाई सूरज भान खत्री मेरे ऐसे दोस्त बन गए थे जो बातों में उस समय हिमायती बनकर खड़े हो जाते जब साक्षात मेरे बड़े भाई मेरी कच्ची कौड़ी मान कर मेरी बात को दर  गुजर कर रहे होते . केवल मिलने और बतियाने को वो हमारे  शहर वाले घर , नाहर गढ़ की सड़क पर  भी आए . अपने  बेटे राकेश के विवाह के आनंदोत्सव में उन्होंने न्योता भेजा और मैं फर्ज समझ कर बड़े वाले को साथ लेकर छत्रसाल पार्क के उस समारोह में गया भी था . ये ऐसे आत्मीय सम्बन्ध थे जिनमें कोई व्यापार व्यवहार नहीं था .
मेरा जाना तो किसी निमित्त से ही होता और वो बात हो जाती जैसे कोई घडी खरीदना या सुधरवाना पर वो होवे अपनी जगह सूरजभान हाथ का काम रोक कर टाइम आउट ले लेते और मेरे लिए कोई न कोई सवाल छोड़ देते .
उनका लायक बेटा राकेश अब भी उस दूकान पर बैठता है . सूरज भान नहीं रहे पर उनकी स्मृति मेरे लिए आज भी कल की सी ताजा बात है .

एक बार की बात :
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पहले छोटी सी बात :
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मैंने इलेक्ट्रॉनिक घडी के बाबत पूछा ," गारंटी कितनी ?"
वो बोले :" जितनी देर घडी तो आपके हाथ में है लेकिन आपने पैसे नहीं चुकाए ."

अब बड़ी बात :
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एक दिन सूरज भान मुझसे बोले :

" प्रोफ़ेसर साब मुझे येे बताओ कि ये हिंदुओं में मुर्दे को जलाते ही क्यों हैं और समुदायों की तरह गाड़ते या रखकर छोड़ते क्यों नहीं ."

गंभीर सवाल था और मुझसे उत्तर की अपेक्षा थी . जाने क्यों अध्यापक से लोग उम्मीद करते हैं कि उसके पास हर सवाल का उत्तर  होगा .
मैंने पीने का पानी मांगा और उत्तर देने को बैठ गया और बोला, बात यहां से शुरू की :

" भाई साब अंतिम संस्कार का सम्बन्ध  जीवन दृष्टि से है . अपन तो मानते हैं कि शरीर नश्वर है ,  पंच  तत्त्व से मिलकर बना है . हिन्दू संस्कारों में हवन का बड़ा महत्त्व है , अग्नि को शरीर समर्पित करना भी एक  प्रकार का हवन ही तो है .
जीवन के बाद भी जीवन है , जैसे कपडे बदलते हैं वैसे ही शरीर बदलते हैं.
यही सब तो सोच है भाई  साब .
लेकिन जो लोग ऐसा सोचते हैं कि एक दिन ये ही शरीर उठ खड़े होंगे वो अंतिम संस्कार की अन्य विधि अपनाते हैं ..........
............. "
नहीं रहे सूरजभान पर आज भी राकेश हम लोगों से लगाव रखता है . पर
अब उधर जाना भी कम होता है ......
प्रातःकालीन सभा अनायास स्थगित .
इति .

सुप्रभात  .

सुमन्त पंड़्या
गुलमोहर कैम्प, जयपुर .
27 मई 2015 .
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आज दिन ये संस्मरण ब्लॉग पर प्रकाशित  ।
दिल्ली
शनिवार  २७ मई २०१७ ।
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Friday, 26 May 2017

जनता स्टोर के क़िस्से : स्मृतियों के चलचित्र 


जनता स्टोर : कल परसों की बात और आगे

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 कल टी ब्रैक के चलते बात जहां छोड़ी थी वहीँ से आगे चलें ...

अब उस चौक में अपने भतीजों का घाटा नहीं है . राहुल की डेयरी पर जाते पैली आवाजें आने लगती हैं :

" ताऊ जी ढोक !" 🙏

" ताऊ जी ढोक ! " 🙏

मैंने तो दो बार ही मांडा है , ऐसा तो सारे छोरे बोलते हैं .

उस दिन राजू तो काउंटर पर टॉफी लेकर ही खड़ा हो गया के ताऊ जी बड़े दिनों बाद आए . अब ताऊ भी क्या करें और जगह भी तो बच्चों के पास जाना पड़ता है . फोटू जोड़ूंगा राजू की , देखिएगा .

दुनियांदार भी देखते रह जाते हैं के ये कौन ताऊ आ गए जो इनकी ऐसी आव भगत हो रही है .

अटके भटके बनस्थली की पुरानी लड़कियां भी यहां नई भूमिका धारण किए मिल जाती हैं वो बात आगे किसी पोस्ट में बताऊंगा .

अब उठने का समय हो रहा है अतः मीडिया पर पहला सन्देश फेसबुक पर भी दर्ज :


Good morning & private coffee done @ Gulmohar camp .☕.

सुप्रभात .

सुमन्त पंड्या

जयपुर 

गुरुवार 26 मई 2016 .

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आज दिन दिल्ली से ब्लॉग पर प्रकाशित ये क़िस्से का  पुछल्ला  ।

शुक्रवार २६ मई २०१७ ।

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Thursday, 25 May 2017

बातें बनस्थली की : वीर पुरुष का  दर्जा  😎

बातें बनस्थली की : वीर पुरुष का दर्जा: डाक्टर लाल चंद जैन . 💐💐

________________________________  बनस्थलीडायरी 


डाक्टर लाल चंद जैन होने को तो हिंदी विभाग में रहे पर रवीन्द्र निवास की सायंकालीन सभाओं में ये विभागों का भेदाभेद नहीं होता था और अरविन्द निवास से चलकर जब वो हमारी सभा में आते तो उन्हें विशिष्ट अतिथि या मुख्य अतिथि का दर्जा दिया जाता . कभी कभी मैं आगे बढ़कर सभा की अध्यक्षता के लिए भी उनका नाम प्रस्तावित कर देता और वो बात हमेशा ही मान भी ली जाती . हंसी के ठहाके के मामले में उनकी जोड़ी का परिसर में कोई नहीं था .

हमेशा खादी के सफ़ेद कमीज और पैन्ट पहनते . सर्दी के मौसम के लिए मरीनो ऊन के शाल से बनाया गया सूट पहनते और बचे हुए कपडे का बनवाया हुआ मफलर लगाना उनका ख़ास स्टाइल था .

आजकल वे अलवर में रहते हैं , मेरा अलवर से नाता तो जग जाहिर है , गया तब उनसे भी मिलकर आया था .

अभी भी वही नूर बरकारार है , उनकी पूर्व छात्राओं की सूचनार्थ ये बात दर्ज की है .


एक ख़ास बात :

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बनस्थली में विश्वविद्यालयों के बालीबाल टूर्नामेंट हो रहे थे . जाने किस तुफैल में मैं भी उसकी बुलेटिन बनाने वाली कमेटी में सम्मिलित कर लिया गया . अगले दिन सुबह जारी होने वाले बुलेटिन में मैं भी कोई कवित्त रचकर जोड़ देता . कमेटी के सर्वेसर्वा भैया विजयवर्गीय जी थे.

इसी झमेले में आधी रात होने आई तब प्रेमचंद जी उठे और अपनी ब्राउन शेरवानी पर शाल लपेटते हुए मुझसे और लाल चंद जी से बोले :


" आप लोग हैं न , मैं एक बार घर जाकर भोजन कर आता हूं. "


भूखे तो हम भी थे पर डटे रहे कैसाबिआंका की तरह और भैया के लौटकर आने का इंतज़ार करते रहे . वो गए भी , उन्होंने खाना खाने में भी समय लगाया और लौटकर आए तब मेरी और लाल चंद जी की पैरोल शुरु हुई और हम दोनों घरों को चले .

जब रवीन्द्र निवास के मेरे घर के सामने हमारे बिछुड़ने की घडी आई तो बॉस बोले :


" अब क्या करोगे? भोजन होगा तैयार ?"


मैं बोला: " करना क्या है , घर जाकर खिचड़ी बनाऊंगा और खाऊंगा और क्या .....?"

उस दिन मेरे घर में तो कोई भी और नहीं था जो मेरे लिए घर पहुंच कर खाना तैयार मिलाता . इस परिस्थिति के प्रति डाक्टर साब उदासीन कैसे रहते , तुरत बोले :


" ....तो आजाओ मेरे साथ ."


और इस प्रकार उस रात मुझे वो साथ लिवा ले गए .

कहना पडेगा कि उस दिन भाभी जी ने भी मुझे प्रेम से भोजन कराया , आम हिन्दुस्तानी की तरह " बूरा लाओ ", अचार लाओ" ये फरमाइश भी डाक्टर साब ने की . अपनी पेट भराई अच्छे से हो गई पर उसी दिन मैंने डाक्टर साब को " वीर पुरुष " सम्मान से भी नवाजा . मेरा तर्क था :


" आज के जमाने में कोई खाविंद एक तो आधी रात के बाद घर आवे और साथ में एक सितखवुए दोस्त को और ले आवे तो मैं उसे तो ' वीर पुरुष ' ही कहूंगा . "


प्रातःकालीन सभा अनायास स्थगित .

इति.

सुप्रभात .

सुमन्त पंड़्या 

गुलमोहर कैम्प, जयपुर .

26 मई 2015 . 

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अपडेट : 26 मई 2016 .

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गए बरस की सराहना से अभिभूत हूं , ये सहेजने लायक संस्मरण है , इसे ब्लॉग पर भी प्रकाशित करूंगा . अभी हाल के लिए चर्चा के लिए प्रसारित .


-- सुमन्त पंड्या .

   जयपुर 

    26 मई 2016 .

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डाक्टर साब का फ़ोटो सीमा की दीवार से लिया है ।

आज दिन ये संस्मरण दिल्ली से प्रकाशित 

शुक्रवार २६ मई २०१७ ।

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बनस्थली डायरी : बैचलर्स किचन 🍽

बातें बनस्थली की : बैचलर्स किचन . 

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आज की तारीख में विनीत कुमार लन्दन पहुंचा हुआ है वैसे वो बैचलर्स किचन का मास्टर शैफ भी है और इस बाबत खूब लिखता है . 

इधर मुझे लगा कि क्यों न इस प्रसंग में विनीत की गैर मौजूदगी में मैं अपने खट्टे मीठे अनुभव जोड़ कर एक पोस्ट बनाऊं सो ये ही किस्से लिखने बैठा हूं .

(1)

परनामी और गौतम के साथ :

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अंग्रेजी विभाग के परनामी और गौतम दो युवा प्राध्यापक उन दिनों मेरे साथी थे . परनामी का तो तब तक विवाह ही नहीं हुआ था , मुसीबत का मारा गौतम अपनी पत्नी और बेटी को मां बाप के पास छोड़ आया था और उसके घर में रोटियों का कोई इंतजाम ही नहीं था .

परनामी की छोटी बहन साथ रहती थी पर शायद उस दिन वो भी बाहर गई हुई थी .

मेरे कब्जे में 44 रवीन्द्र निवास था और उस दिन तो रसोई पर भी मेरा एकाधिकार था , जीवन संगिनी वहां नहीं थी , अब ये याद नहीं कि वो जयपुर आई हुई थी या अलवर गई हुई थी . बहर हाल हम तीन साथी छड़े और अपने भोजन का इंतजाम करने को स्वतन्त्र थे , कहिए मजबूर थे .

कैसा विरोधाभास है हमारी स्वतंत्रता ही हमारी मजबूरी थी .


ऐसे में परनामी और गौतम ने घोषणा कर दी :


"सुमंत के यहां चलते हैं , वहां चलते हैं , वहीँ खाना बनाएंगे और खाएंगे ."


 मुझे ऐतराज ही क्या हो सकता था , दोनों यार अलग विषय के चाहे रहे हों , हम लोग एक ही विश्वविद्यालय के पढ़े हुए थे और एक ही परिसर में काम करने आ गए थे . तो साब हम आ गए 44 रवीन्द्र निवास में . अब संसाधन मेरे थे और रोटी सब्जी तैयार करने की भूमिका बाकी दोनों की .

गौतम ने सब्जी का जिम्मा लिया और परनामी ने रोटी का . उस दिन सब्जी के नाम पर गाजर और मटर ही घर में उपलब्ध थे , आलू जैसा कोई पदार्थ घर में नहीं था इस बाबत दोनों ने मुझे धिक्कारा पर शाम पड़े अब क्या हो सकता था . वो इसी की सब्जी बनाने लगे .

उन दिनों डालडा नाम का बनस्पती घी घर में पाया जाता था , था घर में उपलब्ध , मुझे सब्जी में डालडा बरतने के सुझाव पर कंजूस घोषित करते हुए दोनों ने देशी घी में ही सब्जी बनाने का निर्णय लिया . सरसों के तेल का प्रस्ताव भी गिर गया . मेरा हर प्रस्ताव दो तिहाई बहुमत से गिरता रहा और सब्जी भी देशी घी में ही बनी आखिरकार .

देशी घी : उन दिनों देशी घी चौबीस रूपए का दो किलो आने लगा था और ठाकुर अभय सिंह जी मुझे वक्त जरूरत अपने घर या पड़ोस से ला दिया करते थे .

डब्बा भरा रखा था और यार लोग इसे बरतने को उद्यत थे .


सतपुड़ा के परांवठे :

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परनामी ने आटा लगाया और साधारण रोटी बनाने का विचार रद्द करते हुए सतपुड़ा के परांवठे बनाने का संकल्प व्यक्त किया जो ऐसे बने जैसे आज कल होटलों में लच्छा परांवठा मिलता है उसका बाप !

लोया रोटी की तरह बेल कर उसको घी से चुपड़ा गया . बीचों बीच से शुरू कर परिधि की और कुरचे से काटा गया और फिर इस तरह रोल किया गया कि बार बार घी लगाकर बेलने पर उसके सात परत बन गए और जब घी की सहायता से लोहे के तवे कर सेका गया तो सुन्दर परांवठा तैयार हुआ .

यही प्रक्रिया दोहराते हुए परनामी ने पर्याप्त मात्रा में सतपुड़ा के परांवठे बना डाले . 

उस दिन जो विशिष्ट परांवठे बनाना मैंने परनामी से उस दिन सीखा बाद में भाभी जी और जीवन संगिनी के सामने भी बनाकर मैंने प्रदर्शित किया पर उस रात यारों के साथ डिनर का आनंद तो कमाल ही रहा .


भोजन में कंपनी का बड़ा महत्त्व होता है ये बात उस दिन की आकस्मिक परिघटना से सिद्ध हुई थी .


आज की भोर में ले दे कर ये एक ही किस्सा लिखा जा सका . आगे ऐसे और किस्से आएंगे जिनमें और पात्र भी प्रकट होंगे .

प्रातःकालीन सभा अनायास स्थगित ,

(क्या करें टैम नहीं है .)

इति.

सुमन्त पंड्या ।

जयपुर .

25 मई 2015 .

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दिल्ली से पुनः प्रसारित और ब्लॉग पर प्रकाशित :

२५ मई २०१७ ।

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Wednesday, 24 May 2017

क़िस्सा जनता स्टोर का : जयपुर ड़ायरी - स्मृतियों के चल चित्र 

ये क़िस्सा लगातार दो दिनों में लिख कर दर्ज किया था फ़ेसबुक पर  , आज ये आ रहा है ब्लॉग पर ।

भाग एक :

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जनता स्टोर पर : कल की बात

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  चलताऊ तौर पर सब्जी तो खरीद ली इन लड़कों के पास और बराबर में सीढ़ी चढ़ गया फल वाले की दूकान में . मीठे फल खाना तो आजकल मने है तो ले दे के दो चीज कुल दे देने को कहा छोरे को :

1 फालसा

2 आलू बुखारा वो भी कच्चा खट्टा 


छोरे को फुरसत कहां मुझे अटेंड करने को वो अटका हुआ एक सजीली युवती के आर्डर की तामील में और उसे ," भाभी जी , भाभी जी " कहे जाय . मुझे एक दम सीरियल का सा माहोल लगा ," भाभी जी घर पर हैं ." चल रहा हो मानो . 

अब तब तो मैं चुप रहा युवती के सामने , वो क्या सोचती वरना और उसके सीढ़ी उतरते ही मैं जो बोला वो जान लीजिए :

" इत्ती देर से भाभी जी भाभी जी करे जा रिया है 

और यहां तेरे ताऊ खड़े हैं उनकी कोई परवाह ही नहीं ? " 

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टी ब्रैक .

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इत्ता ही लिखा था उस दिन तो पर फिर उत्सुकता जाग गई कि फिर क्या हुआ  । इसी उत्सुकता का समाधान करने को दूसरा भाग लिखा था अगले दिन जो अविकल यहां दोहराता हूं । ये रहा :

भाग दूसरा :

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जनता स्टोर : कल की बात ...और आगे .

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अब तो ये परसों की बात हो गई पर बात कहते कहते मजबूरी में रुकना पड़ा था तो आगे की बात तो बतानी ही पड़ेगी न इस लिए छेड़ी है ये बात फिर से .


बात तो कुल जमा इत्ती सी ही थी कि फल वाला छोरा भाभी जी - भाभी जी करे जाय और अपण को पूछे ही नहीं और तब लपकाया मैंने "......यहां तेरे ताऊ खड़े हैं उनकी कुछ परवाह ही नहीं ? " 💐 खैर छोरा आया लाइन पे , पहले का कहा भूलकर फिर पूछने लगा :


" क्या देऊं बाबूजी ? "


और बाबूजी ने जारी किया फरमान :


" ढाई सौ ग्राम फालसा दे और दे , ढाई सौ ग्राम दे आलू बुखारा . "

खैर

तौल दिए लडके ने मैंने अस्सी रूपए चुकाए पर एक बात भी हुई ही इस लेन देन के दौरान , उसे इस संवाद में बाबूजी की कुछ " असहिष्णुता " लगी शायद सो एक बेतुका सा सवाल पूछ बैठा 

क्या पूछता है :


" बाबूजी आप के बच्चे नहीं हैं क्या ? "


और अब बाबूजी के बिफरने की बारी थी , बोले बाबूजी :


" अरे अकल के कोल्हू ! मेरे बच्चे कोई न्यारे हैं क्या ? तुम्ही तो हो मेरे बच्चे ! "


अब लड़का मेरा मिजाज समझ चुका था और मुझे याद आ रहा था कि मेरे कार्यस्थल पर स्थानीय कार्यकर्ता मेरे लिए कहते :


" ये ही छै बेवारस्यां का बाप . "


खैर ये छोटा सौदा तो निबट गया , दूसरे वाले लडके ने सीढ़ी उतरने के लिए मुझे सपोर्ट दिया और मैं जनता स्टोर चौक में नीचे आ गया पर अब भी एक संवाद होना बाकी था .


एक और बात :

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एक बुजुर्ग सज्जन मिले , तुरंत मैंने पूछा :


" आप तो सीनियार सिटीजन हैं ? "


मैंने पूछा था कि भाई एक संयुक्त मोर्चा बन जाए .


उन्होंने तस्दीक तो कर दी पर मेरी ओर कौतुक से देखने लगे और मैंने उनकी उत्सुकता शांत की :


"....।फिर क्या बात , मिलाओ हाथ ! "


अब वो मेरा शुभ नाम पूछने लगे खैर वो ही बात मैंने पूछी और वो निकले हेमंत पाटनी , जे डी ए के सामने रहते बताए .

***


टी ब्रैक .


सुप्रभात .


आगे चलेगी अभी बात .

गए बरस की स्मृतियों पर आधारित बातों को जोड़कर आज दिन दिल्ली में बनाई ये पोस्ट और इसे अब ब्लॉग पर प्रकाशित करने जा रहा हूं ।

गुरुवार २५ मई २०१७ ।

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Tuesday, 23 May 2017

बड़े मामा जी स्टेशन वाले : स्मृतियों के चल चित्र 

बड़े मामाजी - स्टेशन वाले : स्मृतियों के चलचित्र  

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अम्मा अपने कुटुंब में कई भाइयों की छोटी बहन थी . जिन भाइयों को अम्मा राखी बांधा करती थी उनमें सबसे बड़े थे जिन्हें हम बच्चे बड़े मामाजी स्टेशन वाले कहा करते थे , आज उन्हीं की एक बात का प्रसंग उठाता हूं .

मामाजी का परिचय :

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मामा जी ने रेल्वे में काम किया उस जमाने में जब भारत आजाद भी नहीं हुआ था. पचास के दशक में तो वो रिटायर होकर जयपुर में रहने लगे थे तब उनसे खूब खूब बातें होती थीं . जो उन्होंने बताया था वही बता रहा हूं .


कैसे गए रेलवे की नौकरी में :

जब स्कूली शिक्षा पूरी हुई तो अम्मा की बडिया(ताई जी ) ने घर में आए किसी महात्मा से बाल और बब्बू नाम के दो बेटोँ का भविष्य पूछा तो वो बोले :

" इन्हें रेलवे में नौकर करा दो ."

 और सच में वही हुआ , दोनों भाई रेलवे में आवेदन कर स्टेशन मास्टर बन गए . जिस "बाल" का अभी जिक्र आया वही थे मेरे ' बड़े मामाजी स्टेशन वाले '.

 किसी जमाने में ये मामाजी जयपुर स्टेशन के स्टेशन सुपरिंटेंडेंट हुआ करते थे . अपना नीला कोट और कैप पहन कर रेलवे प्लेटफार्म पर आते तो उन पर नूर आ जाता था . विदेशी सैलानी ट्रेन से उतरते तो उनसे अंग्रेजी में भी अच्छी खासी बात कर लेते .

जयपुर आने वाले हम लोगों के नाते रिश्तेदार कभी रात की गाडी से जयपुर स्टेशन पर उतरते तो सुबह होने तक उनके यहां ही ठहरते .

तब स्टेशन और शहर परकोटे के बीच का इलाका बड़ा सुनसान और उजाड़ हुआ करता था . ये सब तो तब की बातें हैं जब वो सेवारत थे . अभी तो बाद के जमाने की बात बाकी है जिसकी अभी भूमिका बनी है .


बाद की सिर्फ एक बात :


पृष्टभूमि- रिटायरमेंट के के बाद मामाजी एक आम ग्रामीण हिन्दुस्तानी के हुलिए में रहा करते थे . उरेप का एक जेबदार सिला हुआ बनियान , कमर के नींचे शायद धोती नहीं बल्कि एक अंगोछा और गर्मी में कंधे पर एक पारंपरिक लाल अंगोछा . मामी अलबत्ता करीने से साड़ी पहन कर , पतले फ्रेम का चश्मा पहनकर स्मार्ट लगती थी .

ये दोनों तब ट्रेन के उपलब्ध सबसे बड़े क्लॉस ' फर्स्ट क्लास ' में साधिकार यात्रा कर रहे थे . उन्हें यात्रा का पास मिलता था . उनके सहयात्रियों को मामी तो अपने क्लास के अनुरूप लग रही थी पर मामाजी को तो वो बगैर टिकट डब्बे में चढ़ आया कोई ग्रामीण अशिक्षित ही समझ रहे थे . शायद मामी से उन महिलाओं ने कुछ जिक्र भी छेड़ा पर मामी ने कोई तवज्जो नहीं दी . आखिर वह भी हो गया जो सहयात्री चाहते थे , टिकट चैकर डब्बे में आ गया . लोगों ने इस बगैर टिकट सवारी के डब्बे में बैठे होने की शिकायत की और आगे वही हुआ जो होना ही चाहिए था .

टिकट चैकर ने पूछा:


"बाबा ! आपका टिकिट ?"


" मेरे पास कोई टिकिट नहीं है ." बोला टिकिट चैकर का बाबा .


हम तो ये जानते ही थेे , इस भाव के साथ वो तथाकथित हाई सोसायटी 

के लोग ये मान बैठे कि अब आया ऊंट पहाड़ के नींचे . तभी मामाजी ने उरेप के बनियान की जेब में हाथ डाल कर एक कागज़ निकाला और बोले:


" ये एक कागज़ का टुकड़ा जुरूर है , देख लो तुम्हारे समझ आवे तो ."


ये मामाजी और मामी का फ्री ट्रेवल पास था जो उन्हें सेवा काल के बाद मिली सुविधाओं के तहद मिलता था . इसमें उनकी हैसियत का बखान भी था .

देखकर संतुष्ट हुआ टिकिट चैकर और बरसा उन सहयात्रियों पर जो वेश भूषा देखकर लोगों की हैसियत नापते थे .

भाव ये था कि ' आप यात्रा करें न करें इस डिब्बे में ये तो यात्रा करेंगे ही .'


गजब थे बड़े मामाजी स्टेशन वाले .

उनकी कोई तस्वीर भी ढूंढने की कोशिश करूंगा .

प्रायवेट कॉफी डन .


प्रातःकालीन सभा स्थगित .

इति.

सुमन्त पंड़्या 

जयपुर .

23 मई 2015 .

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आज इस क़िस्से के साथ अनन्त की एक टिप्पणी भी जोड़ता हूं जो इस क़िस्से की रंगत बढ़ाने वाली है । देखिए अनन्त बताता है :

"    यह घटना 70 के दशक की है जब बाबा और माताजी अम्मा गर्मियों की छुट्टियों में दिल्ली से हरिद्वार जा रहे थे बीना भी जिद करके उनके साथ चली गई थी , सहयात्री और उनकी पत्नी को लगा कि ये कोई बडे घर की महिला व बच्ची है और ये बुजुर्ग इनका अटेन्डेट है जब उस व्यक्ति ने अम्मा से कहा कि यह बुढ्ढा IInd क्लास में नहीं बैठ सकता तो मताजी अम्मा बोली कि क्या करूँ ये बुढ्ढा तो मानता ही नहीं है कहता पट्टा लिखाकर लाया हूँ । "

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आज दिन दिल्ली से प्रकाशित :

बुधवार २४  मई २०१७ ।

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Sunday, 21 May 2017

गोविंददेव जी के दर्शन किए : जयपुर डायरी 

गोविन्ददेव जी के दर्शन किए : स्मृतियों के चल चित्र 

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ये तब की बात है जब सन् उन्नीस सौ अस्सी में हम लोग नाहर गढ़ की सड़क पर अपने शहर वाले घर में रहा करते थे और चौगान स्टेडियम में एक ऑटोमेटिक दूध डेयरी लग चुकी थी .


प्रसंग का उल्लेख करने के पहले अपनी दिनचर्या और आदतों के बारे में भी बताता चलूं . रात को मैं जल्दी फ्यूज हो जाता था और सुबह मेरी भोर बहुत जल्दी हो जाया करती थी , कभी कभी तो सुबह चार बजे ही नींद खुल जाती .


बाई द वे आजकल भी वही हो रहा है , पर वो समय तो लौट कर आने से रहा . हां ये जरूर है कि तब बच्चे छोटे थे अब बच्चों के बच्चे छोटे हैं . अपनी ही वो अवस्था नहीं रही .


अब मेरे घर में रात भर जगार रहती है . परिवार के अन्य सदस्य सोने की तैयारी कर रहे होते हैं तब तक मेरे उठने का समय हो जाता है , पर ऐसे सम्मेलन होते ही थोड़े दिनों के लिए हैं . बाकी समय आदतों के मामले में जीवन संगिनी अनुपस्थित सदस्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं और सोने जागने का आलम वो का वो रहता है . खैर ...


तो बात सन अस्सी की करें.


एक दिन की बात :

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सुबह इतना जल्दी नींद खुल गई कि शायद चार ही बजे होंगे . मैं तो आदतन उठकर चौगान स्टेडियम चला गया दूध लेने . हालत ये कि डेयरी वालों ने डेयरी खोली ही नहीं थी . अब मैं क्या करता , कुछ विचार करके चौगान स्टेडियम में डोलने लगा . इसी दौरान कुछ डोकरियां * डेयरी के पास वाले द्वार से घुसकर गोविन्द देव जी के जाने वाले पैदल मार्ग पर आगे बढ़ने लगीं . उनमें से एक ने मुझसे पूछा :


" भाया जी दरसण हो जायला कांई . ? "

(भैया जी दर्शन हो जाएंगे क्या ?)


मुझे उन्होंने वहां डोलता देखकर जो कुछ भी समझा हो क्योंकि मैं तो डेयरी का ग्राहक था , दर्शन की न तो कोई योजना थी और न था विचार पर मैंने उन वृद्धाओं को अपनी और से आश्वत कर दिया और कहा :


" हो जायला माजी , बेगा बेगा चालो."

(हो जाएंगे मां जी , जल्दी जल्दी चलिए )


मैंने कोरा आश्वासन नहीं दिया , मैं भी गोविन्द की दिशा में बढ़ लिया ये देखने कि मैं सही बोला कि गलत .

* वृद्धाएं .


शायद मुझे गाविंद ने बुलाया था .


अब ये गोविन्द से मित्रता की परम्परा का निर्वाह जीवन संगिनी करती हैं और मैं उनकी आस्था का आदर करता हूं .

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

इति .

समर्थन और Manju Pandyanju Pandya.


सुमन्त

जयपुर .

21 मई 2015 .   

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अपडेट :

आज फिर शिवाड़ एरिया जयपुर से 


आज फिर जयपुर में शिखर सम्मलेन के निमित्त बच्चे आए हुए हैं और ऐसे में ये संस्मरण फिर एक बार दिखा रहा है फेसबुक तो इसे चर्चा के लिए प्रकाश में ले आते हैं .

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सुप्रभात :

सुमन्त पंड्या .

 @ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

  शनिवार 21 मई 2016 .

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दिल्ली से अपडेट और प्रकाशन आज सोमवार    २२ मई २०१७ को ।

Friday, 19 May 2017

दुर्लभ आशीर्वचन : भिवाड़ी डायरी 

फ़ोटो में जीज़ाज़ी अभ्युदय में  और अब उनके आशीर्वचन सम्बन्धी पोस्ट :


दुर्लभ आशीर्वचन प्राप्त हुए  

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कल ये हमारा सौभाग्य रहा कि उदयपुर में बैठे हुए जीजाजी ने हमारे एक पारिवारिक वाट्सएप समूह के साथ बचपन में ब्रह्मपुरी में बिताए दिनों की कुछ स्मृतियों को साझा किया . परिवार के सब सदस्यों को तो इस सब में आनंद आया ही , कइयों ने इस सन्दर्भ को वर्तमान से जोड़ा और बाद के दौर की कई बातें भी बताई जिनका समावेश अभी मैं इस आलेख में नहीं कर पाया हूं और मैं चाहूंगा कि वो लोग यहां चर्चा से जुड़ जाएं .


 पहले दो बात :


1 . जीजाजी के प्रिय शिष्य दुर्गाप्रसाद अग्रवालअग्रवाल साब का आग्रह था कि गुरूजी को फेसबुक पर नियमित लेखन के लिए मनाया जाए , एक माने में उनका आग्रह और अनुरोध कारगर रहा . सन्देश मुझे मिले और मैंने अग्रप्रेषित किए . आज की पोस्ट जीजाजी के मुझे प्राप्त संदेशों के आधार पर ही संकलित है . 


2.. गए दिनों मैंने ब्रह्मपुरी के रहवासी सुपर सीनियर सिटीजन पद्माकर जी की फोटो यहां प्रकाशित की थी जिसे देखकर जीजाजी को बचपन की बातें याद हो आईं . पद्माकर जी जीजाजी के बाल सखा हैं . मैंने तब भी कहा था इनकी दोस्ती को सलाम .


अब इतना और कहूंगा कि मैंने जीजाजी के संदेशों में से कुछ अनावश्यक क्षेपक हटाकर इन्हें संपादित करने का प्रयास किया है , उसमें जो कुछ कमी रही हो वो मेरी कमी मानी जाए .

अब आशीर्वचन की आज की कड़ी 

प्रदाता : मूलचंद्र पाठक .

     Moolchandra Pathak


निवेदन और सम्पादन :

--- सुमन्त पंड्या .


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   प्रिय सुमन्त ! 

    आज मैं तुम्हें ब्रह्मपुरी में बिताये अपने जीवन के बारे में कुछ बताना चाहता हूं।मैं लगभग 25 साल की उम्र तक जयपुर व ब्रह्मपुरी में रहा। ब्रह्मपुरी की अपनी कुछ विशेषताएं थीं। सबसे बडी बात जिसका जिक्र जरूरी है वह थी हर साल होने वाले तमाशे। ये तमाशे हर साल तीन होते थे --

1.जोगी का 

2. रांझा और हीर का

 3 झुट्टन मियां का।  

तमाशे के दिन निश्चित होते थे । अतः दर्शनार्थी निश्चित दिन हजारों की संख्या में स्वतः पहुंच जाते थे। ब्रह्मपुरी में ये तमाशे दो जगह होते थे - छोटे अखाडे में तथा बडे अखाडे में। छोटे अखाडे में तैलंग भट्ट फूल जी तथा मन्नु जी व उनके परिवार जन करते थे तथा बडे अखाडे में गुजराती औदिच्य ब्राह्मण अनोखे लाल ।दोनों जगह ये तमाशे एक ही दिन व एक ही समय पर होते थे। दोनों अखाडे पास पास होने के कारण दर्शक लोग भी इधर-उधर आते जाते थे। तमाशे सुबह से शाम तक दो दिन चलते थे।ब्रह्मपुरी में इन दो दिनों में मेले का सा माहोल रहता था। ये तमाशे संगीतप्रधान होते थे- संगीत भी परम्परागत व शास्त्रीय होता था। फूल जी व मन्नुजी अपने समय के जाने-माने शास्त्रीय गायक थे।इसी प्रकार अनोखी लाल भी बहुत अच्छे संगीतज्ञ थे। फूल जी के पुत्र गोपी भट्ट उम्र में मुझ से कुछ ही बडे थे पर बहुत अच्छा गाते थे।उन्हीं दिनों वे दिल्ली रेडियो से भी आने लगे थे।

 जोगी और हीर-रांझे के तमाशे में कथा-सूत्र भी रहता था, पर बहुत हल्का सा ही। वस्तुतः शास्त्रीय संगीत ही मुख्य होता था और इन तमाशों के श्रोता या दर्शक गण भी अधिकतर शास्त्रीय संगीत के प्रेमी होते थे।


 झुट्टन मियां का तमाशा सिर्फ छोटे अखाड़े में होली के दिनों में, संभवतः धूलंडी की रात उक्त तैलंग भट्ट परिवार द्वारा प्रस्तुत किया जाता था। अवसर के अनुसार यह तमाशा कुछ अश्लीलता युक्त भी होता था, पर पूर्व दो तमाशों के समान इसमें भी संगीत तत्त्व ही प्रधान होता था।

     ये भी उल्लेखनीय है कि इन तमाशों में कुछ अभिनय का अंश भी रहता था। जोगी के तमाशे में मुख्य पात्र जोगी का वेश धारण कर के आता था और हीर-रांझे के तमाशे में एक गायक हीर होता था और दूसरा रांझा।वे अपने अपने संवाद बोलते या गाते थे।

 उनकी वेशभूषा में भी यथोचित अन्तर रहता था।

  उक्त परिवार द्वारा आमेर में शिवजी के मंदिर के बाहर भी साल में एक बार गोपीचन्द भरथरी का तमाशा प्रस्तुत किया जाता था।

-- मूलचंद्र पाठक .

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सूचनार्थ :Padma Pathak Manju Pandya Vasudha Nanawati


सुप्रभात . 💐

Sumantpandya .

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

  गुरूवार 19 मई 2016 .


#स्मृतियोंकेचलचित्र #जयपुरडायरी #उदयपुरडायरी 

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दिल्ली से ब्लॉग पर प्रकाशित 

शुक्रवार १९ मई २०१७ ।

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Thursday, 18 May 2017

ई पी में फ़िल्म देखी थी : जयपुर डायरी 

ई पी में फ़िल्म देखी : बात कल शाम की .

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कल शाम ई पी में फ़िल्म देख आए . बच्चों ने बहुत धकियाया था , जीवन संगिनी तो उत्सुक थी ही उन्होंने भाभी जी को राजी कर लिया , मेरी तो बिसात ही क्या थी कि मने करूं . और तो और कल तो भाई साब भी इस अभियान में साथ हो लिए . सुना उन्होंने बत्तीस साल बाद सिनेमा हाल में कोई फ़िल्म देखी बताई . आप पूछेंगे तब कौनसी फ़िल्म देखी थी , वो गांधी नाम की फ़िल्म रही बताई .


अब बात कल देखी फ़िल्म बाबत :

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फ़िल्म थी ' पीकू'. 

फ़िल्म अच्छी थी , मेरी उमर के लोगों को जरूर देखनी चाहिए . हिंदी फिल्मों का सदी का नायक इसका भी नायक है .

समीक्षा भला मैं क्या करूंगा, मैं इस लायक नहीं हूं . श्वेता तिवारी या मिहिर पंड्या की समीक्षा को मान्यता दीजिए . ये अपने ही बच्चे हैं और अब कितने समझदार हो गए हैं .


बात चली है तो पुरानी बातें सिनेमा के बाबत :

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ये तब की बात है कि मैं और जीवन संगिनी मोती महल में सिनेमा देखने गए , उदय और छुटकू को साथ ले गए . फ़िल्म का नाम बेमाने है छोड़िए उसे , बच्चे क्या बोले इस पर गौर कीजिए :


फ़िल्म का प्रदर्शन देखकर दोनों एक साथ आल्हादित स्वर में बोले :


"पापा.....कित्ता बड़ा टी वी ...!"

 तब घर में टी वी तो आ चुका था बच्चे पहली बार किसी सिनेमा हाल में गए थे .


राज मंदिर में सिनेमा :

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जयपुर में राज मंदिर सिनेमा हाल मुम्बई ( तब का बम्बई ) के मराठा मंदिर की तर्ज पर बने और और चालू हुए एक अरसा हो गया था . इस हाल की बड़ी शोहरत थी . विज्ञापन और समाचार में बहुत हल्ला था इस बाबत पर मेरा वहां फ़िल्म देखने जाना नहीं हो पाया था और इस बात की कोई ग्लानि भी नहीं थी पर एक दिन ऐसी ही कुछ बात हो गई कि मुझे जाना ही पड़ा .


बात क्या हुई ?

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छोटी चौपड़ पर एक युवा माली से सब्जी खरीदा करता था और वो मेरा फ्रैंड माली कहलाता था " फ्रैंड मालिन " भी थी एक पर उसकी बात करूंगा तो चर्चा भटक जाएगी . ये दोनों अलग अलग संस्थाएं थी. आज एक बात फ्रैंड माली की कही बताता हूं .

अपनी रेशमी भिन्डी के तारीफ़ में उस दिन फ्रैंड माली बोला :


" भाई साब...आज की भिन्डी इतनी मुलायम है जैसे ' राज मंदिर में गलीचे ."

मेरी जनरल नॉलेज की यहां पोल खुल रही थी और मैं इस वजह से लज्जित हो रहा था कि जब राज मंदिर में सिनेमा देखने ही कभी नहीं गया था तो गलीचों की मिसाल क्या समझता .

घर लौटा , सब्जियों के थैले रखे और खड़े खड़े ही घोषणा कर दी :


" कल मैं राज मंदिर में सिनेमा देखने जाऊंगा, जो भी फ़िल्म देखना चाहे चले मेरे साथ ."

बात ही ऐसी थी , मुझे तो जाना ही था और परिवार जन भी गए मेरे साथ और जो फ़िल्म देखी उसका नाम था :


" दुल्हन वही जो पिया मन भाए ."


आज नेट की कमजोरी के कारण पोस्ट बनने और टकने में थोड़ा विलम्ब हुआ . खैर..


प्रातःकालीन सभा स्थगित ,

इति.


सुप्रभात .

समर्थन : Manju Pandya


सुमन्त पंड्या ।

(Sumant Pandya )

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया, बापू नगर , 

जयपुर .

19 मई 2015 .

#स्मृतियोंकेचलचित्र #जयपुरडायरी


दिल्ली से पुनः संशोधित और प्रसारित चर्चा ।

शुक्रवार १९ मई २०१७ ।   और आज ही ब्लॉग पर भी दर्ज ये क़िस्सा  ।

Wednesday, 17 May 2017

बातें - मेरी कहावतें और उनका तालमेल : स्मृतियों के चलचित्र 



बातें मेरी कहावतें और उनका तालमेल :  स्मृतियों के चलचित्र 

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(1) " एक प्रैशर कुकर में सब काम हो जाता है भाई साब !"


(2) "एक सार्टिफिकेट में ही सब काम हो जाएगा भाई साब , बार बार का चक्कर ख़तम ."


बातें याद आ जाती है , कहां की बात का मेरे मानस में कहां ताल मेल बैठता है कुछ समझ नहीं आता पर वही बताने का प्रयास करता हूं .


पहली स्थापना डाक्टर विनोद जोशी की दी हुई है और ये उस जमाने की है जब फोर्स्ड बैचलरहुड के दौर में वो किचन में मेरे सहायक बन जाते थे .

उन की मदद से तो मैंने दो विशिष्ट स्वजनों को बुलाकर दाल बाटी की दावत का आयोजन कर दिया था और इस प्रकार गैस तंदूर का उदघाटन समारोह 44 रवीन्द्र निवास में सुसम्पन्न हुआ था .

जोशी दलिया , दाल , सब्जी , उचित मसाले चिकनाई और बहुत कुछ डाल कर तहरी जैसा कुछ बनाते और उसे ही खाकर खुश हो जाते .

उस दौर में उन्होंने स्थापना दी थी :

" एक प्रैशर कुकर में सब काम हो जाता है भाई साब ."

ये स्थापना मुझे हमेशा ही अच्छी लगती है .

"एकै साधै सब सधै ...."

जोशी कर्मठ व्यक्ति हैं और उन्होंने इस डिश की कंटेंट वैल्यू का भी विश्लेषण किया था जो अब मुझे पूरा याद नहीं और इतना साइंस मैं पढ़ा भी नहीं ... खैर ....आगे बात करे .


दूसरी कहन पर आवें .

रुपल्ली दुपल्ली का भुगतान देने को लोग लाइफ सार्टिफिकेट मांगते हैं साल दर साल . मैं जीवन के दार्शनिक प्रश्नो में उलझकर ये काम अक्सर भूल जाया करता हूं और बाद में जाकर बड़े आदमी से प्रमाणित करवाता हूं कि मैं हूं . मैं अपने निजी "अहंकार" में प्रायः कह बैठता हूं ,

" अभी तो हम हैं " मेरी अपनी टेक है , आप इसका बुरा न मानें .

वैसे बड़ा आदमी खोजने को घर से बाहर नहीं जाना पड़ता , आज भी छोटा भाई ही बड़ा आदमी है और उसके पास एक मोहर भी है . ये दुनिया तो मोहर को ही मानती और पहचानती है .


अब आवें मुद्दे पर .

पार साल ऐसी नौबत आ गई थी कि

" एक सार्टिफिकेट में ही सब काम हो जाता है भाई साब , बार बार का चक्कर ख़तम........"

मुझे याद आए प्रोफ़ेसर वीं डी सिंह जो विनोद के पास जब आते हैं तो डैथ सारफिकेट बनाने को ही बोलते हैं , ये उनका स्टाइल है .


खैर ये नौबत गए साल भिवाड़ी में आई थी और अच्छा ही हुआ , तमाम बच्चे न्यूनतम समय में इकठ्ठा हो गए , भाई बहन डाक्टर भतीजा डाक्टर मित्रजन हॉट लाइन पर आ गए . भिवाड़ी से मानेसर के रॉकलैंड अस्पताल तक लेकर दौड़े मुझको .

बहर हाल वो सार्टिफिकेट हांसिल नहीं हुआ जिसका स्थापना में उल्लेख है . अपनी कदर भी पता लगी . जीवन संगिनी तो अनेक आशंकाओं से घिर गई पर मुझे तो पता था " पिक्चर अभी बाकी है ..." हालांकि युवा डाक्टर बड़े अच्छे थे भिवाड़ी में और उन्होंने पूछा था , " सच्ची सच्ची बताओ....." करके और मैंने भी खुल्लम खुल्ला यही पूछ लिया था ," रिजाइन करने का बखत आ गया क्या डाक्टर साब .... ?" पर अपन ऐसे न जाने वाले , अभी बहुत काम बाकी है .

अब आप लोग जो समझो वो समझो . जो बात है सो तो हई ए है .


प्रातःकालीन सभा स्थगित.

इति.

सुप्रभात 

सन्दर्भ और आलोचना के लिए अग्र प्रेषित :


Yogmaya Mathur

Lata Joshi

Vohita Joshi.

इन्हें कुछ याद आवे पुरानी बातें और किसी तरह विनोद जोशी तक भी बात पहुंचे क्योंकि उन्हें तो फेसबुक जैसी चीजों के लिए फुरसत है नहीं .-- सुमन्त .


सुमन्त


गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

18 मई 2015 .

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फ़ेसबुक पर चर्चित रही पोस्ट आज ब्लॉग पर साझा ।

दिल्ली

गुरुवार १८ मई  २०१७ ।

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बातें - मेरी कहावतें और उनका तालमेल : स्मृतियों के चलचित्र 



बातें मेरी कहावतें और उनका तालमेल :  स्मृतियों के चलचित्र 

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(1) " एक प्रैशर कुकर में सब काम हो जाता है भाई साब !"


(2) "एक सार्टिफिकेट में ही सब काम हो जाएगा भाई साब , बार बार का चक्कर ख़तम ."


बातें याद आ जाती है , कहां की बात का मेरे मानस में कहां ताल मेल बैठता है कुछ समझ नहीं आता पर वही बताने का प्रयास करता हूं .


पहली स्थापना डाक्टर विनोद जोशी की दी हुई है और ये उस जमाने की है जब फोर्स्ड बैचलरहुड के दौर में वो किचन में मेरे सहायक बन जाते थे .

उन की मदद से तो मैंने दो विशिष्ट स्वजनों को बुलाकर दाल बाटी की दावत का आयोजन कर दिया था और इस प्रकार गैस तंदूर का उदघाटन समारोह 44 रवीन्द्र निवास में सुसम्पन्न हुआ था .

जोशी दलिया , दाल , सब्जी , उचित मसाले चिकनाई और बहुत कुछ डाल कर तहरी जैसा कुछ बनाते और उसे ही खाकर खुश हो जाते .

उस दौर में उन्होंने स्थापना दी थी :

" एक प्रैशर कुकर में सब काम हो जाता है भाई साब ."

ये स्थापना मुझे हमेशा ही अच्छी लगती है .

"एकै साधै सब सधै ...."

जोशी कर्मठ व्यक्ति हैं और उन्होंने इस डिश की कंटेंट वैल्यू का भी विश्लेषण किया था जो अब मुझे पूरा याद नहीं और इतना साइंस मैं पढ़ा भी नहीं ... खैर ....आगे बात करे .


दूसरी कहन पर आवें .

रुपल्ली दुपल्ली का भुगतान देने को लोग लाइफ सार्टिफिकेट मांगते हैं साल दर साल . मैं जीवन के दार्शनिक प्रश्नो में उलझकर ये काम अक्सर भूल जाया करता हूं और बाद में जाकर बड़े आदमी से प्रमाणित करवाता हूं कि मैं हूं . मैं अपने निजी "अहंकार" में प्रायः कह बैठता हूं ,

" अभी तो हम हैं " मेरी अपनी टेक है , आप इसका बुरा न मानें .

वैसे बड़ा आदमी खोजने को घर से बाहर नहीं जाना पड़ता , आज भी छोटा भाई ही बड़ा आदमी है और उसके पास एक मोहर भी है . ये दुनिया तो मोहर को ही मानती और पहचानती है .


अब आवें मुद्दे पर .

पार साल ऐसी नौबत आ गई थी कि

" एक सार्टिफिकेट में ही सब काम हो जाता है भाई साब , बार बार का चक्कर ख़तम........"

मुझे याद आए प्रोफ़ेसर वीं डी सिंह जो विनोद के पास जब आते हैं तो डैथ सारफिकेट बनाने को ही बोलते हैं , ये उनका स्टाइल है .


खैर ये नौबत गए साल भिवाड़ी में आई थी और अच्छा ही हुआ , तमाम बच्चे न्यूनतम समय में इकठ्ठा हो गए , भाई बहन डाक्टर भतीजा डाक्टर मित्रजन हॉट लाइन पर आ गए . भिवाड़ी से मानेसर के रॉकलैंड अस्पताल तक लेकर दौड़े मुझको .

बहर हाल वो सार्टिफिकेट हांसिल नहीं हुआ जिसका स्थापना में उल्लेख है . अपनी कदर भी पता लगी . जीवन संगिनी तो अनेक आशंकाओं से घिर गई पर मुझे तो पता था " पिक्चर अभी बाकी है ..." हालांकि युवा डाक्टर बड़े अच्छे थे भिवाड़ी में और उन्होंने पूछा था , " सच्ची सच्ची बताओ....." करके और मैंने भी खुल्लम खुल्ला यही पूछ लिया था ," रिजाइन करने का बखत आ गया क्या डाक्टर साब .... ?" पर अपन ऐसे न जाने वाले , अभी बहुत काम बाकी है .

अब आप लोग जो समझो वो समझो . जो बात है सो तो हई ए है .


प्रातःकालीन सभा स्थगित.

इति.

सुप्रभात 

सन्दर्भ और आलोचना के लिए अग्र प्रेषित :


Yogmaya Mathur

Lata Joshi

Vohita Joshi.

इन्हें कुछ याद आवे पुरानी बातें और किसी तरह विनोद जोशी तक भी बात पहुंचे क्योंकि उन्हें तो फेसबुक जैसी चीजों के लिए फुरसत है नहीं .-- सुमन्त .


सुमन्त


गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

18 मई 2015 .

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फ़ेसबुक पर चर्चित रही पोस्ट आज ब्लॉग पर साझा ।

दिल्ली

गुरुवार १८ मई  २०१७ ।

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रामेश्वर जी बीडोली वाले : स्मृतियों के चलचित्र 

बनस्थली की बातें :


बनस्थली की बातेँ : रामेश्वर जी बीड़ोली वाले . 

बनस्थलीडायरी ________________________________

बनस्थली में मई 1971 में जब हम लोग 44 रवीन्द्र निवास में रहने आए तब से बीड़ोली वाले रामेश्वर जी से संपर्क प्रारम्भ हुआ और वो मेरे ऐसे आत्मीय बन गए कि मैं कभी नहीं भूल पाऊंगा .

पीली पगड़ी और धोती कुर्ता पहनने वाले पंडित रामेश्वर जी अपनी सायकल के पीछे दो ढोल भर कर दूध लाद कर अपने गांव से चलते और बनस्थली परिसर में दूध बेचते थे .

मुझे तो छह सात बरस हो गए वहां का घर छोड़े पर जब पिछले फेरे में वहां जाना हुआ तो राम जी लाल नाम के एक और दूध वाले ने सायकल रोक कर मुझे बताया ," माट साब , थां नै ठीक पड्यो क कोनै पंडित जी गया ?." अर्थात माट साब आपको पता लगा कि नहीं कि पंडित जी गए .

मुझे ऐसा लगा मेरी आत्मीय समष्टि का एक भाग मुझसे छिन गया .


रामेश्वर जी से जुडी हुई इतनी यादें हैं कि लंबी चर्चा हो सकती है , उनमें से थोड़ी सी ही साझा करूंगा . उनकी पहचान उनके गांव बीड़ोली से थी क्योंकि इस नाम के तो कई लोग थे जैसे दफ्तर में रामेश्वर जी हींगोटिया वाले इधर खेल मैदान वाला रामेश्वर , स्कूल वाला , कैंटीन वाला .....और भी कई रामेश्वर थे वहां आने जाने वाले पर आज की बात के कथा नायक पीली पगड़ी वाले बीड़ोली के रामेश्वर जी . एक रुपये लीटर के भाव जो उन्होंने सन इकहत्तर में दूध देना शुरु किया तो ये ग्राहकी शुरु हुई और उनके आते रहने तक बाद में उनके बेटे केदार और कैलाश तथा पोते सूरज के आने तक भी जारी रही . 

आज छोटी छोटी बातें बताऊंगा . 

एक दिन रामेश्वर जी आए , साथ में एक और दूधवाला मंसाराम भी था .

जीवन संगिनी ने हम सब के लिए चाय बनाई . मैं , रामेश्वर जी और मंसाराम बाहर वाले कमरे में बैठे चाय पी रहे थे और जीवन संगिनी चाय देकर रसोई - चौक की ओर लौट चुकी थी . शायद छुट्टी का दिन था मुझे भी बातों में बैठने की फुरसत थी और इन लोगों का भी दूध बांटने का काम पूरा हो चुका था अपने अपने गांव लौटने की कुछ बहुत जल्दी नहीं दीख रही थी . बातों का सिलसिला जारी था .

प्यालों में चाय बीती और तुरत पंडित जी ने एक कार्रवाही की . मंसाराम का कप तो उसके हाथ ही था , मेरा और अपना कप उठाकर पंडित जी ने मंसाराम को टिका दिया और कहा:


" ....जा रै मंशा , प्याला धो ..अर टंकी पै मेल्या .."

अर्थात मंशा ! कप धोकर टंकी पर रखकर आ जा ...।


मैं ने रोकने की कोशिश की दो कारणों से एक तो ये कि अपने ये चलन नहीं है कि अतिथि अपने बरतन धोकर ही जाए चाहे वो कोई भी हो और दूसरे बिना बात .... बैगर बात घर के अंदरूनी हिस्से में वो क्यों जावे जीवन संगिनी इसे गैर जरूरी हस्तक्षेप समझेगी और ...और मुझे टोकेगी ," हर किसी को अंदर भेज देते हो ?"

पर पंडित जी कब मानने वाले थे उन्होंने तो लपका दिया मंसाराम को और मुझे बोले :


" माट साब .... यो मन्शो कुम्हार छै .. आपणा प्याला धोवैलो तो ईं को जनम सुधर जायलो "

अर्थात ये मंशा कुम्हार है , अगर अपने कप धोवेगा तो इस का जनम सुधरेगा .

मेरे लिए एक से व्यवसाय के दोनों वक्ति बराबर थे पर पंडित जी के संस्कारों में बावजूद व्यावसायिक आत्मीयता के ये बात बच रही थी .


मंशाराम उमर में पंडित जी से कुछ छोटा जरूर था वो बात मानने वाली थी पर मेरा तो वो भी प्रेमी था .

कुम्हारों से मेरी दोस्ती के और भी किस्से हैं ... आएंगे आगे किस्सागोई में .

खैर मंसाराम अंदर चौक में गया और प्याले धोकर रख आया .

 पंडित जी महिमा को भूआ जी कहते थे ये भी मुझे याद है .


तब लोग वेतन का रोना रोया करते थे . मैंने वेतन का रोना कभी नहीं रोया ये तो मेरा अपना सोच है पर मेरे वेतन के बारे में पंडित जी का सोच बताता हूं जिसका अभिप्राय उनके कहे से ही स्पष्ट है . कहा उन्होंने :


" माट साब , थां कै जित्ता रिप्या मिलता होता नै तो बार तांई निवाई को आधो डूंगर घरां लिआतो ...",


अर्थात , माट साब आपके जितने रूपए मिलते होते तो निवाई के पहाड़ का आधा हिस्सा अब तक अपने घर ले आता .


पत्थर प्रतीक है पक्की तामीर का .


उस दिन मैं समझा कि किसी भी रकम के मायने देखने वाले के नजरिए के हिसाब से अलग अलग होते है . दाल रोटी का तो घाटा नहीं है और भुभुक्षा का कोई अंत नहीं हैं . रामेश्वर जी ने अपनी बात से मुझे बहुत जबर्दस्त कॉम्प्लीमेंट दिया था .


आज रामेश्वर जी से जुडी बनस्थली की यादों के साथ ही प्रातःकालीन सभा स्थगित करता हूं .

साथियों देर हुई है , आधी अधूरी ही सही पर ये है आज की पोस्ट और आज के नायक हैं मेरे अभिन्न मित्र पंडित रामेश्वर जी बीडोली वाले और सह नायक मंसाराम . इनकी याद आ जाती है तो और बात भूल जाता हूं .


इति .

सुप्रभात .

सुमन्त पंड़्या 

( sumant pandya )

 गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

17 मई 2015 .

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आज ये दो बरस पुरानी लिखी पोस्ट देखने में आई । आजकल मैं स्मृतियों के चलचित्र ब्लॉग पर प्रकाशित करने में लगा हुआ हूं । ये पोस्ट भी मेरे उसी नास्टेलज़िया का भाग है । 

आज प्रकाशित 

दिल्ली   

बुधवार १७ मई २०१७ ।

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Tuesday, 16 May 2017

भोत ना इंसाफ़ी : डूंगरपुर डायरी 

ये तो गए बरस की बात है : ना इंसाफी अभी भी वैसी है .

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#sumantpandya     


💐💐 ये गए बरस की आज के दिन की डाक है जो अभी फेसबुक दिखा रहा है इसे यहां पेस्ट करता हूं और फिर कहता हूं जो कहने की बात है . इस पत्र की प्रेषक हैं अरुंधती घोष , जिनसे मैं रूबरू अभी मिला नहीं पर पर भरोसा दिलाता हूं मिलेंगे जरूर .

तो वो क्या कहती हैं देख लीजिए :


*****

Sumant ji maine to socha tha aap dungarpur mein rehte hai aur yeh soch ke mai to aa gaya yahan pe. Lekin aap to nahi hai yahan pe!!!!. Bahot nainsafi hai .


लिप्यान्तरण :

------------ सुमन्त जी मैंने तो सोचा था आप डूंगरपुर में रहते हैं और ये सोच के मैं तो आ गया ( आ गई ) यहां पे . लेकिन आप तो नहीं हैं यहां पे !!!! . बहोत नाइंसाफी है .


*****अरुंधती घोष .

( अब बांगला भाषियों की हिंदी इसी प्रकार की होती है - सुमन्त . )


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अगर वो सोचती हैं कि मैं डूंगरपुर में रहता हूं तो सही ही सोचती हैं , जहां अपने बच्चे रहते हैं मां बाप को वहां रहना चाहिए और इस तर्क से मेरा एक स्थाई पता डूंगरपुर का भी बनता है , हिमांशु और प्रज्ञा जहां हैं वहां मैं और जीवन संगिनी तो इन अब्सेंशिया हैं ही . पर साक्षात नहीं मिले तो हो गई नाइंसाफी . 

इससे याद आया के एक बारी को जाना ही है डूंगरपुर . इस बात में जिनका हवाला है वो Himanshu Pandya और  Pragnya Joshi ।


पर एक बात और भी तो है , ये व्यवस्था इन्हें ही कौनसे डूंगरपुर में चैन से रहने देती है कब फलौदी जाने को बोल देवे पता थोड़े ही है इस बात का . अब ये तो राज काज है 

" जेही बिध राखै राज तेही बिध रहिए ." तुलसी दास के लिखे का थोडा रूपांतरण किया है मैंने .

अभी भिवाड़ी में हैं तो बहुत लोग सोचते हैं मैं यहीं रहता हूं तभी तो पूछते हैं , " कहीं चले गए थे क्या ? " अब किस किस को समझाऊं कि कहां चले गए थे . अब छोटा वाला भी तो चाहेगा कि दिल्ली आ जावें उसका क्या? 

इस सब में पुणे , मुम्बई और उदयपुर तो छूटे ही जा रहे हैं उसका क्या ? यहां भी मेरा रहवास है , दूतावास है , उसका क्या ?

तो अभी तो एक ही बात है 

भेळे होते हैं शिवाड़ एरिया , जयपर में और करते हैं शिखर सम्मेलन .

इसमें कोई नाइंसाफी नहीं है 

अब लेखन में बाधा है अतः प्रातःकालीन सभा स्थगित ..

****** टी ब्रैक .


सुप्रभात 

सुमन्त पंड़्या 

मंजु पंड़्या 


@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

  मंगलवार 17 मई 2016 .

आज सहेजे ये स्मृतियों के चलचित्र और अरुंधती की शिकायत के बहाने कह दी अपनी बात । आज दिन दिल्ली में हैं और यही है अपना घर इस बख़त ।

दिल्ली से सुप्रभात ।🌻

नमस्कार 🙏

बुधवार १७ मई २०१७ ।

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Monday, 15 May 2017

ट्राफिक जाम : जयपुर डायरी ।


ट्राफिक जाम 

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मेरे साथ ऐसा होता है , सब कोई के साथ नहीं भी होता होगा . मेरे साथ ही होता है ऐसा , मैं मानता हूं , मैं वैसे भी जीवन संग्राम का पैदल सिपाही हूं और हूं अकल से भी पैदल . जब मैं ट्राफिक जाम की कहता हूं तो मेरे भाई दोनों और जीवन संगिनी ही मेरी बात नहीं समझ पाते और लोग तो क्या ही समझेंगे भला . 

ये ट्राफिक जाम कोई टोंक रोड पर नहीं होता , किसी भी और सड़क पर नहीं होता जहां होता है वो जगह है मेरा मन मस्तिष्क . इस क्षेत्र तक या तो मेरी अपनी पहुंच होनी चाहिए या मेरे स्वजनों की . पर कभी कभी इस जाम को न तो मैं सुलझा पाता हूं न स्वजन समझ पाते हैं बाकी दुनियां को तो मतलब ही क्या है सब अपनी अपनी दुनियां के वासी हैं . इस जाम को न समझने पर स्वजन भी पराए से लगने लगते थे .

अतिरिक्त स्पष्टीकरण :

जाम का स्वरूप :

 कई सारे बकाया काम सामने आकर खड़े हो जाते हैं और लगता है इस जीवन में तो क्या ही निबटेंगे ये काम ? कभी लगता है जो होगा जो हो जाएगा जो नहीं होगा पड़ा रहे बकाया , अपने को क्या करना है , सब काम का ठेका लेवो ही क्यों . 

कभी कभी स्वजनों से मिला छोटा सा सुझाव किसी कार्य के लिए प्रवृत्त कर देता है तो कभी कभी किसी स्वजन या राह चलते तक की छोटी सी प्रतिकूल टिप्पणी हतोत्साहित कर देती है . " टू बी या नॉट टू बी " का द्वंद्व दोराहे पर खड़ा कर देता है , है न ये मेरे मन मस्तिष्क का मैनुफैक्चरिंग डिफेक्ट . अब है जो है बहुत सुधार की गुंजाइश नहीं है ये मैं माने लेता हूं और क्या ?

इस से अटपटी पोस्ट और क्या होगी ?

आभारी हूं देवयानी का उसने एक दिन याद दिलाया था ," पर्सनल इज पॉलिटिकल......."

तो इस मनोदशा को मैं अकेला ही क्यों कर भुगतूं , बना दी पोस्ट .

सुप्रभात .

प्रातःकालीन सभास्थगित .

सह अभिवादन : Manju Pandya


सुमन्त पंड़्या 

( Sumant Pandya.)

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर . जयपुर .

16 मई 2015 .

#स्मृतियोंकेचलचित्र #जयपुरडायरी

दिल्ली से सुप्रभात 🌻

दो बरस पुरानी पोस्ट है । आज इसे ब्लॉग पर दर्ज करने जा रहा हूं  । ये ट्राफिक जाम की समस्या कोई एक दिन की नहीं है , जब तब हो जाती है । आज ब्लॉग पर प्रकाशित ।

एस एफ एस फलैट्स , मुखर्जी नगर , दिल्ली 

मंगल वार १६ मई २०१७ ।

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Saturday, 13 May 2017

रेलवे की चाय : बनस्थली डायरी

रेलवे की चाय :बनस्थलीडायरी

इंजनकीचाय

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आज भोर में उठा और प्रायवेट कॉफी बनाने जा ही रहा था कि विचार आया क्यों न इस ' प्रायवेट ' का विस्तार किया जाए . बजाय एक के दो कप काफी बनाई और जीवन संगिनी को भी इसमें शामिल कर लिया . इतनी एकाकी न रही कॉफी . और आगे चाय के बारे में सोचते हुए रेलवे की चाय याद हो आई , वही बताने जा रहा हूं .


क्या हुआ था ?

किसी किसी बुधवार को हम लोग सुबह के बखत बीकानेर एक्सप्रेस से बनस्थली निवाई जाया करते थे . इस गाड़ी का इंजन उन दिनों कोयले से चलने वाला हुआ करता था . चाकसू के स्टेशन पर गाड़ी थोड़ा ज्यादा रुकती थी क्योंकि वहां क्रासिंग होता था. सामने से आने वाली गाड़ी आकर चली जाती उतनी देर बीकानेर एक्सप्रेस स्टेशन पर खड़ी ही रहती थी .ऐसे में एक बार की बात बताता हूं .

 हम लोग उतर कर नीचे डोलने लगे . विनोद जोशी भी मेरे साथ थे . ठण्ड तेज थी और हम लोग आगे की ओर, इंजन की ओर बढ़ गए . वहां इंजन चलाने वाले स्टाफ के लोग भी खड़े थे . जोशी जी ने उन लोगों से मेरा परिचय कराते हुए वहां पहुंचने का निमित्त बताया बोले .


" भाई साब को झुरझुरी हो रही थी इस लिए इधर इंजन के पास चले आए ." हां , जोशी जी ने यही शब्द काम में लिया था . तुरंत प्रतिक्रिया आई , इंजन के अंदर भट्टी में कोयला झोंकने वाला व्यक्ति बोला :


".....तो नींचे ही क्यों खड़े हो ऊपर आओ भट्टी के पास आज आपको हम इंजन की चाय पिलायेँगे ." 


 तब पैरों में ताकत थी , झट ऊपर चले गए , ठण्ड तो थोड़ी देर को छूमंतर हो गई और हम चाय बनाने की प्रक्रिया देखने लगे .


कैसे बनी तब चाय ?

वो भी सुनिए , एक लंबे हैंडल लगे बड़े से लोटा नुमा पात्र में दूध , पानी, चाय , चीनी एक साथ डाल कर उस कर्मचारी ने एक क्षण भर के लिए इंजन की भट्टी में डालकर वापस खींच लिया और और .... इस प्रकार चाय तैयार हो गई . छान कर कांच के गिलासों में चाय थमाकर उसने हमें चाय पीने का आवाहन किया . गाड़ी की प्रति किलो मीटर गति और इंजन की शक्ति के आधार पर उसने चाय का नामकरण भी किया था पर वो मुझे अब याद न रहा .

उस दिन मुझे जेम्स वाट की याद आई कि उसने शायद चाय बनाते हुए ही भाप की ताकत को पहचाना था .

बड़ा सुखद रहा उस दिन इंजन स्टाफ के साथ चाय पर वार्तालाप .

आगे होना क्या था हम लोग अपने सवारी डब्बे में लौट आए मगर ये बात यादगार बन गई .

आज के किस्से का शीर्षक तो " इंजन की चाय " होना चाहिए था पर आजकल रेलवे स्टेशन की चाय कुछ ज्यादा चर्चा में रहने लगी है और शायद गफलत में मैं ये शीर्षक दे बैठा .

प्रातःकालीन सभास्थगित .

इति.


सुप्रभात .

सह अभिवादन और समीक्षा : Manju Pandya


सुमन्त


गुलमोहर , बापू नगर , जयपुर .

14 मई 2015 .

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अपडेट .

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आज शनिवार 14 मई 2016 . आशियाना आँगन , भिवाड़ी से . 💐💐


आजकल दिन पर दिन बड़ा कठिन होता जा रहा है ऐसा कुछ लिखना जिस पर सेंसर बोर्ड की आपत्ति न आवे . या तो मेरे लेखन में कुछ गिरावट आई है न तो सेंसर बोर्ड के मानक कुछ अधिक सख्त हो गए हैं . जो भी हो अब स्थिति तो जो है सो है . 


प्रायवेट कॉफी भोर में हो गई और स्मृतियों के चलचित्र खोलकर एक स्टेटस बनाने ही जा रहा था कि फेसबुक ने ये पोस्ट दिखाई जो दो कारण से ख़ास है 


एक तो इसके सन्दर्भ में सेंसर बोर्ड की एक अनुकूल या कहूं सराहना की टिप्पणी दर्ज है .

माने ये ये प्रशंसित स्टेटस है तो क्यों न इसे सहेजूं और ब्लॉग तथा फेबु प्रोफाइल पर फिर से प्रकाशित करूं .


दूसरे वैसे तो सेंसर बोर्ड से प्रशंसा पाकर ही पोस्ट के भाव बढ़ जाते हैं पर आप सब ने भी खूब खूब टिप्पणी की थी , उनको भी मैं सहेजना चाहता हूं .

गए बरस सराहना के साथ साथ शेयर भी की गई थी ये पोस्ट तो आज फिर इस पर चर्चा क्यों न हो .

अब इसे नए सिरे से साझा कर मैं इन टिप्पणियों को अलग करना नहीं चाहता , अतः केवल ये संशोधन जोड़ कर पुनः चर्चा प्रवाह के लिए जारी करता हूं .


इधर दो एक दिनों से साथियों के अमूल्य सहयोग से चाय और कॉफी पर चर्चाएं चल ही रही हैं , मैं तो चाहूंगा न थमे वो चर्चाएं और उसी क्रम में ये पोस्ट भी मान ली जाए .

ये कोई साधारण चाय नहीं , ये है :


इंजन की चाय . 😊😊


चाय पीजिए , पोस्ट पढ़िए .


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सुप्रभात .


सुमन्त पंड्या .


@ आशियाना आँगन, भिवाड़ी .

  शनिवार 14 मई 2016 .


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फ़ाइल से लिया गया फ़ोटो साथ लगाया है जिसमें हैं मेरे साथ मेरे प्रिय मित्र विनोद जोशी । आज फिर से प्रकाश में लाने के निमित्त इसे ब्लॉग पर प्रकाशित किया जा रहा है ।

सुमन्त पंड़्या 

एस एफ एस फलैट्स , मुखर्जी नगर , दिल्ली  ।

रविवार १४   मई २०१७ ।

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Friday, 12 May 2017

मन कैसे लगेगा   ? : गुलमोहर डायरी 

मन कैसे लगेगा ?

----------------- #मनकैसेलगेगा

आ तो गए जयपुर पर अब यहां मन कैसे लगेगा , सुबह उठकर यही सोच रहा हूं . 

सब लोग और सब स्थान एक साथ तो नहीं मिल सकते .

अभी तो खैर कल रात भाई साब और भाभी जी भी आ गए हैं , अभी विशवास का एकांश आने से चिंकू भी आ जाएगा उससे मन बहल जाएगा . पर ये भी तो चार दिन रुक कर चले जाएंगे . कितने दिन मेरा मन लगाएंगे . सब लोग अपने अपने काम में लग जाएंगे . फिर क्या होगा ? मेरा मन तो सैम ( असीम ) से लगता था उसकी याद आ रही है . कल जब भिवाड़ी से चले तो कितना लाड़ जताया था उसने , अरे उसने तो फोन पर बात भी की थी मानो वापस बुला रहा हो . अभी दो बरस का भी तो नहीं हुआ पर अपनी बात कितने अच्छे से समझा देता है .

अब जयपुर आना था आए तो यहां की जिम्मेदारियां पूरी करें . ऐसे खयालों में डूबे रहने से क्या होगा ?

मन करता है फिर सैम के पास चला जाऊं पर ये भी अभी संभव नहीं .

कुछ काम काज में लग जा सुमन्त तभी काम चलेगा.

क्या ज़माना आ गया सब को दूर दूर कर दिया वरना तो ऐसी मन न लगने की समस्या हुआ ही नहीं करती थी .

आज की पोस्ट मेरे पागलपन का बयान भर है , इस को अभी समीक्षार्थ प्रस्तुत भी नहीं किया है , पोस्ट किए देता हूं और भाई साब की सेवा में उपस्थित होता हूं देखें वो क्या कहते हैं .

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

इति.

सेवामें समीक्षार्थ : Manju Pandya


सुप्रभात  🌅


सुमन्त पंड्या  

गुलमोहर , बापू नगर , जयपुर .

13 मई 2015 .

दो बरस पहले भिवाड़ी से जयपुर आने पर लिखी थी ये पोस्ट । एक ख़ास मनोदशा को इंगित करती हुई बातें हैं इसमें । 

आज इसे ब्लॉग पर प्रकाशित करने का मन किया ।

दिल्ली 

१३ मई २०१७  ।

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गुनाह बेलज्जत : गुड मॉर्निंग पोस्ट : दिल्ली से 😎

 गुनाह बेलज्जत : सुप्रभात पोस्ट 

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एक ही झक्क है , सुबह उठना कॉफी पीना और फेसबुक पर कुछ न कुछ मांड देना जिस पर बात चले , संवाद चले और ऐसे लगे कि दूर दूर बैठे अपने लोग भी अपने साथ हैं , वे यहीं कहीं हैं और अपनी चौपाल जैसी लगी है .


तो इस में दिक्कत क्या है ? करो न अपने मन की !


दिक्कतें कई हैं , मन करता है पोस्ट के साथ फोटो हो तो बात पर ध्यान जाएगा और फोटो जोड़ी जाए पर कभी तकनीकी बाधाओं के चलते होते छते फोटो नहीं जुड़ पाती , कभी सेंसर बोर्ड की मनादी आ जाए और कभी कभी तो फोटो के मायने ही बदल जाएं . जैसे कल की ही बात परसों की तैयार की फोटो कल छानै सीक जोड़ी तो उसमें गुस्सा दीखने लगा . अब बोलो गुस्सा करना तो मैं कभी का छोड़ चुका पर अपनी ही शकल अपने से ही बिगाड़ ली , ये क्या बात हुई .


सेंसरबोर्ड यों तो बड़ाई भी करे औरों के सामने ," तुम्हारे काका " , " तुम्हारे फूफाजी "," तुम्हारे जीजाजी "

 करके लेकिन इधर अपुन को जब चाहे लताड़ देवे . कभी कभी तो स्मार्टफोन का स्पर्श भी दंडनीय अपराध बन जावे . ऐसे में प्रातःकालीन सभा की ये थोड़ी सी फुरसत ही बच रहे जिसका लिखा ही होवे ," जो बिंध गया सो मोती " ✍🏼


और ये नैट साथ देवे तो देवे न देवे तो लिखा उड़ जावे और किया कराया बट्टे खाते .

ऐसे में ये है आज का " गुनाह बेलज्जत पोस्ट स्टेटस " इसके साथ जोड़ूंगा ढूंढ ढांढ कर कोई एक सेल्फ़ी .

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सुप्रभात.

समीक्षा प्रभार Manju Pandya

सुमन्त पंड्या .

@ आशियाना आंगन , भिवाड़ी

  शुक्रवार 13 मई 2016 .

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आशियाना आँगन भिवाड़ी में गए बरस लिखी थी ये पोस्ट । कमोबेश यही स्थिति आज है । आज दिन मुखर्जी नगर , दिल्ली से प्रकाशित कर रहा हूं ये पोस्ट । 

दिल्ली 

शनिवार १३  मई २०१७   ।

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Wednesday, 10 May 2017

ख़ुश रहा करो  ! दिल्ली डायरी 

कल रात विनीत ने पूछा मेरी पार्क में संगत के बारे में तो मैंने बताया कि आनन्द तो आता है इन प्रातःक़ालीन सभाओं में । आज के ज़माने में ज़हां आदमी के पास फ़ुरसत का टोटा है कोई लोग तो हैं जो एक दूसरे की सुनते हैं इन सभाओं में ।


बातें तो बहुत तरह की होती हैं पर मुझे ये अच्छा लगा कि इन लोगों ने मेरी कही बातों को सुनने का समय दिया जो अब प्रायः राजनीति से इतर होती हैं हालांकि वो मेरा विषय रहा पढ़ने पढ़ाने का ।

अब सुनिए छोटी सी बात । अग्रवाल साब जो अमूमन सभा की सदारत करते हैं मुझे नेक सलाह दे बैठते हैं :

" ख़ुश रहा करो ।"

इस अच्छी सलाह को मानते हुए मैंने उन्हें भरोसा दिलाया कैना ख़ुश ही रहता हूं । तज़ुर्बेकार लोग बात में नुक़्ता ढूँढ ही लेते हैं उनने भी दूंढ लिया , बोले :


" ख़ुश रहते तो ऐसे न होते ?"  


उन्होंने दाएँ बाएँ ऊँगली हिलाकर मेरी दुबली काया को इंगित किया । मैंने मुद्दा घड़ लिया और संगत के विचारार्थ रख दिया कि अग्रवाल साब ख़ुशी और मोटापे का अनिवार्य सम्बन्ध मान बैठे हैं । 


इस फ़्रण्ट पर तो मात खाए बराबर ही थी अपनी स्थिति कि एक उपाय से हो गई मेरी बचत । पार्क के कुछ एक चक्कर लगाकर जीवन संगिनी वहाँ आ निकली मुझे साथ लेने को और मैंने सबसे सशक्त तर्क इस्तेमाल कर दिया , कहा :


" आप देखते नहीं खुशी तो मैं साथ लेकर घूमता हूं !"

मेरी इस बात को सुनकर सब कोई बहुत ही ख़ुश हुए और जीवन संगिनी का सबने स्वागत अभिवादन किया ।


जो संवाद हुआ वही कहा है । अब अपडेट ये है कि वहां न जा पावूं तो अगले दिन ये लोग कहते हैं कि कल आपको मिस किया ।


जितने दिन दिल्ली में हैं मिलता रहे पार्क में जाने का अवसर , ये ही कामना है ।


दिल्ली 

गुरुवार ११ मई २०१७ ।

संलग्न : बीती रात का हमारा फ़ोटो बच्चों  साथ ।

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मां बाप नहीं रहते सृष्टि का नियम है : भिवाड़ी डायरी 

जैसे शिव अटल सत्य हैं वैसे ही मृत्यु भी अटल सत्य है ये कहने के लिए ही शिव दर्शन से सँवारी है ये ब्लॉग पोस्ट । जय भोलेनाथ और आगे की बात ।🔔🔔

मां बाप नहीं रहते : सृष्टि का क्रम है . 

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मां बाप नहीं रहते , सृष्टि का नियम है . मृत्यु अटल सत्य है पर मन नहीं मानता . एक प्रसंग बताता हूं जो यह सिद्ध करता है कि मां बाप कहीं नहीं जाते वो हमारे अंदर बाहर ही रहते हैं .

 ये तब की बात है जब मेरा एक पुराना दोस्त गिरधर कोई तीस चालीस साल बाद एक विवाह समारोह में मिल गया था . गिरधर की कहानी ये है कि वो कनाड़ा जा बसा और होटल व्यवसाई बन गया . भारत आया तो बेटे पोते साथ थे . पिछली मुलाक़ात के समय तो दोनों छड़े दोस्त थे .

दशकों बाद मिले तो मैंने कहा :

" जब अपन यूनिवर्सिटी में आगे पीछे साथ थे तो मेरे माता पिता थे , आज वो समय आ गया जब वो नहीं रहे , पर बच्चे हैं और अब तो मैं मानता हूं कि उनकी जगह इनने ले ली है ."

 और बात कहूं , वर्ष 2003 में ये अनायास निदान हुआ कि मैं डायबिटिक हूं , चिकित्सा और चर्या तो शुरु हुई पर मुझे दुस्वप्न भी सताने लगे , मृत्यु भय क्या होता है यह थोड़ा अहसास हुआ पर एक ही फिकर थी मुझे कि कोई अनहोनी मेरी अम्मा और भाई बहनो को न देखनी पड़े . 

बाकी तो आगे पीछे सबको जाना ही है , कितना झुल्ला हम दे सकते हैं बस इतनी सी बात है . मां बाप वो होते हैं जो मन से अपनी उमर संतान को लग जाने की दुआ करते हैं .

मां बाप का चला जाना तो सृष्टि का नियम है . ये नियम जब टूटता है और संतान पहले विदा हो जाती है तो ज्यादा दुखद होता है , वैसे ये भी कोई कहने की बात है .

मदर्स डे मनाओ या मत मनाओ आप की मर्जी.

फादर्स डे मनाओ या मत मनाओ आपकी मर्जी .

पर इन्हें जीते जी खुश रखो , हो सके तो संतान में मां बाप देख लो आप पाओगे कि कहीं नहीं गए हैं मां बाप .

प्रातःकालीन सभास्थगित.

इति.

सुप्रभात .


सुमन्त पंड़्या 

आशियाना आंगन . भिवाड़ी .

11 मई .2015 .

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अपडेट 

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फिर भिवाड़ी से आज दिनांक 11 मई 2016 .


तब सनातन सत्य पर बात कही थी और आप सब ने मेरी बात की अनुशंसा की थी , कोई कोई बात तो मन को छू लेने वाली थी उनमें .

इस पोस्ट को सहेजना है और ब्लॉग पर भी दर्ज करना है .

आज की प्रातःकालीन सभा का यही रहेगा प्रस्थान बिंदु ..

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सुप्रभात 

सुमन्त पंड्या .

@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी 

बुधवार 11 मई 2016 .


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दिल्ली से सुप्रभात 🌻

जाने क्यों ये चर्चा ब्लॉग पर प्रकाशित होने से रह गई थी । आज इसे ब्लॉग पर प्रकाशित किए देता हूं ।

जय भोलेनाथ ।🔔🔔

गुरुवार   ११ मई २०१७ ।

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Tuesday, 9 May 2017

छोटा वाला मेरे थक्के  - दो : बनस्थली डायरी  ।


छोटे वाले का अब का फ़ोटो  उसकी प्रोफ़ाइल से ले तो लिया है  पर बात तो बहुत पुरानी है ।

छोटा वाला मेरे थक्के : भाग दो . बनस्थलीडायरी

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ये तब की बातें हैं जब मैं बनस्थली में काम किया करता था .

अब बताता हूं फिर आगे की एक बात छोटे वाले बाबत बात . 


छोटे वाले के बारे में उस दिन पोस्ट बनाई उसकी ही पूरक बातें लिखूंगा .


जब यह चलने और बोलने लायक हुआ था तो प्राथमिक विद्यालय से 

निमंत्रण आ गया था कि इसे बाल मंदिर भेजा जा सकता है . शायद उनको बच्चों की जरूरत थी , हमें तो इसको स्कूल भेजने की इतनी जल्दी नहीं थी . जब बुलावा ही आ गया तो भेज दिया स्कूल .

गया दो चार दिन स्कूल और एक दिन अपने से ही एक निर्णय लेकर पूरे सत्र के लिए छुट्टी ले आया . बड़ी जीजी माने प्रिंसिपल कुसुम जी से कह आया ," मैं अगले साल आऊंगा."

नया सत्र आया और फिर से जब दाखिला करवाया तो आवेदन सबसे छोटी कक्षा ' शिशु जूनियर' के लिए ही किया हम लोगों ने पर मैं मान गया प्रिंसिपल साहबा को जब उन्होंने आवेदन में 'शिशु जूनियर ' काटकर 

' शिशु सीनियर' दर्ज कर दिया और ऐसा करने की वजह भी स्पष्ट की :


" ये पिछले साल ही स्कूल आया था और मुझसे कहकर गया था , इस लिए अब अगली कक्षा में ही दाखिला होगा ."


और इस प्रकार इसकी पढ़ाई समय से पहले ही शुरु हो गई थी . और ये आगे आगे पढ़ता ही चला गया .


पर आज तो उस दिन की बात जब ये मेरे अकेले के जिम्मे था और छोटा सा ही था . उस दिन मुझे अनुभव हुआ कि कामकाजी मांओं को बच्चे सम्हालना कैसा लगता होगा .

खुद भी तैयार हुआ और बेटे को भी तैयार किया और चले कालेज दोनों के दोनों . बी ए आनर्स की क्लास में पहुंचे और मैंने बेटे को कहा :


" जा , सीमा जीजी के पास बैठ जा ."


सीमा पड़ोस में रहती थी और मेरी क्लास में पढ़ती थी उन दिनों . इस प्रकार निभ गई मेरी क्लास मेरा पाठ जो क्लास के लिए था उसका साक्षी ये छोटा वाला भी बना .

शाम को एन एस एस कैम्प में मेरी भागीदारी थी उसमें भी इसे साथ ले गया . वहां तो सभा थी लड़कियां इसे साथ ले गईं और इसे एक गीत या कहें कविता सुनाने के लिए मना लिया . इसने भी माइक पर खड़े होकर गीत सुना दिया , जो इसकी मां सिखाती रहती थी .

ऐसे इसकी जुगलबंदी रही मेरे साथ जब तक जीवन संगिनी न आ गईं .

ये उन दिनों की बातें हैं जो जब तब याद आ जाती हैं.

बनस्थली के दिनों की यादों के साथ 

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

इति .

सुमन्त पंड़्या 

आशियाना आंगन भिवाड़ी .

10 मई 2015 .

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अपडेट 

आज फिर आशियाना आँगन , भिवाड़ी से  

 मंगलवार , दिनांक 10 मई 2016 .


#बनस्थलीडायरी के अंतर्गत लिखी ये बातें फिर से सहेजना और इन पर चर्चा चलाना मुझे ख़ास तौर से बहुत अच्छा लगता है और इसी लिए आज इस स्टेटस को फिर से चर्चा के लिए उठा रहा हूं .

ये आरोप तो लगेगा कि इन दिनों मैं कोई नई पोस्ट तो लिख नहीं रहा और पुरानी पोस्ट फिर से चला देता हूं पर मैं भी क्या करूं ये बातें कहीं लिखी दीख जाती हैं तो इन्हीं में अटक जाता हूं . औरों के साथ साथ विशेष रूप से क्षमा प्रार्थी हूं जीवन संगिनी से ;

   

सुप्रभात .


सुमन्त पंड्या .

    @ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

     मंगलवार 10 मई 2016 .

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आज दिन ब्लॉग पर प्रकाशित पोस्ट 

दिल्ली      १० मई    २०१७ ।

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Monday, 8 May 2017

बच्चों पर भरोसा : बनस्थली डायरी 

भरोसा बच्चों पर . ?? : बनस्थली डायरी 

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बनस्थली की बात है उन दिनों की जब पिछली शताब्दी बीत रही थी और इक्कीसवीं शताब्दी आने वाली थी .

एक दिन कंवर साब आ गए , उनकी बात पक्की हो गई थी और फियांसी बनस्थली में पढ़ रही थी . लड़की के पिता ने उनका परिचय पत्र भी बनाकर दे दिया था और साथ में यह ताकीद भी कर दी थी :


".....इनको मिलने दिया जाए , लेकिन अकेले में नहीं ..."


 माता पिता की भावना समझ में आने वाली थी . हिन्दुस्तानी सोच में बदलाव भी आ रहा था लेकिन थोड़ा .


लड़की उन दिनों एम फिल के शोध प्रबंध के लिए तैयारी कर रही थी और उसके पास एक युक्ति उपलब्ध थी इस निगरानी व्यवस्था से बाहर निकलने की . वही युक्ति लेकर वो मेरे पास आई थी . साउथ एशिया स्टडी सेंटर , राजस्थान विश्वविद्यालय , जयपुर में शोध के काम से जाना है इस नाम से छुट्टी के आवेदन पर सुपरवाइजर होने के नाते मेरी सिफारिश हो जाए तो छुट्टी मिल जाए .


बाकी तो घूमना फिरना, सिनेमा देखना हो ही जाय यह थी कुल बात .


मुझे तय करना था कि क्या मैं लड़की के माता पिता से ज्यादा उदार हो सकता हूं इस मामले में . मैंने घर में बैठकर विचार किया, जीवन संगिनी से भी सलाह ली और इस निर्णय पर पहुंचा कि मुझे आवेदन की संस्तुति कर देनी चाहिए , वही मैंने किया पर साथ ही कहा :


" देखो तुम्हारे माता पिता यहां नहीं हैं तो मैं उन दोनों की ठौर हूं पर मैं बंदिशों में विशवास नहीं करता और बच्चों पर भरोसा करता हूं .


इतना समझ कर जाओ कि अभी बात पक्की हुई है और तुम्हारा विवाह नहीं हुआ है...."

 मैंने तो छुट्टी दे दी .


ये दीगर बात है कि लड़की ने खुद ही जयपुर जाने का ये इरादा रद्द कर दिया . पर मैं तो बच्चों पर भरोसा करता हूं .


बनस्थली के दिनों को याद करते हुए 

प्रातःकालीन सभा स्थगित .


सुप्रभात .


सुमन्त

आशियाना आँगन, भिवाड़ी .

9 मई 2015 .

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फिर अपडेट आशियाना आँगन , भिवाड़ी से * आज दिनांक 9 मई 2016 .

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पिछले बरस की स्थगित प्रातःकालीन सभा के मुद्दे आज भी उतने ही प्रासंगिक और विचारणीय हैं , सभा पुनः प्रारम्भ 👌


सुप्रभात 

सुमन्त पंड्या

@ आशियाना आँगन 

अक्षय तृतीया 

9 मई 2016 .

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आज इसी दिन ये क़िस्सा ब्लॉग पर प्रकाशित :

दिल्ली  :   मंगलवार ९ मई २०१७ ।

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Sunday, 7 May 2017

विशाल की बाबत :  बाप बेटे का संवाद  

गोल्डन हाईट्स में किप्पर के साथ ये तो है मेरी फ़ोटो और अब जोड़ता हूं  विशाल के बाबत एक क़िस्सा ।

विशाल की बाबत  : बाप बेटे की बात ।

आज की चर्चा का नायक विशाल * है . पेरिस का फेरा लगा आना उसकी ड्यूटी का पार्ट है , फ्रांसीसी पर्यटक उसके भरोसे भारत भ्रमण करते हैं . गजब की शायरी लिखता है , जयपुर शहर से प्यार करता है पर मैं याद करता हूं पुरानी बातें जब वो पढ़ता था और शहर में रहता था .


विशाल रहता था मिस्त्रीखाने के रास्ते में और आता जाता रहता था हमारे शहर वाले घर में हिमांशु के पास . दोनों राजस्थान विश्वविद्यालय से एम ए कर रहे थे . अम्मा का प्यार और फटकार दोनों को बराबर हासिल थे .

विशाल तब भी बड़े बढ़िया शेर लिखता था और अब भी लिखता है .


उन दिनों घरों में बी एस एन एल के लैंड लाइन फोन हुआ करते थे . विशाल के घर में भी फोन था और हमारे घर में भी फोन लग चुका था . अम्मा समाचार की उम्मीद में अक्सर फोन के पास जा बैठती थी , उस बारे में फिर कभी बताऊंगा अभी बात विशाल की चल रही है वही बताता हूं .


ये एक टेलीफोन संवाद है जो मैं आज सार्वजनिक कर रहा हूं तनिक संकोच के साथ . मैं बनस्थली से चलकर जयपुर आया ही था कि विशाल का फोन आया हिमांशु को पूछने को . मैं तो उसकी आवाज पहचान गया पर जाहिर है वो मेरी आवाज नहीं पहचान पाया फिर जो कुछ हुआ वो संवाद से स्पष्ट है :

विशाल -"....हैलो...अरे हिमांशु."

इधर से _" नहीं है ..."

विशाल_ " कौन...उदय ?"

इधर से_'" नहीं है ."

विशाल _" जय ?"

इधर से_" नहीं...है ."

विशाल __"कौन..छुटकू ?"

इधर से _" नहीं है ."


याने इस घर में जो जो उपलब्ध हो सकते थे विशाल ने सब के ही तो नाम लेकर पूछा पर कोई भी तो नहीं मिला और आखिर में उसने एक बहुत ही सीधा सवाल पूछ लिया :


"...तो फिर कौन बोल रहा है ...?"


और अब जो मैं बोला वो मुझे आज तक याद है :


" विशाल कपूर *......तुम्हारे बाप बोल रहे हैं ."


बच्चा शायद थोड़ा चमका ये जवाब सुनकर पर तुरंत सहज हो गया और बोला:

" अरे...अंकल आप कब आए ..?"

पर शायद उस दिन आखिरी बार विशाल मुझे ' अंकल ' बोला . उसके बाद से वो मुझे "पापा" ही कहता है और जीवन संगिनी को " मम्मी" कहता है . 

अब ये बात आप लोग जान ही गए कि फेस बुक पर अपने जन्म देने वाले माता पिता के समकक्ष इन माता पिता को कब से और क्यों रखने लगा है विशाल ?

कुछ और बातें जो जीवन संगिनी इस बाबत जुड़वाना चाहती थीं वो इस पोस्ट में नहीं आ पाई वो फिर आगे कभी आ जाएंगी .

आज ही हिमांशु ** की भी एक पोस्ट देख रहा हूँ , नायक उस का भी विशाल ही है , अजब संयोग है .

इस किस्से को सार्वजनिक करने को विशाल बुरा नहीं मानेगा इस उम्मीद के साथ प्रातःकालीन सभा स्थगित .

इति.


सुप्रभात .

सहयोग और समर्थन : मंजु पंड़्या ।


सुमन्त

आशियाना आंगन, भिवाड़ी .

8 मई 2015 .

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आज का अपडेट जयपुर से दिनांक 8 मई 2016 .

------ गए बरस भिवाड़ी में थे तब लिखी थी ये पोस्ट इसमे आए संवाद देखने लायक हैं 

आज फिर भिवाड़ी जाने की ही बात हो रही है . सब कुछ चाहा जैसा हो गया तो शाम को चले ही जाएंगे भिवाड़ी और कल से प्रातःकालीन सभा वहीँ से संचालित होगी .

आज तो ये विशाल का किस्सा फिर से देख लीजिए , आजकल पड़ोस में ही गोल्डन हाइट्स पर रहता है और हम वहां कभी भी चेक इन कर सकते हैं पैदल पैदल जाकर भी .

अब फिर कोई ये मत पूछना के कौन है विशाल कपूर .

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सुप्रभात


सुमन्त पंड्या .

@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

रविवार 8 मई 2016 .

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आज दिन दिल्ली से ब्लॉग पर प्रकाशित जयपुर डायरी का ये प्रसंग ।

सोमवार ८ मई २०१७ ।

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विशाल के घर हम लोग । फ़ाइल चित्र ।

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गुरु शिष्य संवाद : नहले पर दहला । ✅

गुरु - शिष्य संवाद : 😊😊 कल की बात . 

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     #जयपुरडायरी #sumantpandya


 कल सुबह अनायास जनता स्टोर पर स्टेशनर की दूकान पर खड़े दिखे प्रोफ़ेसर रमाकांत . मेरे गुरु , बच्चों तुम्हारे दादा गुरु . इन्होंने मुझे मेरे विषय का पहला पाठ पढ़ाया जब मैं राजस्थान कालेज पढने गया . ऐसे थोड़े ही तो लोग हैं जिन्हें मैं पैरों में झुक कर प्रणाम करता हूं .

अल्प उपलब्ध समय में बहुत थोड़ी तो बात हुई पर हो गई बात 

“ सर , प्रणाम करता हूं .” मैं बोला .

मुझे आवाज से पहचान कर पीछे मुड़े गुरुदेव बोले :

“ आ हा सुमन्त कैसे हो ? “

“ सर आपके यहां आना चाहकर भी आ नहीं पा रहा हूं , कुछ मुसीबत से घिरा हूं .”


संवाद में नुक्ता ये भी है कि रमाकांत सर पार्क व्यू अपार्टमेंट्स में चौथी मंजिल पर रहते हैं , उनके चेले भी अब सीनियर सिटीजन हैं तो आप नुक्ता समझ सकते हैं .


अब सुनिए गुरु की बात :

“ ऐसा करो सुमन्त , मुसीबत के साथ आ जाओ ! “ 😊😊

और तब मैं बोला :

“ सर अभी हाल मुसीबत को सीढ़ी चढ़ना मने है . ये भी तो दिक्कत है . “


पर गुरु की उदारता देखिए , गुरु गुरु ही रहेंगे , दिया नहले पर दहला और बोले , वो बोले :


“ कोई बात नहीं सुमन्त , मुसीबत से मिलने मैं नीचे आ जाऊंगा “

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सुप्रभात . 

सुमन्त पंड्या .

सह अभिवादन : मंजु पंड़्या  ।

@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

रविवार 8 मई 2016 .

आज दिन दिल्ली से प्रकाशित ये ब्लॉग पोस्ट 

सोमवार ८ मई २०१७ ।

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Saturday, 6 May 2017

पापा वाली सब्ज़ी : बनस्थली डायरी 

छोटा वाला मेरे थक्के 😊😊 बनस्थली डायरी 


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ये तब की बात है जब बनस्थली में थे , जीवन संगिनी किसी कारण बाहर थी और घर में हम दो - बाप बेटे ही थे , मैं और छोटा वाला . दोनों के भोजन की व्यवस्था मेरे ही जिम्मे थी . बच्चे को लगातार साथ रखना और अपना पढने पढ़ाने का काम भी करना . उसी बाबत छोटी छोटी बातें हैं :


बात दोपहर के भोजन की :

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 सब्जी के नामपर खूब सारे मटर भिगो कर गया था . जब दोपहर का खाना बनाने की बारी आई तो कुकर में वो ही मटर उबाले गए , अल्प मात्रा में थोड़े टमाटर और भांति भांति के मसालों के साथ शोरबे वाली सब्जी छोंक कर तैयार कर दी और बना डाली अपनी जरूरत की रोटियां .

खाने बैठे चौक वाले बरामदे में , यहां दोपहर को घूप आ जाया करती थी जो सर्दी के मौसम में बड़ी अच्छी लगती थी . मौसम भी सर्दी का ही था .

भूख भी जोर की लगी थी दोनों को . खाने बैठे तो सिलसिला शुरु हुआ .


सब्जी कैसी लगी ? मैंने पूछा.

बहुत स्वादिष्ट है पापा . बेटा बोला .


असल में भूख में भोज्य पदार्थ स्वादिष्ट ही लगता है पर था भी सब कुछ संतुलित ये बात भी सही है . मेरा खाना बनाना उस बखत सफल हो गया लगा जब भोजन के दौरान बेटा बोला :


" पापा थोड़ा शोरबा और मिल सकता है क्या ?"

मैं बोला ," खूब सारा ले , अपन को खा कर ख़तम ही करना है ये सब कुछ ."

 फिर तो आगे भी बेटे ने मां को बताया कि मैंने उस दिन उसके लिए सब्जी बड़ी बढ़िया बनाई थी .

आगे आगे यह भी हुआ कि वो मटर की शोरबे वाली सब्जी घर में पापा वाली सब्जी कहलाई और जीवन संगिनी ने भी ये सब्जी बनाने का प्रभार कई एक बार मुझ पर ये कह कर डाल दिया , " पापा वाली सब्जी तो पापा ही बनाएंगे ."

आज वो छोटा वाला पाक कला में पारंगत हो गया , उसके बनाए भरवां टिंडों की दिल्ली में चर्चा होती है , पर मुझे तो उसका ये ही भोला सा कथन याद आ जाता है :


"पापा, थोड़ा शोरबा और मिल सकता है क्या ?"


धन्य जीवन संगिनी जो ये कहकर रसोई से बाहर हो जाएं कि,


"अब पापा वाली सब्जी तो पापा ही बनाएंगे ."

जय हो . जीवन संगिनी   मंजु पंड़्या ।


सुप्रभात .


सुमन्त पंड्या .

(Sumant Pandya)

आशियाना आंगन , भिवाड़ी .

7 मई 2015 .

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😊😊

आज फिर अपडेट जयपुर से -

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दिनांक 7 मई 2016 .

ये बातें फिर फिर याद करना बहुत अच्छा लगता है .

इसे सहेजना है और बनस्थलीडायरी के अंतर्गत प्रकाशित करना है ब्लॉग पर भी और प्रोफाइल पर भी .

कहने की आवश्यकता नहीं कि इस लेख से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं वो टिप्पणियां जो इस बाबत आप लोगों ने अंकित की .

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सुमन्त पंड्या .

@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर 

शनिवार 7 मई 2016 .

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दो बरस पहले भिवाड़ी में थे तब लिखी थी ये पोस्ट । गए बरस जयपुर में थे आज के दिन तब इस पोस्ट को दोहराया भी था । आज के दिन इत्तफ़ाक़ से जब छोटे वाले के पास दिल्ली आए हुए हैं तो फ़ेसबुक ने ये बात फिर याद दिलाई है तारीख़ के हिसाब से । अब इसे ब्लॉग पर पोस्ट किए देता हूं ।

दिल्ली  

रविवार ७ मई २०१७ ।

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लड़का लड़की भेदाभेद : भिवाड़ी डायरी ✍🏼

लड़का लड़की भेदाभेद : भिवाड़ी और बनस्थली से स्मृतियों के चलचित्र 

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कल की पोस्ट में बात महिमा को लेकर शुरु हुई थी , उसी पर रात तक बात चली . सभी सोचने वाली बातें हैं इन में से कोई निर्णायक अंतिम सत्य नहीं है . सवाल यही है कि घर परिवार , समाज में हम बच्चों को कैसे तैयार करते हैं इसी से उनका नजरिया बनता है और उनकी भूमिका तैयार होती है .

सरकारी स्कूलों बाबत चर्चा बहुत रोचक रही , इस बाबत अलग से पोस्ट लिखूंगा अपने उन अनुभवों को आधार बनाकर जो मैंने छात्र बनकर जुटाए थे. 

पिछले हफ्ते दोहितों के लिए आशियाना के स्टोर में ' किंडर जॉय ' खरीदने गया था , मैं बोला :


" दो किंडर जॉय दे देना "


अभि जो काउंटर पर बैठता है और मुझे जानता है , कुछ ऐसे बोला:


" अभी तो लड़कियों वाले हैं , लड़कों वाले शाम को आएंगे तब आपको दूंगा अंकल ."


मेरे लिए यह भी एक नई बात थी कि खाने खेलने की चीजों में भी ये जेंडर भेद है . जाने उसे कैसे पता था कि मुझे कौनसे किंडर जॉय चाहियेंगे .

बाजार भी वही भुनाने में लगा है जो लड़का लड़की भेद हमारे समाज में पाया जाता है .

अब आप ये मत पूछना कि ये "किंडर जॉय" क्या होता है वरना ये वैसा ही सवाल होगा :

"प्यारे मोहन जी नै नी जाणो ?" 

मेरी पिछली एक पोस्ट में आया था ये सवाल .


जीवन संगिनी बनस्थली के दिनों को याद कर रही थी तब कुछ बातें याद आईं . मैंने कह दिया था कि हम लोगों के लिए लड़का तो ' तड़ी पार' प्रजाति हुआ करता था , लड़की साथ रहती थी वहीँ पढ़ती थी . अब मैं ऐसे कहता हूं कि लड़का ' एक्सपोर्ट क्वालिटी ' का बनाया जाता था उसे परिसर से बाहर भेजना ही पड़ता था . उसी दौर का एक प्रसंग .


लड़कों के चक्कर में जीवन संगिनी बाहर चली गईं , शायद उदयपुर , घर में रह गए बाप बेटी . उन्हें चिंता थी कैसे पार पड़ेगी . पर सब कुछ ठीक रहा , जो बेटी अपनी मां के सामने कोई काम नहीं करती थी अब मेरी अम्मा बन गई थी . अरी वाह री महिमा * अम्मा की लाड़ली .


समय आने पर ऐसी परीक्षा लड़कों ने भी उत्तीर्ण की ये भी कहना पड़ेगा .

पर वो फिर कभी.....

* Mahima Pandya.


प्रातःकालीन सभास्थगित ,

इति .

समर्थन : Manju Pandya.

सुप्रभात .


सुमन्त

(Sumant Pandya )

आशियाना आंगन , भिवाड़ी .

6 मई 2015 .

दो बरस पुरानी पोस्ट है , आज इसे कर रहे हैं ब्लॉग पर साझा ।

काका नगर , दिल्ली ।  शनिवार ६ मई २०१७ ।

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Thursday, 4 May 2017

अनायास मिले जीवन सिंह जी : स्मृतियों के चलचित्र 

अनायास भेंट हुई जीवन सिंह जी से .

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😊😊


" आप जीवन सिंह जी हैं ?"


मेरा सवाल सुनकर उनके चेहरे पर चमक आ जाती है , मान जाते हैं कि वो जीवन सिंह जी हैं , कैसे नहीं मानते मैंने सही पहचाना था . और मैं अपना परिचय थोप देता हूं भले वो मुझे न जान पाए हों पहले प्रयास में 


" मैं सुमन्त पंड्या हूं ."

अब वो मुझे क्या जाने पर फिर भी जब कोई अटकने को बेताब हो तो गहक के मिलना लाजिमी हो जाता है , वही उनके साथ हुआ मिले पर एक प्रश्न के साथ :


" आप ने मुझे पहचाना कैसे ? "

मैं कहने लगा 

" आप को तो मैं दूर से ही देखकर पहचान गया था क्योंकि मैं आपको 2005 से जानता हूं जब आप बनस्थली आए थे , तब प्रोफ़ेसर नवल किशोर भी वहां आए थे और मैं उनकी हाजरी में था , आप भी साथ थे उस आयोजन में , प्रेमचंद की सवा सौ वीं जयंती का आयोजन था हिंदी विभाग वालों का और मेरा कई प्रकार से रिश्ता है हिंदी वालों से ......"


बात के लिए समय बहुत कम था अतः मैंने उनकी फोटो खींची और देखो नए जमाने का चलन उन्होंने भी मोबाइल फोन निकाला और मेरी उतार ले गए .


अभी मुलाक़ात से जुडी और कई बातें छूट रही हैं पर मुझे उठने का नोटिस मिल गया है अतः प्रातःकालीन सभा स्थगित ....

आगे देखेंगे कैसे क्या करना है .

फोटो प्रकाशित करते हुए

सुमन्त पंड्या .

गए बरस की बात है । पहले फ़ेसबुक पर दर्ज किया । आज इसे दर्ज कर रहा हूं दिल्ली में  बैठ कर ब्लॉग पर ।

तकनीकी सहयोग के लिए अक्षर भट्ट की विशेष सराहाना ।

आज एक विशेष निमित्त से दिल्ली में हैं । कुछ उल्लेख आया है और लिखूंग़ा समय निकालकर ।

दिल्ली से सुप्रभात 🌻

शुक्रवार ५ मई २०१७ ।

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