ऐसा होता है जब अनायास अपरिचित परिचित होते हैं तो कितनी पुरानी स्मृतियाँ ताज़ा हो जाती हैं .
कपिल भरिल्ल
ऐसा होता है जब अनायास अपरिचित परिचित होते हैं तो कितनी पुरानी स्मृतियाँ ताज़ा हो जाती हैं .
कपिल भरिल्ल
पोरम्परा है : भाग एक . मर्दाना धोती की बात .
#बनस्थलीडायरी
कहा गया शब्द वास्तव में परम्परा है पर इसे ऊपर इस प्रकार इसलिए लिखा गया है ताकि यह लगे कि यह किसी बांग्ला भाषी द्वारा कहा गया है । इस परम्परा को बताने के लिए पहले मैं आपको अपनी कहानी सुनाऊं । मैं और मेरा छोटा भाई विनोद Vinod Pandya हवामहल के नीचे कैंची और चाकुओं पर धार लगवाने गए हुए थे जो ऐसे उपकरणों से लगाईं जाती है जो फौलाद की बनी चीजों को भी पैना कर देते हैं । ये वो कारीगर था जो कभी तलवारों को धार लगाता था , अब घरेलू उपकरणों पर धार लगाने लगा था जो बरतते बरतते भोंथरे हो जाते हैं । इस काम की लागत की बात चली , जमाने की बात चली ,रुपये पैसे की बात चली तो एक रोचक संवाद हो गया । उसने एक सुन्दर और लठ्ठ जनता धोती पहन रखी थी । उसका एक सिरा झोली की तरह फैलाकर वो बोला :
या म्हारी बीस रिप्या की धोती छै , ईं मैं मैं धोण भर नाज बांध अर ल्या सकूं छूं ।
अर्थात ये मेरी बीस रुपये की धोती है ,इसमें मैं आधा मण याने बीस सेर अनाज बांध कर ला सकता हूं ।
इसके बाद उसने मेरी पतलून का एक पायचा नींचे से पकड़ कर एक झटका दिया और बोला :
या थां की कित्ताक की होली ? याने ये आपकी किस कीमत की है ?
मैं जवाब में पतलून की लागत बोला । जो कुछ भी मैं जवाब में बोला उसे तो जाने दीजिये , बल्कि मुझे याद भी नहीं कि तब पतलून कितने में बन जाती थी पर इतना याद है कि उसकी धोती की लागत और मेरी पतलून की लागत में जमीन आसमान का अन्तर था , और उसने जो पूछा वो मुझे आज तक याद है :
ईं मैं कित्तोक नाज बांध ल्यावोला .......?
अर्थात : इसमें कितनाक अनाज बांध लावोगे.....?
मुझे इस कारीगर ने निरुत्तर कर दिया था । धोती के प्रति आसक्ति शुरू हो गई थी । धोती के महत्त्व को कारीगर ने बहुत अच्छे से समझा दिया था । वे मेरे जयपुर प्रवास के दिन थे । मैं सारे जयपुर में धोती ही पहन कर घूमता । यह और सब को भी मैंने सुनाया , अनुयायी भी बनाये । उस समय के अध्ययन में विवेकानंद के लेख ' मॉडर्न इण्डिया ' और अरविन्द ( sri Aurobindo ) की कृति फाउंडेशन्स ऑफ़ इन्डियन कल्चर ने भी मेरी इस धारणा को मजबूत किया कि धोती के भारतीय पहनावे का कोई मुकाबला नहीं । बनस्थली लौटा तो भी धोती पहनने की अपनी आदत और प्रतिष्ठा साथ लेकर लौटा । ऊपर जिन कृतियों का उल्लेख आया है उनकी कुछ बात भी बताऊंगा और आज की पोस्ट को जो शीर्षक दिया है उसके साथ न्याय करने का भी प्रयास करूंगा । पर अभी के लिए ये एक भूमिका तो बन ही गई है । सेव करना मुझे आता नहीं इसलिए मैं इसे आपकी नजर के लिए पोस्ट करता हूँ।..........
पिक्चर अभी बाकी है .... यह केवल अंतराल है..........
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इस पोस्ट को फिर से जारी करने और इस कड़ी को पूरा करने का प्रयास करूंगा .
~ सुमन्त
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अपडेट
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दो बरस पुरानी पोस्ट है , फ़ेसबुक दिखा रहा है तो सोचा ये संस्मरण फिर उजागर होवे और इष्ट मित्र फिर देखें . यही सोचकर फिर बात छेड़ी है 🙏🌻
नमस्कार 🙏🌻
सुमन्त पंड़्या
@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
शुक्रवार १८ नवम्बर २०१६.
नोट
ये क़िस्से की शुरुआत है .
क़िस्सा आगे भी चलेगा .
जैसा मुझे याद आ रहा है कई एक कड़ियों में लिखा था ये क़िस्सा .😀
अथ श्री नेटाय नमः
भोर की सभा स्थगित ............
बनस्थली जाकर मैं ज्ञान विज्ञान महाविद्यालय में पढ़ाने लगा था । श्यामनाथ पहले से वहां अर्थशास्त्र के युवा प्राध्यापक थे उन्होंने मुझे पड़ौस के एक स्कूल अध्यापक लाभचंद ( बदला हुआ नाम ) जी से मिलवाया । उस दौर में stc ,jtc सरीखी डिग्री लेकर लोग स्कूल अध्यापक बन जाते थे । माट साब उसी पीढ़ी के अध्यापक थे । बी ए के किसी खण्ड की प्रायवेट परीक्षा दे रहे थे , उसकी तैयारी के सिलसिले में ही मुझसे मिलवाया था । माट साब ने अपने प्रयास से , श्रम से बीए भी किया बी एड भी किया और कालांतर में हैड मास्टर भी बने । मेरे घर बनस्थली में भी खूब आये , जयपुर में भी आये । उनके बीएड के दाखिले में भी मैं इंस्ट्रूमेंटल रहा । मैं श्यामनाथ की बताई एक बात से बहुत आहत था कि हमारे एक साथी ने तो इन माट साब को पढ़ाने के बदले गृह सेवक की तरह जोता था । खैर हमारे घर में ऐसा नहीं था । अध्यापक होने के नाते मैं उन्हें बराबर का दर्जा देता , उम्र में बड़े होते हुए भी वो जीवन संगिनी को भाभी जी कहते । यह पारस्परिक स्नेह लगातार बना रहा । खैर .....
खैर इन्ही माट साब के भोलेपन से जुड़ा हुआ एक रोचक प्रसंग बताकर आज की बात समाप्त करूं :
एक दिन माट साब ने मुझसे सौ रुपए उधार देने की मांग की । यह उस समय एक बड़ी रकम थी । मैंने 70 रुपये के एक क्विंटल गेंहूं खरीदे थे , तब की बात है । मुझे काकाजी * से ये सीख मिली थी कि किसी को उधार दो तो सामान्य स्थिति में उतना ही दो जो तुम गंवाना गवारा कर सको । मान लो कि ये रुपया लौट कर नहीं आएगा । मैंने माट साब को अपनी कुछ असमर्थता बताते हुए पचास रुपये तत्काल दे दिए ।
कुछ दिनों के बाद एक दिन माट साब कालेज में उस पेड़ के नीचे आये जहां मैँ कई साथियों के साथ बैठा था उन दिनों वही स्थान हमारा स्टाफ रूम होता था । ' कैसे आना हुआ माट साब ? ' मैं उनके लिए उठकर खड़ा हुआ । वो बड़े सहज रूप से बोले : मैं वो शेष राशि के लिए आया था । "
जाने क्यों माट साब ने ये मान लिया था कि किसी मजबूरी के कारण मैं उस दिन पचास ही दे पाया और पचास और दे देने का आश्वासन उन्हें मिल गया है , इसी लिए वो आज फिर से आये थे । मैं फिर उनके साथ अलग जाकर मिला ।
लौटकर वापिस आया तो साथी मुझसे पूछ रहे थे : अरे तुमने इस मास्टर से उधार ले रक्खा है ?
मेरे बड़कों आशीर्वाद रहा कि परिसर में कभी किसी से उधार माँगने नहीं गया और लोग क्या कहते हैं इस बात की कभी परवाह नहीं की .
आज के लिए इति ।
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क्या पूछा क़हां से ?
आशियाना आँगन भिवाड़ी से .🌻
आज गई शताब्दी का एक प्रसंग याद आ गया सोचा आपको वो ही बता देवूं . ये बताते हुए किसी का अनादर नहीं कर रहा केवल बात कर रहा हूं . तो सुनो स्वजनों :
गई शताब्दी में १९७१ की जुलाई में जब हम लोग ४४ रवींद्र निवास में रहने लगे तो हमारे घर के आगे की पंक्ति में हमारे प्रिय साथी माधोराम जी रहा करते थे , उनकी बड़ी बढ़िया आदत थी जो आज बहुत याद आ रही है . क्या करते थे वही बताता हूं .
बनस्थली में मंगलवार का साप्ताहिक अवकाश होता था . यदि उस दिन साथियों के साथ जयपुर जाने की योजना बनती तो वो सोमवार को ही बैंक हो आते और अपने बचत खाते से रुपये दस कंटान निकाल कर लाते तथा मंगल को हो आते जयपुर . सारा कैश घर में लाकर या बड़ा रोकड़ा घर में रखते ही नहीं . और ये भी तब कि जब बनस्थली में ले दे कर एक ही सहकारी बैंक था .
अब क्यों याद आई ये बात ?
इसलिए कि कैसा तो ज़माना था , रुपए दस में बनस्थली से जयपुर का आण जाण . किराया भाड़ा हो जाता और रूपए दो रुपए बच ही जाते थे आज तो दस रूपए की हालत ये है कि उस पर छोरा माँड़ देता है :
"सोनम गुप्ता बेवफ़ा है ."
तब दस रूपए की बड़ी इज्जत थी . तब माधोराम जी जैसे साथी थे जो दस रूपए में जयपुर यात्रा कर आया करते थे .
ये और क़हूं कि मेरे लिखे में रत्ती भर भी अतिशयोक्ति नहीं है .
ये सच है .
वे दिन और वे लोग बहुत ही याद आते हैं
#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी #sumantpandya
आभार और आदर सहित
सुमन्त पंड़्या .
@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
मंगलवार १५ नवम्बर २०१६ .
प्रातःक़ालीन सभा स्थगित ........
नोटबंदी के बाद हमलोग भिवाड़ी चले गए थे और अनायास आई विपत्ति को झेल रहे थे मिलजुलकर . उन दिनों पैसे , टके , बैंक की पुरानी बातें मुझे बहुत याद आया करती थी . ऐसी ही एक बात मैंने इस पोस्ट में लिखी थी . आज इसका ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण कर रहा हूं .
@ जयपुर गुरुवार १५ नवम्बर २०१८ .
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इधर जब से भिवाड़ी आए हैं हम लोग बाज पोस्ट में , न तो कमेंट में मैं ये घंटी की चिकसाणी ( निशान ) बणा देता हूं जिससे मेरे लिखे की पिछाण रहवे . आज ये ही सवाल उठाता हूं कि ‘ ये घंटी क्या है ?’
पहले एक बात
-------------- ये एक अध्यापिका की बताई बात है जब वो एक प्रशिक्षण के लिए गईं तब हवाई जहाज से यात्रा करके आईं . पहली उड़ान का उनको कैसा अनुभव हुआ वही उन्होंने अपने रोचक अंदाज में बताया था , शेष सन्दर्भ छोड़कर सीधे मुद्दे पर आते हैं :
" जब प्लेन उड़ने लगा तो जाने कैसे कैसे हुआ ! पहले ऐसे ऐसे हुआ , फिर वैसे वैसे हुआ , जाने कैसे कैसे हुआ ! "
बस लगभग ये ही बात तो अपणे साथ है पहले ऐसे ऐसे होता है , फिर वैसे वैसे होता है , जाणे कैसे कैसे होता है और सुबह सुबह ये घंटी बज जाती है अपणे आप और नींद खुल जाती है वो भी अपणे आप .
तो मान लीजिए ये सिद्धांत :
" सुबह की जगार का प्रतीक है ये घंटी . 🔔🔔"
ये अपने आप ही बजती है , अंदर से बजती है और मैं सुबह उठ जाता हूं बस इत्ती सी बात है .
फिर सुबह सुबह की एक और टेक है :
" Good morning & private coffee done @ आशियाना. 🔔"
ऐसे संदेसे मैं चारों ओर भेजता हूं , ये ही मेरे जन जागरण के सन्देश होते हैं . दूर दूर से जगार के संकेत और सन्देश मिलने लगते हैं . जो किसी दिन इसमें चूक जाऊं तो लोग ये सवाल करने लगते हैं :
" Private coffee not yet done ? "
इस प्रकार ये घंटी और कॉफी का भी निकटवर्त्ती सम्बन्ध है .
तो सुबह सुबह के ये दो काम हैं :
१. घंटी बजती है . 🔔
२. कॉफी बणती है .☕️
और यहीं से होती है अपनी सोशल मीडिया पर उपस्थिति दर्ज .
आज यही प्रातःकालीन सभा का प्रस्थान बिंदु है ।
अभी हाल के लिए सभा स्थगित ….।
नमस्कार
सुमन्त पंड्या .
@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
शुक्रवार ३ फरवरी २०१७ .
आज एक लम्बी खोज के बाद ब्लॉग पर प्रकाशित @ जयपुर १३ नवम्बर २०१८ ल
जीवन संगिनी से क्षमा याचना के साथ संपादित वृत्तांत Excuse me Manju Pandya
थियेटर ~
ब्रह्मपुरी चोवटी वीर हनुमान , सन उन्नीस सौ अस्सी के दशक की बात है .
वहां कोई अवसर ऐसा था कि प्रश्नोरा समुदाय के लोग वहां जुटे थे और अब शाम पड़े अपने अपने घरों को जा रहे थे , और लोग भी आए थे शायद कोई बैठक ख़तम हुई थी .
बाहर निकलने पर अपने अपने साधनों से लोग रवाना होने लगे .
सुरेन्द्र शर्मा दफ्तर से सीधे आए थे और अब घर को लौट रहे थे . उन्होंने अपनी मोटर में अम्मा , मोटी अम्मा , भूआ जी सरीखी सत्तर पार वृद्धाओं को बैठा लिया , आगे उनकी मोटर में ड्राइवर सीट के पास फाइलें रखी थीं और कोई ख़ास जगह बची नहीं थी . रामदास बाबा घर के बाहर ही खड़े थे और इन सब के बैठ जाने के बाद मुझे भी उस मोटर में ही बैठा देना चाह रहे थे ताकि जब ये लोग उतरें तो मेरा साथ रहे और मैं इन्हें संभाल सकूं . इसी को लेकर बाबा और सुरेन्द्र शर्मा में थोड़ी देर संवाद हुआ ~~~~~
एक सवारी और आ जाएगी .
अब और सवारी नहीं आ सकती .
आगे आ जाएगी एक सवारी .
नहीं, अब आगे सवारी की जगह नहीं है , जितनी आ सकती थी मैंने बैठा ली अब और जगह बची नहीं है .~~~~
बात बनती न देखकर बाबा ने मेरे दोनों कन्धों पर पीछे से हाथ रखे और मुझे उनके सामने किया ~
" इसे बैठाना है ."
तुरंत जवाब में शर्मा जी ने मोटर का आगे का फाटक खोल दिया मेरे लिए और बोले :
" इत्ती देर से सवारी सवारी कर रहे हो , ये क्यों नहीं कहते ,’ इस को बैठाना है .’ …..ये तो बैठ जाएगा. "
मैं बैठ गया . लेकिन करम भी पीट लिया
उमर हो गई टिकिट खरीदते खरीदते और यहां सवारियों में गिनती भी नहीं है .
मेरे अलावा इस प्रसंग से जुड़े सभी पात्र अब स्मृति शेष हैं पर बात है कि मुझे बार बार याद आ जाती है .
नमस्कार .
प्रातःकालीन सभा स्थगित …
इति .
~~~~~~
जयपुर
16 नवम्बर 2015 .
आशियाना से अपडेट :
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पुराना किस्सा है . कई बार सुनाया है , पर जब भी सुनाया जीवन संगिनी से बच बचा के ही सुनाया न तो वे ये ही कहती :
"मुझे ये अच्छा नहीं। लगता कि आपकी सवारियों में गिनती नहीं है . "
गए बरस राम बाबू के आग्रह पर पहली बार ये किस्सा सोशल मीडिया पर डाला था .
आज फेसबुक याद दिला रहा है तो सोचा गृह कलह का जोखिम लेकर एक बार फिर इसे एडिट कर दिया जाए .
टोका टाकी होगी तो देखी जाएगी . अब अपण तो जैसे हैं जो हैं .
आप तो मजा लो किस्से का .
किस्सा कैसा लगा ? अगर आपने पहले न सुणा हो तो , बताना जरूर .
नमस्कार
भोर की सभा स्थगित ..........
सुमन्त पंड्या .
@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
16 नवंवबर 2016 .
पुरानी बातें याद आ जाती हैं ।बाते छोटी छोटी हैं पर बताने का मन करता है तो सोचा साझा कर दूं ।
हम लोग उदयपुर में थे । ओझा साब काकाजी ( हमारे पिता जी ) के विभाग में थे और जब आते तो भूपालपुरा में हमारे घर आकर ठहरते । पुराने जयपुर में सब लोग सब लोगों को जानते थे । ओझा साब के साथ बाई जी, उनकी जीवन संगिनी भी आतीं । बाई जी काकाजी के मित्र नारायण जी ज्योतिषी की बेटी थीं ।
ओझा साब कई कई दिन तक आडिट पार्टी के मुखिया के रूप में जनजातीय क्षेत्र में रह कर आते । वहां के अनुभव बताते । एक दौर पूरा होता तो उदयपुर आते ।उदयपुर उनका मुख्यालय था ।
एक भोला ग्रामीण उन्हें दूध लाकर देता । वे सेर भर दूध लेते । कभी दूध सेर होता कभी सेर से कम । यह उसके पास दूध की उपलब्धता पर निर्भर था । अंत में हिसाब के समय वह चाहता कि पूरा एक सेर प्रतिदिन के हिसाब से ही उसे भुगतान मिले । उसका तर्क होता :
डोबो दूध न दे तो मूं कांई करूं ? पया तो लूं हीज । अर्थात् पशु दूध न दे तो मैं क्या कर सकता हूं ? पैसे तो लूंगा ही ।
और इस सादगी पर ओझा साब निहाल हो जाते ।
उदयपुर डायरी का ये संस्मरण जब मैंने पहली बार बताया तो प्रियंकर पालीवाल जो बोले वो मुझे बहुत अच्छा लगा , वो बोले :
" सही बात ! अब जानवर को तो कुछ नहीं कह सकते पर आदमी को तो समझाया जा सकता है . भले और भोलेपन के अपने तर्क होते हैं . और भले लोग ही इन तर्कों को समझ सकते हैं . अच्छा लगा यह प्रसंग ."
जब से सोशल मीडिया पर ज़्यादा ज़्यादा लोगों का जमावड़ा होने लगा है ये प्रजाति बढ़ रही है और अभी हाल मेरा प्रयास इन्हीं के बाबत सावधान करने का है .
पेड़ ट्राल्स और फोकटिया ट्राल्स में थोड़ा फ़र्क़ है . जो पेड़ हैं उनका तो ये काम है , जैसा उनके संगठन के आई टी सैल से निर्देश मिलता है उनको कहीं न कहीं अटकना ही होता है , किसी की अच्छी भली कही बात को बिगाड़ना और शालीन संवाद में बाधा पहुंचाना इनका काम होता है . इनके बारे में अभी अधिक नहीं क़हूंगा सिवाय इसके कि इन्हें भी शिष्ट होना चाहिए , अगर भुगतान कम मिलता है तो अपने आकाओं से बात करें पर यहां तो तमीज़ से बात करें . जैसा मैंने ऊपर कहा आज की मेरी बात फोकटियाओं के बारे में है .
कौन हैं ये लोग ?
ये अच्छे भले मेरे आपके जैसे लोग हैं . मेरा मानना है कि इन्हें मिलता तो कुछ नहीं पर इनको सोशल मीडिया पर दीखने की , दिखाई देने की ललक होती है और वो ये लोग इबारत टीप कर हसरत पूरी करते हैं . एक ख़ास तरह की ऐसी इबारत टीपना इनको रास आता है जो इनकी व्यक्ति पूजा की धारणा से मेल खाती है . कभी कभार मेरी ऐसे लोगों से बात भी होती रही है पर वो अपनी बात को आगे इसलिए नहीं समझा पाते क्योंकि मूल इबारत ही टीपी हुई होती है . भला उस बात को वो आगे क्या समझाएँगे . पता नहीं जानबूझकर या कभी कभी अनजाने में ऐसे लोग ही फेंक न्यूज़ को फैलाने में मददगार हो जाते हैं .
ये फोकटिया ट्राल्स साझा नहीं करते किसी की पोस्ट , स्रोत नहीं बताते जानकारी का ये तो टीपते हैं और जताते हैं ऐसे जैसे बात इनने ही लिखी है . एक ही इबारत कई जगह दीखती है तो क़लई तो खुल जाती है पर बात चली क़हां से ये कभी पता नहीं लग पाता . उन्हें ये इबारत क़हां से हाथ लगी ये मुझे निजी रूप से बता भी देते हैं पर गंगोत्री का गौमुख क़हां है ये तो इन्हें भी पता नहीं होता . ये तो बहती गंगा में हाथ धोने वाले लोग हैं .
आज के लिए ऐसे ही फोकटिया ट्राल्स का अभिनंदन .🌷
गए बरस की एक पोस्ट है जिसे आज ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूं , गए बरस से अब तक ये अभिनंदनीय समुदाय बहुत बढ़ गया है , आपको सावधान करने को ही दोहराईं है ये बात .
प्रकाशन और लोकार्पण @ जयपुर ६ सितम्बर २०१८.
कल सोचा था शिक्षक दिवस पर शिक्षा जगत का पहला अनुभव साझा करूंग़ा पर सारा दिन राम रामी में ही बीत गया . दस बजने आए मेरे फ़्यूज होने का समय आ गया अब कुछ तो क़हूं रिटायर होने से पहले .
अक्षर ज्ञान और जोशी बाबा :
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चार बरस की उमर में जोशी बाबा के पास ले जाया गया था घर के ठीक सामने जंगजीत महादेव की छत पर ज़हां जोशी बाबा पढ़ाया करते थे . उन्होंने ही पूरी वर्णमाला और आरम्भिक गणित सिखाई . ये कक्षा एक मंदिर की छत पर जरूर होती थी पर ये कोई धार्मिक शिक्षा नहीं थी , सामान्य शिक्षा ही थी .
गए दिनों जीजी ने मुझे बताया , जीजी को तो मेरा बचपन याद है ही , कि अक्षर बनाने के लिए मेरे हाथ में पेंसिल किसी को सहारा देकर पकड़ना नहीं पड़ता था जोशी बाबा मुझसे ख़ुश रहते थे .
मंदिर की छत पर जाने आने के लिए थोड़ी ऊँची और बेढ़ब सीढ़ियाँ थीं , मैं शारीरिक रूप से कमज़ोर बच्चा था , और बच्चे ज़हां कूदते फाँदते ये सीढ़ियाँ उतर कर नीचे आ जाते जोशी बाबा मेरा तो विशेष ख़याल रखते और आख़िर में जब वे छत से उतरते तो मुझे उनके हाथ की ऊँगली पकड़कर नीचे आना होता .
कक्षा का समापन प्रतिदिन समूह के साथ पहाड़े बोलकर ही होता .
इस तरह मुझे पहला दिन और पहली कक्षा आज तलक याद है .
रात्रि क़ालीन सभा अनायास स्थगित ....।।।
भिवाड़ी
५ सितम्बर २०१७ .
गए बरस की आज की स्टेटस ब्लॉग पर साझा @ जयपुर ५ सितम्बर २०१८.
लगभग वैसी ही परिस्थितियाँ हैं और भाद्रपद मास चल रहा है जिन दिनों ये संस्मरण लिखा था मैंने . आज इसे ब्लॉग पर दर्ज करना अच्छा लग रहा है .
कभी कभी जीवन में ऐसा भी होता है कि व्यक्ति को निराशा घेर लेती है और ये निराशा यदि लंबी अवधि तक बनी रहे तो घातक भी हो सकती है . लेकिन … लेकिन ये योगायोग की बात है कि कुछ अलौकिक घटनाएं ऐसी होती हैं कि निराशा अचानक छूमंतर हो जाती है और जीवनी शक्ति लौट आती है . ऐसे अनुभव सब के जीवन के होते हैं , घटनाओं के प्रभाव हर व्यक्ति के लिए उसके स्वभाव और प्रकृति के अनुसार अलग अलग होते हैं / हो सकते हैं .
मैं तो अपनी बात बताता हूं जो श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन से याद आ रही है , कई दिन से बताने का मन था पर एक तो उपकरण और संचार तंत्र ने कुछ साथ नहीं दिया और दूसरे दिल्ली में दो पारिवारिक शिखर सम्मेलनों में व्यस्त रहा जिसके चलते ये पोस्ट नहीं बन पा रही थी . देखते हैं अगर आज ये बात कुछ हद तक पूरी हो जाती है तो फेसबुक पर अपलोड कर देवूंगा . फिर आएगा शिखर सम्मेलनों की गतिविधियों का विवरण जो अलग पोस्ट का कलेवर बनेगा , देखिएगा जरूर .
दो महत्वपूर्ण व्रत :
मेरे घर में दो व्रत शायद पीढ़ियों से चले आ रहे हैं और महत्त्वपूर्ण हैं - श्रीकृष्ण जन्माष्टमी और शिवरात्रि जिनमें छोटे छोटे बच्चे भी यथा शक्ति सम्मिलित होते रहे , बिना किसी दबाव के , स्वेच्छा से .
कोई कठोर व्रत नहीं होते थे व्रत के बहुत उदार नियम होते थे इन की सीख मैं जैसे घर में बच्चों को देता वैसे ही अपनी विद्यार्थियों को भी देता और इसका बनस्थली परिसर में भी सर्वत्र निर्वाह होता . जहां तक मेरे घर की विरासत का सवाल है मेरे घर में वैष्णव भक्ति की परम्परा और मेरे ननिहाल में शिव भक्ति की चली आयी परंपरा से इसका सम्बन्ध रहा हो , उसकी तफसील में मुझे अभी नहीं जाना .
अब ये और और बातें बंद कर मैं मुद्दे की बात पर आवूं जो कहने का आज विचार बनाया है …
वर्ष 2003 ईस्वी .
अचानक ये पता लगा कि मेरा शरीर डायबिटीज की गिरफ्त में है और अब आगे से चिकित्सक की निगरानी में पथ्य और परहेज से रहना होगा . क्या खाया जाय क्या न खाया जाय ये भी डाक्टर और डाइटीशियन तय करने लगे . ये सब तो स्वाभाविक था पर इससे अधिक जो बताने लायक है वो ये कि मुझे दुःस्वप्न सताने लगे . मुझे अपने वो सब निकट रिश्तेदार याद आने लगे जो जीवन के अंत समय में या तो आंख की रौशनी गंवा बैठे थे या डाइबिटिक फुट के रोग के चलते एक एक पैर कटा बैठे थे .
ये केवल इस बात को बताने के लिए दोहरा रहा हूं कि जीवन में कैसी निराशा ने मुझे घेर लिया था और इसके कारण अपने कमिटमेंट भी पूरे करने में मैं आनाकानी करता था . भोजन में मिठास लुप्त हो गया था और यों भोजन में रुचि भी कम हो गई थी . ऐसे समय में उसी वर्ष गोकुल यात्रा ने मेरी सोच किस प्रकार बदल दी वही बताता हूं .
गोकुल यात्रा : निमित्त और अनुभूति
- इसे मैं एक सुखद संयोग ही कहूंगा कि हमारे साथी सुरेन्द्रपाल मिश्रा के बेटे प्रदीप का विवाह नियत हुआ था और बरात गोकुल जानी थी . मेरा विवाह में जाना पहले से तय था पर अब अपने बारे में नए रहस्योद्घाटन के बाद मैं साथ जाने में आनाकानी कर रहा था . मिश्रा जी मानने को कत्तई तैयार नहीं थे और आखिरकार साथ ले जाकर ही माने और इस प्रकार संभव हुई गोकुल यात्रा .
वैसे बृज प्रदेश की यात्रा मैंने पहले भी की थी अपने दोनों भाइयों के साथ पर इस बार साक्षात गोकुल पहुंचा था जो कृष्ण का गांव था और एक मांगलिक अवसर जिसमें अपने साथियों का साथ मिला था .
उस रात की बात याद करता हूं जब भोजन में अरुचि के चलते मैं जनवासे में अनमना सा लेटा था और सुरेन्द्र मिश्रा मेरी खोज खबर लेने आए थे , आखिर वो अपनी जिम्मेदारी पर मुझे साथ लिवा ले गए थे . वो वर के पिता थे , नेगचार के बीच भी समय निकाल कर आये थे मैंने कुछ नहीं खाया जानकर मुझे भवन के ऊपरी तल पर लिवा ले गए . वहां कढ़ाव में दूध ओट रहा था जो कुल्हड़ भर कर मुझे पीने को दिया गया . बगैर चीनी के भी गोकुल की गायों का दूध कितना स्वादिष्ट हो सकता था ये मैं उस रात ही जाना .
गोकुल की सडकों गलियों में मैं बारात के साथ भी घूमा और अगले दिन रवानगी के पहले भी . भवन , भित्तिचित्र , लोक व्यवहार और परस्पर अभिवादब में भी मैंने भगवान् श्रीकृष्ण को वहां लगातार उपस्थित पाया .
अधिक विस्तार में न जाकर मैं तो यही कहूंगा कि प्रदीप का विवाह और मिश्रा जी का साथ चलने का आग्रह निमित्त बन गए थे वास्तव में मेरा मन बदलने को मेरी सोच सकारात्मक बनाने को भगवान श्रीकृष्ण ने ही मुझे गोकुल बुलाया था उस बार .
मैं नहीं जानता कृष्ण इतिहास का विषय हैं या कवियों का घड़ा हुआ मिथक हैं पर गोकुल जाकर मैंने तो कृष्ण के रूप में एक वास्तविकता को अनुभव किया था .
बनस्थली के समय और साथियों को याद करते हुए ….
गोकुल यात्रा को याद करते हुए ..
सायंकालीन सभा स्थगित .।
सोमवार 29 अगस्त 2016 .
ब्लॉग पर प्रकाशन और पुनः लोकार्पण - जयपुर २९ अगस्त २०१८.
" पक्ष औ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं ,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है . "
- दुष्यंत कुमार .
कल परिस्थिति ने बहुत अनुमति नहीं दी इस लिए संसद की पूरी गतिविधि तो सजीव नहीं देख पाया पर रात मीडिया पर जो झलकियां देखीं उनसे कोई ख़ुशी नहीं हुई .
कई दिनों के बाद तो संसद बैठी बात करने को और बात हुई भी कल तो कैसी कैसी बातें हुईं वो मुझे दोहराने की आवश्यकता नहीं . भाषण कला में तो सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों अपने को पारंगत दिखा रहे हैं पर मूल प्रश्न से सब कोई कन्नी काट रहे हैं .
ऐसा लगता है कि सांसद सामने आए सवालों को टाल कर भोली जनता को रिझाने के लिए संसद के मंच का उपयोग करने लगे हैं .
संसद के पराभव को लेकर आम नागरिक की चिंताएं वाजिब हैं .
ये वे ही चिंताएं जो उस समय से ही शुरु हो गईं थी जब जेम्स ब्राइस ने दो खण्डों में मॉडर्न डेमोक्रेसीज नामक कृति लिखी थी . अब तो वे चिंताएं बढ़ने लगी हैं .
पहले संसद में कैमरा नहीं जाया करता था , अब कैमरा जाता है तो सारा देश देख रहा है कि ये हो क्या रहा है ?
अभी अभी मुझे बताया गया कि आज लैफ्ट हैँडर्स डे भी है . इस अवसर पर अपने सभी बांये हाथ वाले साथियों को सलाम करता हूं .
मैंने तो जो सूझा बांये हाथ से ही मांड दिया है अभी के लिए .
सह अभिवादन : Manju Pandya
आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
13 अगस्त 2015.
लैफ्ट हैंडर्स डे .
ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण १३ अगस्त २०१८.
ये किसी डाक्टर ने कहा है कि जब तब मैसेनजर खोल कर अनाप शनाप वीडियो , न तो फ़ोटो , आई गई इबारत इधर ठेल दिया करो ?
अगर ऐसा है तो उस डाक्टर ने प्रेसक्रिप्शन में जरूर साथ में मेरा नाम भी मांड़ के दिया होगा ?
मने पूछा है , वैसे ही .
गए दिनों प्रियंकर जी ने बहुत अच्छी राजस्थानी कहावतें फेसबुक पर उद्धृत कीं और जरूरत पड़ने पर उनकी व्याख्या भी की तो बड़ा अच्छा लगा . एक छोटा सा प्रयास इसी सन्दर्भ में ये भी है . मुझे केवल इस बात का डर है कि इन कहावतों को कहीं सेंसर बोर्ड ( मेरा अपना सेंसर बोर्ड ) रद्द न कर देवे . उस स्थिति में मैं तत्काल प्रभाव से इस पोस्ट को हटा लेवूंगा . अभी हाल के लिए दो कहावतें विचारार्थ रखता हूं .
1.
--- इशो तिशो .....
विवाह की आयु निकल रही थी और विवाह नहीं हो रहा था.
" किसका ?"
उसे रहने दीजिए , उससे क्या काम है . कोई भी इस बात का बुरा न माने इसलिए मैं कुछ नहीं कहूंगा .
मैंने तो स्थिति के स्पष्टीकरण के लिए एक कहावत कही थी वही दोहराता हूं :
" इशो तिश्यो मन भावै न , अर मोत्यां वाळो आवै न ."
पहली कहावत का अर्थ है ( इशो तिश्यो ...) कि ऐसा वैसा तो मन को भाता नहीं और मन भावन , मोतियों वाला आता नहीं .
कहावत हर उस परिस्थिति पर चरितार्थ है जब सामने उपलब्ध स्वीकार न हो और मनचाहा विकल्प मिलता न हो .
2.
-- बाई सा का ....
लेकिन विवाह तो हो गया , मेरी कही कहावत उस दिन रद्द हो गई .
मुझसे पूछा गया ,' अब क्या कहते हो? '
मैंने उस दिन दूसरी कहावत दोहराई थी :
" बाई साब का कंवार गिरह उतरगा अर कंवर साब की रिबरिबी मिटगी ."
दूसरी कहावत का अर्थ है परिस्थिति से ऐसा समझोता जिसमें कन्या की कुमारी अवस्था भी पार हो जाय और वर की रीरी पी पी ( किसी बात के लिए मचलना ) भी मिट जाए .
ये केवल कहावतें हैं , जीवन अनुभव पर आधारित , किसी को भी आहत करने के लिए नहीं हैं .
कुछ कहावतें मेरी अपनी गढ़ी हुई हैं , समय आने पर उन्हें भी साझा करूंगा . कुछ एक तो पहले साझा की भी हैं .
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
समीक्षा : Manju Pandya.
प्रियंकर जी की ये टिप्पणी विशेष रूप से उद्धृत :
" अभिव्यंजक ! दीर्घकालीन सामाजिक अनुभव का सार विन्यस्त है इनमें . "
ब्लॉग पर प्रकाशित ; ११ अगस्त २०१८.
आपका क़िस्सागो पार्क में .
एक्जामिनेशन तीन : राजस्थान विश्वविद्यालय :
बात बहुत छोटी सी है . सोचा था ये बताई जानी चाहिए या नहीं फिर लगा बताए देता हूं . सप्रसंग बताता हूं.
मैंने सुना है और कुछ कुछ याद है कि मुझे गुस्सा बहुत आता था, कुछ बड़ा हुआ तो बात बात पर अब गुस्सा नहीं भी आता था , पर ये जो मामला बता रहा हूं ये थोड़ा गुस्सा जताने का ही है . लोकेशन मैंने शीर्षक में ही लिख दी है - एक्जामिनेशन सेक्शन तीन , राजस्थान विश्वविद्यालय ,जयपुर .
राजस्थान विश्वविद्यालय .
राजस्थान का सबसे बड़ा और ऐतिहासिक विश्वविद्यालय जिसका फैलाव पूरे राजस्थान तक हुआ करता था और इसके परीक्षा प्रभाग का बहुत बड़ा कारोबार हुआ करता था . ये तब की बात है जब बनस्थली में मैं भी इसी विश्वविद्यालय के एक एफिलिएटेड कॉलेज में काम करने लगा था पर इस विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार दफ्तर में व्यक्तिशः जाने का तब तक कोई काम नहीं पड़ा था हालांकि मैं इसी परिसर से पढकर गया था .
मामला क्या था ?
- अंग्रेजी विभाग , बनस्थली में वाजिद साब ( रशाद अब्दुल वाजिद साब ) तब वरिष्ठ प्राध्यापक हुआ करते थे और स्वाभाविक रूप से विश्वविद्यालय की परीक्षा के परीक्षक भी थे . उनके पास जांचने के लिए कापियों का बण्डल आया हुआ था और वो उसमें लगे हुए थे . ये बात थी अप्रेल के अंत और मई के आरम्भ की . मई के शुरु में छुट्टी शुरु होते ही मैं तो आदतन अपने घर जयपुर आ गया था . वाजिद साब की एकजामिनर्शिप से मेरा कोई वास्ता नहीं था
मैं कैसे जुड़ गया मामले से ?
एक दिन रात पड़े वाजिद साब जयपुर में मेरे घर आए और उन्होंने अपनी परिस्थिति बताई कि उनके अब्बू सख्त बीमार थे, जो कि वास्तव में नहीं ही रहे, और उन्हें बरेली जाना पड़ रहा था , वे कापियां जांचकर अवार्ड लिस्ट तो पहले भेज चुके थे और कापियों का बण्डल जयपुर के बनस्थली भवन में रख आए थेऔर मुझे कहने आए थे कि मैं बण्डल वहां चलकर उठा लेवूं और यूनिवर्सिटी के दफ्तर में जमा करवाने की जिम्मेदारी लेवूं .
मैं बोला ," आप रिक्शा से आए , इसी में बण्डल भी पटक लाते , एक चक्कर तो बचता ."
पर जिसके पिता मृत्यु शैय्या पर हों उसे इतना ध्यान कहां रहता है , उन्हें तो घर पहुंचने की जल्दी थी और वो मुझसे ये मदद मांगने आए थे वो भी विश्वविद्यालय के हित में .
खैर इस परिस्थिति में मैं फिर गया उनके साथ बनस्थली भवन और रिक्शा में पटक कर बण्डल अपने साथ घर ले आया . अब ये बण्डल मेरी जिम्मेवारी बन गया . उसी दिन पहली बार मैं बनस्थली भवन गया था और रामकृष्ण जी भाई साब से मिला था जो बनस्थली भवन के केयर टेकर हुआ करते थे .
अगले दिन यूनिवर्सिटी रजिस्ट्रार आफिस :
-------------------------------------------- जैसा बण्डल मूझे मिला था फिर एक रिक्शा में डालकर मैं रजिस्ट्रार ऑफिस पहुंचा जहां ये जमा होना था . पता किया ये एक्जाम सेक्शन तीन में जमा होना था सो मय बंडल वहां पहुंचा . वहां एक कठिनाई आ गई कि बण्डल के साथ स्टेटमेंट का एनवलप और होवे तब ही ये बण्डल जमा हो सकता है अन्यथा नहीं . ऐसा कोई लिफाफा मेरे पास तो था नहीं . जिन्हें बण्डल ले लेना चाहिए था वो बाबू लोग बण्डल लेवें नहीं , जिन्हें लिफाफा बनाकर देना चाहिए था वो मौके पर मौजूद नहीं , मेरे पास उनसे संपर्क का कोई जरिया नहीं . कुल मिलाकर मेरे लिए अजीब मुसीबत कि क्या करूं इस बण्डल का . केवल इतनी राहत की बात थी कि बण्डल पर एक्जामिनर नंबर अलबत्ता लिखा हुआ था . इस कथा में इतना तो साफ है कि इस बण्डल को मैं पहले दिन से ढोते ढोते परेशान हो चुका था और अब इससे निजात चाहता था .
इस मामले में मैं असिस्टेंट रजिस्ट्रार साब से मिला तो उन्होंने भी वही नियम की बात कही हालांकि सारी बात मैं उन्हें समझा चुका था .
ए आर साब की बात सुनने के बाद मुझे तय करना था कि मेरा अगला कदम क्या हो, जिस रिक्शा से बण्डल ढो कर वहां तक लाया था वो मैं पहले ही लौटा चुका था और सोच रहा था कि इसे कैसे ले जावूं और कहां ले जावूं . तब मुझे सूझा और मैं ए आर साब से बोला :
" अगर आप इस बण्डल को जमा करने को तैयार ही नहीं हैं तो मैं भी अब इसे लेकर कहीं नहीं जाऊंगा , यहीं दफ्तर के बाहर रखकर इसे आग लगा दूंगा......."
मेरा इतना कहना था कि ए आर साब को बात समझ आ गई और बोले:
" नहीं नहीं आप ऐसा मत कीजिए ... मैं करवाता हूं जमा."
उन्होंने मुझसे ये जरूर कहा कि इस बाबत मैं अपनी ओर से एक पत्र लिखकर दे देवूं साथ में और मैंने वहीँ उनकी सीट के सामने बैठकर वो पत्र लिख कर उनके सुपुर्द कर दिया .
बण्डल जमा हो गया और राजिट्रा्र दफ्तर ने उसकी एक औपचारिक रसीद भी इस बाबत दे दी . मेरा भी सिर दर्द मिटा .
बरसों पुरानी बात हो गई पर ये वो दिन था जब मैंने थोड़ा सा गुस्सा दिखाया था , परिस्थिति की मांग ही कुछ ऐसी थी .
इस छोटे से संस्मरण के साथ प्रातःकालीन सभा स्थगित .
प्रसंग समीक्षा : Manju Pandy.
जब ये चर्चा चली कि मैंने ऐसा किया तो इस पर सुभाष गुप्ता साब . जो आर्गनाइजेशनल बिहेवियर के विशेषज्ञ हैं , ने इस व्यवहार की व्याख्या इस प्रकार की ;
" There is a difference between 'losing temper' and 'using temper'. It is a good example of using temper appropriately. "
डाक्टर चंद्रिका मालिक ने साफ़ कहा :
"It was losing temper constructively..."
और इस प्रकार लगभग सभी ने मेरे व्यवहार की संस्तुति की . अभी अभी जीजी ने कहा कि ऐसा ही करना चाहिए था , अनन्त ने कहा कि ग़ुस्सा करना शायद समय की माँग थी .
टीका सहित ब्लॉग पर प्रकाशित
@ जयपुर १० अगस्त २०१८.
बाजार से निकला हूं खरीदार नहीं हूं .....
ये तो कभी सुनी हुई ग़ज़ल का मतला है जो वैसे ही याद आ गया सो शीर्षक के रूप में मैंने डाल दिया क्योंकि बात बाजार की करने जा रहा हूं . जाने सही भी बैठेगा कि नहीं , अब आगे देखी जाएगी .
हमारे कंवर साब भारत भूषण जी ने एक बड़ी मार्के की बात बताई थी वो आज जन हित में प्रकाशित किए देता हूं :
" ..... जब आप आज के जमाने की किसी दूकान में कदम रखते हैं तो दूकानदार पहले पहल आपके जूतों पर नजर डालता है कि आपने जूते कितने मंहगे पहने हैं . अगर आपने मंहगा जूता पहना है तो यह तय हो जाता है कि आप लायक खरीदार हैं. "
गरज ये है कि जूते और बाजार का बड़ा नजदीकी रिश्ता है .
अपना आलम ये है कि मंहगा जूता पैर में काटता है . जूता बेचारा तो अपनी जगह है जूता नहीं पैसा काटता है , ये कहना ज्यादा सही होगा .
अंगरखी और पगरखी .
- आज भी मुझे ये अंगरखी और पगरखी का पहनावा बहुत आकर्षित करता है और मैं अपने बाबा मदन जी महाराज का चित्र देखकर अभिभूत हो जाता हूं कि क्यों अपन अपना पहनावा भूल गए ,इस पश्चिमी वस्त्र विन्यास के पिछलग्गू हो गए . क्यों इस बाजार में आ गए जिसने एक से एक बढ़िया उपाय किए हुए हैं जेब खाली करने के .
इस जूतों से सजे बाजार में बच्चे नए जूते दिलाने को आमादा रहते हैं और मैं कह पड़ता हूं :
" अब मुझे जूते और दिलाओगे क्या ?"
जूतों का व्यापार :
- भिवाड़ी में मुझे एक सज्जन जूतों का व्यापार करते मिले , उनकी बिरादरी का नाम कुछ ऐसा था जो जूतों के व्यवसाय से मेल नहीं खा रहा था और इसी बेमेल बात की मुझे वो कैफियत दे रहे थे , उन बेचारों को मैं क्या समझाता कि मैं तो हाथ के कारीगर की इज्जत करता हूं चाहे वो बनस्थली का पोखर हो या जयपुर में मेरे पड़ोस का मनसा राम .
पोखर से तो अब जाने कब मिलना होगा पर जयपुर पहुंच कर मनसा राम का साक्षात्कार प्रकाशित करूंगा.
पर चलो ये बदलाव तो आया नए जमाने में कि जो बिरादरी के नाम पर अपने को बड़े मानते थे वे भी जूता व्यवसाई बन गए .
बात थोड़ी अटपटी और अस्पष्ट तो रही पर आज का एकालाप इतना ही
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
समीक्षा : Manju Pandya
आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
9 अगस्त 2015 .
Photo credit . Pragnya Joshi
ब्लॉग पर प्रकाशन ९ अगस्त २०१८.
सप्लीमैण्ट :
पोस्ट तो २०१५ में लिखी थी भिवाड़ी में , फिर २०१६ में जोड़ी थी एक भूमिका , आज फिर से साझा और साथ में ब्लॉग लिंक :
आशियाना से सुप्रभात ☀️
Good morning .
अभी फेसबुक खाता खोलने पर मेरा यंत्र बीते समय की ये पोस्ट दिखा रहा है जिससे कई एक पुरानी पुरानी बातें याद आने लग गईं . आज उन में से कुछ एक बातें यहां साझा किए देता हूं .
1
पैरों में ये देशी जूता जोड़ी मेरे लिए बनस्थली में रहवास की यादगार है , ख़ास तौर से उस दौर की जब रवीन्द्र निवास में मेरे घर के आस पास बबूल का जंगल हुआ करता था और इस बात का खतरा बना रहता था कि नाजुक जूता या चप्पल पहन कर अगर घर के बाहर कदम रखा तो पैर में गहरा शूल चुभ जाएगा .. । ऐसी जूता जोड़ी ने मेरे पैरों की हमेशा रक्षा की .
2
हालांकि ऐसी जूता जोड़ी पहनने वाला नव सभ्य समाज में गंवार समझा जाएगा पर मुझे हमेशा से ही गंवार समझा जाना पसंद है बनिस्पत हाई सोसाइटी का समझे जाने के .
आज जब आयातित जूतों से बाजार अटा पड़ा है इंसान की हैसियत जूतों से ही तय होती है . कभी कभी तो मुझे लगता है जूता और पैसा पर्यायवाची हैं .
3
एक हल्की फुल्की : 😊
--------------------
भाभी जी को चप्पल में घूमने जाते देख श्रद्धा ने कहा था :
" मैं ... आप को जूते दिलाऊंगी 😊"
मेरी जैसी आदत मैंने तो इस पर यही टीका की
".... के अब ये ही कसर बाकी रही है 😊......."
4 .
अब मुझे अधिक कहने की आवश्यकता नहीं कि मुझे मंसाराम से क्यों इत्ता लगाव है .
अगर देश की राजनीति का ये ही आलम रहा तो आगे से ऐसी देशी जोड़ी तो आपको देखने को न मिलेगी कहे देता हूं .
मेरे थोड़े कहे को अधिक समझना .
5.
उमड़ घुमड़ कर कई बातें याद आ रही हैं पर प्रातःकालीन सभा के लिए उपलब्ध समय बीता जा रहा है . आगे जारी रहेगी #बनस्थलीडायरी और #स्मृतियोंकेचलचित्र . अभी भी पोस्ट लिखकर जी हल्का नहीं हुआ और चलाऊंगा बात आगे .
नौ अगस्त के ऐतिहासिक महत्त्व और शहीद दिवस को याद करते हुए ...
शहीदों को नमन.........
---------------
--सुमन्त पंड्या .
@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
मंगलवार 9 अगस्त 2016 .
@जयपुर ९ अगस्त २०१८.
गए दिनों बनीपार्क बार बार जाना हुआ ।एक मार्ग पर पत्थर पर लिखा देखकर मैं थोड़ी देर के लिए ठहर गया , लिखा था ' धापी बाई मार्ग ' । मुझे एक पुराना प्रसंग याद आ गया । मुझे हरि भाई ने बताया था कि शर्मा जी बनस्थली फ्लाइंग क्लब से रिटायर होकर जयपुर में बसने जा रहे थे । बनी पार्क में अपने प्लाट पर उन्होंने मकान बनाया । बस्ती धीरे धीरे बढ़ रही थी । गली की संख्या और प्लाट नंबर से घर की पहचान थी ।इस बीच उनकी मा गुज़र गयी । अपनी मा की याद को जीवित रखने के लिए वे एक तख्ती बनवा कर लाये जिस पर लिखा था - धापी बाई मार्ग * । शर्मा जी ने तख्ती को अपनी गली के मोड़ पर गाड़ दिया और इसे * धापी बाई मार्ग* के रूप में प्रशस्त कर दिया ।
अब वे अपने डाक के पते में भी धापी बाई मार्ग लिखने लगे । वहां आकर बसने वाले अन्य लोग भी अपने पते के रूप में ' धापी बाई मार्ग , बनी पार्क , जयपुर ' लिखने लगे । पोस्टमैन भी इस मार्ग को धापी बाई मार्ग के रूप में जानने लगा और बढ़िया ये रहा कि नगरपालिका में भी यह धापी बाई मार्ग के रूप में दर्ज हो गया ।
यही है ' धापी बाई मार्ग ' के नामकरण की कथा । इस मार्ग के आरम्भ में पत्थर पर शर्मा जी की माँ का नाम उकेरा गया है ।
फ़ेसबुक पोस्ट रूप में जब ये चर्चा चली सन २०१४ में तो प्रियंकर पालीवाल जी की दो टिप्पणियाँ आईं जो यहां उद्धृत करता हूं :
१.
कई बार सदिच्छाएं ऐसे ही सरल-सहज ढंग से फलीभूत हो जाती हैं . आखिर सबसे पुराने बाशिंदे का कुछ तो विशेषधिकार बनता ही है . मुझे मार्खेज के हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलीट्यूड का गांव-कस्बा मकोंडो याद आया जिसमें गांव को बसाने वाले सीनियर बुएंदिया इस बात पर नाराज होते हैं कि हमारा घर किस रंग से पोता जाए, नगरपालिका यह तय करने वाली कौन होती है . गांव के बहाने बदलने-बढने-सधने-बिगड़ने की अजब-गजब दास्तान है यह .
२.
आपके संस्मरण इतने सहज-स्वाभाविक ढंग से आ रहे हैं कि सीधे मन में उतर जाते हैं. आपको लगातार लिखना चाहिए . एक के बाद एक कड़ी जुड़ती रहे . कई जगहें तो ऐसी हैं जहाँ मेरा भी जाना-रहना हुआ है तो रिकनेक्ट कर बहुत अच्छा लगता है . जैसे बापूनगर और जनता स्टोर का जिक्र . अब गुड वाला किस्सा आ जाए तो उत्सुकता कुछ शांत हो .
इन टिप्पणियों ने मेरा उत्साह बहुत बढ़ाया .
K
ब्लॉग पर प्रकाशित ८ अगस्त २०१८.
फिर बनस्थली की याद : मोहन सिंह जी माट साब - भाग तीन .
कल मैंने बताया था कि माट साब के अभिन्न मित्र कल्याण मल जी ब्यावर से चलकर बनस्थली आए . अवसर था सरोज का विवाह . वह उनकी इस पैमाने पर एक मात्र बनस्थली यात्रा थी जिसमें वो लोग तीन दिन वहां रुके और इस बाबत अक्षय ने भी कल उस परिवार को याद किया . इस शिष्ट मंडल में चाची जी , इनकी बेटी और उसके साथ एक बच्चा सम्मिलित थे .
समारोह में वो लगातार सम्मिलित रहे पर उनका विश्राम स्थल रहा 44 रवीन्द्र निवास , उन दिनों मैं घर में अकेला ही था और इस बहाने मुझे भी संरक्षण मिल गया .
इसी बहाने मेरी एक बात :
अब छोटा बच्चा तो रात को सोवे तब ही सोवे . कल्याण मल जी परिवार रात को बाहर वाले कमरे में सोए . दोनों कमरों के बीच का दरवाजा ढाल दिया और मुझे बोले,' लाला तू तो सो जा , तुझे तो सुबह उठकर पढ़ना है , पढ़ाने जाना है .'
ऐसे ही पुरानी बात याद आ गई , कितना अपनत्व होता था उन लोगों में .
जैसे उनका बेटा मुकुट उनके लिए लाला था मैं भी उनके लिए लाला ही था .
चौहान परिवार के बारे में :
----प्रायःदेखा जाता है कि माता पिता अपने बच्चों पर केरियर थोपने का प्रयास करते हैं . स्वयं अध्यापक होकर भी बच्चों के लिए इतर व्यवसाय चाहते हैं . ऐसे में मोहन सिंह जी माट साब मिसाल हैं इस बात की कि उनकी देखा देखी उनके बच्चों ने उनका ही कार्यक्षेत्र चुना . विजय सिंह जी और निर्भय सिंह जी तो विद्यापीठ में ही कार्यरत रहे, मेरा भी निकट संपर्क रहा दोनों से . बच्चों के कारण मैं आशा जी को भी जाना , उनके सौम्य स्वभाव की मैं हमेशा सराहना करता हूं .
भूगोल के शिक्षक के नाते विजय सिंह जी का तो आज भी लड़कियां नाम लेती हैं .
अक्षय भैया तो हैं ही बनस्थली की यादों को ताजा करने वाले .
बात फिर उस जमाने की :
सोमवार को मैं तो जयपुर चला आया . 44 रवीन्द्र निवास में ठहरे हुए थे मेहमान जो घर के समान ही थे . मंगलवार को बनस्थली से विदा होकर जब वो लोग जयपुर आए तो घर की चाबी देने आए और ऐसे बताया कि लाला (याने मैं ) के कारण ठाठ रहे उनके . घर में दो उपकरणों की उन्होंने विशेष सराहना की - एक तो गैस कनेक्शन और दूसरा था प्रैशर कुकर .
हालांकि उस वक्त की और बहुत सी बातें याद आ रही हैं पर आज इस चर्चा को विराम देता हूं .
उन स्वर्णिम दिनों को याद करते हुए ..
प्रातःकालीन सभा स्थगित.
सह अभिवादन और समीक्षा :Manju Pandya
अतिरिक्त समीक्षार्थ : Akshaya Chauhan
आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
6 अगस्त 2015 .
ब्लॉग पर प्रकाशन सोमवार ६ अगस्त २०१८.
आदि बनस्थली .
फिर बनस्थली की याद : मोहन सिंह जी माट साब - २
कल उपलब्ध समय कम था , मैं इतना ही बता पाया था कि सरोज के जरिए बुलाए जाने पर बनस्थली में मोहन सिंह जी माट साब के घर पहुंचा और वो बड़ी आत्मीयता से मिले , बैठाया , खिलाया पिलाया और आगे कुछ बातें बताने लगे .
माट साब ब्यावर के रहने वाले थे और ब्यावर से ही उन्हें अपने एक मित्र कल्याण मल का पत्र मिला था जिसमें मेरा भी उल्लेख था . उल्लेख कुछ इस प्रकार था कि मेरा नाम बताते हुए ये मित्र कह रहे थे कि मेरे बॉस के बेटे गए दिनों बनस्थली में नियुक्ति पाकर वहां पहुंचे हैं , आप उनसे संपर्क स्थापित करें और उनका घर के व्यक्ति की तरह ही ध्यान रखें . यही पत्र वो आधार था जिसने माट साब को मुझे बुला भेजने को अधिकृत किया था .
खैर, माट साब की बेटी तो मेरे पास पढ़ती ही थी उस समय , दशक बीता और अगले दौर में पोती भी पढ़ने आई , माट साब आजीवन विद्यापीठ परिसर में रहे और इस प्रकार जो संपर्क स्थापित हुआ वो आज भी कायम है . इसे मैं चार पीढ़ियों का संपर्क कहूंगा .
एक अच्छी बात ये भी थी कि मोहन सिंह जी माट साब सोशल स्टडीज पढ़ाते थे और विषय मेरे ही अध्ययन अध्यापन से जुड़ा हुआ था . वे उस जमाने के थे जब अध्यापकों का हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं का ज्ञान हमेशा बढ़िया होता था चाहे वो किसी भाषा के अध्यापक न हों . मुझे याद आता है अलका से उसके साथ पढ़ने वाली लडकियां रश्क किया करती थीं कि उसके तो दादा जी अंग्रेजी में छपे सन्दर्भ ग्रंथों के अंश अनुवाद करा देते हैं . और सब के तो दादा जी वहां नहीं होते थे .
तब मेरे विषय का बहुत सा साहित्य अंग्रेजी में ही उपलब्ध हुआ करता था .
अब तो अलका भी किसी कालेज में प्रिंसिपल बन गई होगी , न तो नियुक्त होने वाली होगी . ये तो पुरानी बातें हैं जो मैं याद कर रहा हूं .
चिट्ठी पत्री का ज़माना :
लौटें उस बात पर जब मैं पहली बार माट साब के घर गया था .
मैंने जुलाई के चौथे सप्ताह में तो काम सम्हाला ही था और ये बात है अगस्त की जब तक कितना पत्र व्यवहार हो चुका था वही बताने की बात है .
काकाजी ने कुल तीन महीने अजमेर में काम किया था . वहां कल्याण मल जी उनकी ट्रेजरी में अकाउंटेंट थे . काकाजी के लिए अजमेर तो तबादले के बाद छूट गया पर कल्याण मल जी( कल्याण मल शर्मा ) से आत्मीयता बरकरार रही . उनसे नियमित चिठ्ठी पत्री चलती रहती थी . ऐसी ही चिठ्ठी में मेरी नई नियुक्ति का उल्लेख था . कल्याण मल जी ब्यावर के रहने वाले थे , वो प्रमोट होकर जयपुर भी आए और आखिर में रिटायर होकर अपने गृह नगर ब्यावर जा बसे थे . कल्याण मल जी मोहन सिंह जी माट साब के सहपाठी और दोस्त थे और इन दोस्तों में भी चिठ्ठी पत्री चलती रहती थी .
ऐसे ही एक नियमित पत्र में मेरा उल्लेख आया था और ऐसे करके माट साब ने मुझे बुलाया था उस दिन अगस्त के महीने में अपने घर .
पहली बार में हमें जोड़ने वाली कड़ी थे कल्याण मल जी अंकल .
अभी तो वो बात बतानी है जब एक आध वर्ष बाद सरोज का विवाह हुआ और कल्याण मल जी अंकल सपरिवार बनस्थली पहुंचे . वो एक उदाहरण है पुराने लोगों की आत्मीयता का , वह भी बताऊंगा .
अभी हाल प्रातःकालीन सभा स्थगित..
( कथा क्रम आगे जारी...)
सह अभिवादन : Manju Pandya
समीक्षा: Akshaya Chauhan
अशियाना आंगन , भिवाड़ी .
5 अगस्त 2015.
ब्लॉग पर प्रकाशन ५ अगस्त २०१८.
फिर बनस्थली की याद आई .: मोहन सिंह जी माट साब .
ये उसी साल की बात है जब मैंने बनस्थली में पढ़ाना शुरु किया था . बी ए थर्ड ईयर की क्लास को पढ़ाकर बाहर निकला तो एक छात्रा ने मुझे कुछ बात कहने को रोका . इस छात्रा का नाम सरोज चौहान था . वो मुझे कहने लगी :
" आपको पिता जी ने घर बुलाया है ."
देखो समझ का फेर , वो अपने पिताजी की बात कह रही थी और मैं समझ रहा था कि बीते सप्ताहान्त मैं जयपुर नहीं पहुंचा इस लिए मेरे घर से ये सन्देश आया है . खैर बात समझा और पता समझा और फिर मैं पहुंचा सरोज के घर . वहां पहुंचने पर संपर्क और आत्मीयता के कितने सूत्र आपस में जुड़े वो ही मैं बताने का प्रयास करूंगा. बात काकाजी * से शुरु होकर मोहन सिंह जी माट साब तक पहुंची थी और इसी आधार पर माट साब ने मुझे बुलवाया था . ये संपर्क तो फिर माट साब के रहते भी रहा और पीढ़ी दर पीढ़ी चला जो शायद मैं एक आध कड़ी में कह पावूंगा .
इस बहाने शायद मैं ये भी कह पावूं कि उस जमाने में सिर्फ चिठ्ठी पत्री से भी कितना संचार होता था और आत्मीयता का दायरा कैसे बढ़ता था .
आज स्मार्टफोन का ज़माना आ गया पर इन संबंधो की प्रकृति शायद वैसी न रही जो महज चिठ्ठी पत्री के जमाने में हुआ करती थी .
तो उस दिन की बात :
---------------------- जब बनस्थली में पोस्ट आफिस के बराबर वाली गली में माट साब के घर मैं पहुंचा तो वो बहुत अपनत्व से मिले बैठाया और एक पत्र मेरे सामने रख दिया जिसके आधार पर वे मुझे बुला भेजने को अधिकृत थे . क्या था पत्र में ऐसा , किसने लिखा था पत्र ये सब भी बताऊंगा पर आज सिर्फ इतना कि इसके बाद पीढ़ियों का रिश्ता बन गया
सारी कड़ियां जोड़ कर पूरी बात कहूंगा . उसी सन्दर्भ में जुड़े मुझसे बब्बू भैया याने अक्षय चौहान **.
( अगली कड़ी में जारी )
प्रातःकालीन सभा अनायास स्थगित .
सुप्रभात .
सह अभिवादन : Manju Pandya.
* काकाजी हमारे पिताजी जिन्हें हम इसी नाम से संबोधित करते थे .
** Akshaya Chauhan.
आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
4 अगस्त 2015 .
ब्लॉग पर प्रकाशन ४ अगस्त २०१८.
आज सुबह का अपडेट :
सुबह उठकर क्या देखता हूं कि इंटरनेट तो है ही नहीं मोबाइल की भी बैटरी शून्य हो गई है और कोई ज़रिया सोशल मीडिया से संदेश अवाक जावक का बचा नहीं । अब न तो न सही , हो ओ अपने क्या है । अब कुछ न कुछ ऑफ़ लाइन लिखा जाए जो काम आए तो आए और न आए तो कुछ अभ्यास किया ये संतोष तो होएगा कम से कम ।
अब स्मृतियों के चलचित्र
जब मैं पहली बार जोशी बाबा के पास पढ़ने गया था , मेरे लिए ये ही पढ़ाई की शुरुआत थी , तब सलेट और खड़िया की पेंसिल साथ लेकर गया था । उस घड़ी का विस्तृत संस्मरण लिखा जाना अभी बाक़ी है । आज अब नए ज़माने में ये जो आई पैड मिनी मेरे हाथ में है , ये है अब नए ज़माने की सलेट और अब अपण हैं इस विधा के नव साक्षर । जब तक सामग्री डिस्पैच न हो जाए ख़ूब लिखो और ख़ूब बुझाओ । लिखे जाओ , चाहो तो रखो , चाहो तो मिटाओ । नए ज़माने की इस सलेट पर लेखन अभ्यास चलता रहे , चलता रहे और क्या ?
फिर वही बात : वर्ड में लिखना है .
पहले भी शाणे लोगों ने मुझे ये राय दी थी पर तब मैं मूरख़ समझा नहीं था ।
क्यों न समझा था ?
ऐसे छोटे छोटे अक्षर बण जाते जो मुझे आसानी से दीखते ही नहीं । अब जब ट्राई किया तो पता लगा के उस लिखे को तो ज़ूम करके फ़िट टू साइज़ किया जा सकता है । अब तो कोई दिक़्क़त ही नहीं । हो गई दिक़्क़त दूर । पर लिखने को कोई बात , कोई क़िस्सा भी तो होना चाहिए तब ही तो बने कोई इबारत ।
मैं कोई क़िस्सा गढ़ता नहीं । जो भी कोई घटना होती है , जिसका मैं भागीदार या साक्षी होवूँ , उसी को बयान कर देता हूं और ये ही मेरी किस्सागोई होती है । मुझे क़िस्सा कहकर अच्छा लगता है और अगर आपको क़िस्सा पढ़ सुनकर अच्छा लगता है तो यही मेरा परम सौभाग्य है ।
हालांकि अभी कोई क़िस्सा नहीं जुड़ा इस पोस्ट में पर क़िस्सों का ज़िक्र तो आया ही है कम से कम । क़िस्से भी लिखूंग़ा वर्ड फ़ारमेट में और जोडूंग़ा अपनी प्रोफ़ाइल पर ।
अब ये ठाले बैठे आफ लाइन लिखते रहने में हुई तैयार एक इबारत । अब इसे सलेट पर लिखा मानकर बुझाणने से तो क्या मतलब है । किसी को दिखेगा तो ये ही तो समझेगा कैना लिखने की प्रैक्टिस की है और लिखना सीख लिया है जैसे तैसे ।
अब जब मिलेगा इंटरनेट
तब होगी ये पोस्ट डिस्पैच
आशियाना आँगन , भिवाड़ी
गुरुवार ३ अगस्त २०१७।
ब्लॉग पर प्रकाशन ३ अगस्त २०१८.
आज का एजेंडा ::फ़्रैंडशिप डे
आज जैसे ही फेसबुक खोला एजेंडा तो फेसबुक ने ही सुझा दिया कि आज " फ्रेंडशिप डे " है . और तो और फेसबुक ने सारे फेसबुक वासियों की ओर से मेरा आभार भी व्यक्त कर दिया इत्ता अच्छा दोस्त होने और दोस्ती निभाने के लिए .
आप सब जहां कहीं भी बैठे हैं, जो कोई भी हैं आप सब को मेरा सलाम पहुंचे . जो जाग गए हैं, जाग रहे हैं उनको भी सलाम , जो सो रहे हैं और आज देर से उठने का विचार कर के सोए हैं उन को भी सलाम , उठेंगे तब देख ही लेवेंगे .
फेसबुक ने ये काम तो बड़ा बढ़िया किया है कि सब कोई को इस प्लेटफॉर्म पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां राम रामी हो जाती है . ये ग्रेट लैवेलर भी है जहां सब कोई को बराबर का दर्जा प्राप्त है . बाकी इस बाबत एक पोस्ट मैं लिख ही चुका हूं जिसे शीर्षक दिया था ," ये फेसबुक की दोस्ती ?" आप ने अब तक न देखी हो तो देख लेवें , देख ली तो फिर बात खतम आप तक पहुंच ही गई मेरी बात .
आज इस मौके पर इतना जरूर कहूंगा कि इस माध्यम का अच्छा इस्तेमाल करें , फर्श गंदा न करें तो ठीक रहेगा वरना तो भले लोग इसे छोड़कर जाने लगेंगे ये कोई अच्छा लगेगा क्या ?
कभी कभी दूसरे को लज्जित करना और उसकी खिल्ली उड़ाना तो बड़ा आसान लगता है पर उसकी बात समझना और उसे अपनी बात समझाना मुश्किल लगता है . न जाने क्यों लोग पहला विकल्प चुन लेते हैं .
अपना तो यह मानना है कि हर बात शान्ति पूर्वक कही जा सकती है , एक बार कहकर तो देखें .
कल एक अहिन्दी भाषी दोस्त कह रहे थे कि उनके चार पांच सौ दोस्त तो बन गए पर वो हैं बड़े कन्फ्यूज्ड क्योंकि लोगों ने अपनी पहचान उल्टी सीधी दे रखी है . अब पहचान छिपाने के पीछे जो कारण होंगे वो तो वो जाने उसकी वजह मैं नहीं जानता पर इतना स्पष्ट कर देवूं कि मेरी अपनी पहचान में कोई दुराव नहीं है . मैं तो जो हूं वही हूं और यही कहने का प्रयास करता हूं कि मेरे कोई सुरखाब के पर नहीं लगे हुए हैं .
मर्यादा में रहकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मैं समर्थन करता हूं .
सुबह हो गई , अब प्रातःकालीन सभा स्थगित ....
सह अभिवादन : Manju Pandya.
आशियाना आंगन , भिवाड़ी.
2 अगस्त 2015 .
ब्लॉग पर प्रकाशन २ अगस्त २०१८.
जिसकी तलाश थी वो मिल गया …..! : तकिया कलाम की कहानी
अक्सर ये बात मैं बड़ा गहक के कह दिया करता हूं :
" जिसकी तलाश थी वो मिल गया ."
ऐसे ही मेरे और भी तकिया कलाम हैं , जैसे :
१.
ये तो बार की बात छै माट साब .. फेर तो थे जाणो !
और
२.
प्यारे मोहन जी नै ने जाणो ..?
मेरे हर तकिया कलाम का कोई न कोई विशिष्ट ऐतिहासिक संदर्भ होता है और मुझे वो सीन याद आने लगता है जब किसी न किसी ने ये बात कही थी और आगे के लिए वो बात मेरे हाथ लग गई .
ख़ैर किस्सगोई के दौरान तकिया कलाम के ये मणके मैं पिरोता भी रहता हूं और बताता हूं कि बात आईं क़हां से . ख़ैर अभी तो उस शीर्षक पर ही बात करें जो आज की पोस्ट के लिए दिया गया है :
" जिसकी तलाश थी वो मिल गया ."
अपने आप से बात :
-------------------
" किसकी तलाश थी ?"
इसी बात को स्पष्ट करने का प्रयास करूंग़ा .
" ये किसी व्यक्ति , वस्तु या विचार किसी की भी तलाश हो सकती है जिसके पूरा होने पर मैं ऐसा कह बैठता हूं और अब तो ये वाक्य बोलना मेरी आदत में शामिल हो चुका है ."
" पर पहली बार ऐसा कहा किसने था ? "
" हां वही बताने का प्रयास है आज , ये विशिष्ट व्यक्ति की कही बात है जो आज तक मेरी ज़ुबान पर है . "
------------------
अब आगे : फिर वो ही बात .
विशिष्ट अतिथि आए हुए थे , रवीन्द्र निवास में ठहरे थे और इस बाबत दो एपिसोड मैंने अपने ब्लॉग और फ़ेसबुक प्रोफ़ाइल पर लिखे भी थे . तीसरा एपिसोड जो अभी लिखा जाना बाक़ी है उसमें ही आता है ये प्रसंग .
प्रसंग ये है कि स्नान के बाद जब वे धुले और प्रेस किए हुए कपड़े पहनने लगे तो पाया कि पतलून में कमर का क्लिप पिचका हुआ है और उसे दुरुस्त किए बिना पतलून पहनना सम्भव नहीं था .
वो बौद्ध दर्शन में एक विचार आता है न " अर्थ क्रिया कारित्व " वही सूझ रहा है मुझे तो यहां इस स्थिति के लिए . ख़ैर बात आगे …
समस्या समाधान की वो बात सोच ही रहे होंगे कि उनका ध्यान अलमारी के ऊपर के खण की ओर गया और वो अचानक बोल पड़े :
" जिसकी तलाश थी वो मिल गया ."
------------------------
वहां रखा एक पेचकस उठाकर वो ये बात बोले थे . पिचके क्लिप को दुरुस्त करने के लिए ये उपयुक्त उपकरण था जो उन्हें यहां मिल गया था .
वैसे इस पूरे प्रसंग का तीसरा एपिसोड जब आएगा तो ये बात और स्पष्ट होएगी कि आख़िर वो क्लिप पिचका हुआ था क्यों .
आज मैंने पूरी बात बताई कि ये तकियाकलाम मैंने सीखा क़हां से था .
नमस्कार 🙏
सुमन्त पंड़्या
@ आशियाना आँगन , भिवाड़ी
शनिवार ३१ दिसम्बर २०१६ .
#स्मृतियोंकेचलचित्र #बनस्थलीडायरी #sumantpandya
कांई जात छै .......?
ये बात बनस्थली की है .
तब विद्यामंदिर में यू को बैंक का एक एक्सटेंशन काउंटर हुआ करता था और एक युवा बैंक अधिकारी वहां बैठता था . इस अधिकारी का नाम था प्रशांत निहलानी .
एक दिन की बात छात्रावास की दो परिचारिकाएं अपने खाते से रुपए निकालने आईं थीं और वहां बैठी थीं . ये मेरे सामने की बात है कि उन दो में से किसी एक ने इस युवक से बड़ा सहज प्रश्न कर लिया :
" भाया , थारी कांई जात छै ?"
( भैया, तुम्हारी जाति क्या है ?")
हालांकि वो जिस काम से आई थीं उसमें इस बात का कोई औचित्य नहीं था पर उन्होंने पूछ ही लिया और क्यूं पूछा ये भी बताता हूं . असल में जयपुर में जन्मा और पला , बड़ा हुआ प्रशांत निहलानी ढूंढारी बोली बड़ी बढ़िया बोलता था और उसने इसी बोली में उन दोनों से बात की थी . अपना सा लगा तो उन्होंने पूछ लिया .
अब जानिए कि निहलानी क्या बोला :
" माजी , म्हे सिंधी छां ." वो बोला.
(मां जी , हम सिंधी हैं.)
और वे दोनों प्रश्नकर्ता इस उत्तर से संतुष्ट थीं .
वो दोनों तो चली गईं रह गए मैं और निहलानी . मैं ने निहलानी से कहा कि जो सवाल था उसका ये जवाब तो पर्याप्त नहीं था . सिंधियों में भी तो जात बिरादरी होती है . मेरे जिस एक सिंधी परिवार से बड़े आत्मीय सम्बन्ध हैं वे ब्राह्मण हैं और जिन यजमान के यहां वो कोई पूजन करवाने जयपुर आए थे ,और हमारे घर ठहरे थे , वो माहेश्वरी बनिया हैं . पर हां विभाजन के बाद जो सिंधी इधर भारत में आ बसे उनकी जात बिरादरी के नाते पहचान से ज्यादा बड़ी पहचान ये बन गई कि वे सिंधी हैं . जात बिरादरी की बात गौण हो गई .
भारत में आ बसे बहुसंख्य सिंधी हिन्दू हैं और इसकी वजह सब को मालूम है , मुझे बताने की कोई आवश्यकता नहीं है .
और बहुत सी ऐसी ही बातें हैं बताने की , इसी बहाने चर्चा करने की .
प्रातःकालीन सभा स्थगित.
इति.
सह अभिवादन : Manju Pandya
सुमन्त पंड्या .
आशियाना आँगन, भिवाड़ी .
31 जुलाई 2015 .
क़िस्से का प्रकाशन और लोकार्पण जुलाई २०१८.
सोने से पहले आज की पोस्ट :
सच क़हूं सब तरफ़ अथाह ज्ञान बिखरा पड़ा है और लोग सोशल मीडिया पर विभिन्न उपक्रमों को माध्यम बनाकर आई गई चीज़ को इधर उधर ठेलने में लगे हैं ।
लोग बग़ैर कुछ देखे परखे संदेशों को अग्रप्रेषित करते रहते हैं । मेरे लिए तो इन आए संदेशों को झेलना मुश्किल होता जा रहा है । सयाने लोग एक से ज़्यादा फ़ोन नम्बर रखते हैं और वाट्सएप नम्बर हर किसी को देते भी नहीं । मूर्खों के सम्प्रदाय , याने मेरे संप्रदाय , में ऐसा नहीं होता । जिसे नम्बर मिल गया वो अपना बचा क़ुचा ड़ेटा जाने क्यों मुझपर ही न्योछावर कर देता है ।
जो देखो जो कोई ग्रुप बना लेता है और महाराज ज़माने भर के चले संदेश इधर आ धमकते हैं । कुछ मामलों में तो मुझे यहां तक शक होता है कि मेजने वाले ने इसे ख़ुद भी बाँचा है के नहीं ।
अब सोशल मीडिया पर बने रहना है तो ये सब तो उसके साथ जुड़ा हुआ नफ़ा नुक़सान दोनों है जैसा भी आप समझो ।
और आगे करेंगे बात इस बाबत , अब इस मामले में कुछ न कुछ तो करना ही है ।
भिवाड़ी
२८ जुलाई २०१७ ।
ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण : २८ जुलाई २०१८.
बड़ा सीधा सा कार्य कारण सिद्धांत है , रात देर से सोया सुबह देर से उठा और ऐसे सुबह पोस्ट लिखने का समय बीत गया .
अभी एक दोस्त को बताया है जो चिंता कर रहे थे कि नित्य नियम में क्या बाधा आ गई . उन्हें बताया कि सब ठीक है .
फिर जीवन संगिनी से पूछा कि कोई आइडिया देवें , जो प्रसंग उन्होंने सुझाया उसी पर आ रहा हूं .
एक बार बनस्थली में घोड़े बेचकर सोया वो बात तो एक पोस्ट में बता ही चुका हूं ऐसा ही एक और प्रसंग बताए देता हूं . पहले कुछ फुटकर बातें फिर मुख्य बात जो आज बताने की है .
चौधरी के भाई के विवाह में बरात में गया था . वहां निकासी के दौरान दुल्हन के चाचा मुझसे बोले :
" बरात के साथ पंडित जी तो आप ही हो ?"
वो भी सही बोले जब वो लगन लेकर आए थे तो लगन मैंने ही झिलाया था .
उनको तो मैं क्या बोला अब याद नहीं मगर सावधान जरूर हो गया कि अब ये तो मुझे रात भर जगाने का मीजान बना रहे हैं . मैंने किया ये कि डिनर के फ़ौरन बाद उस गहमा गहमी को छोड़ छत पर जाकर सो गया और मेरी नींद तो अगले दिन सुबह तभी खुली जब वर वधू ने आकर मेरे पांव छुए .
मैं तो अपने विवाह में भी रात भर नहीं जागा था तो मैंने वहां भी अपना टाइम टेबिल ठीक ही रक्खा. पर हमेश ऐसे नहीं हो पाता वो ही आगे बताता हूं . अपने विवाह में क्यों रात भर नहीं जागा वो तो बात ऐसी थी कि तब इस प्रकार के समारोह दो दिन चला करते थे . बीच की रात लोकाचार स्थगित हो जाया करते थे .
आज कल दोनों ही प्रकार के प्रतिमान देखे जाते हैं उन पर अभी मैं कोई टीका नहीं कर रहा .
1984 की बात .
जीजी के बेटे सुधीर का विवाह था उदयपुर में. दिसंबर का महीना था. सभी स्वजन इकठ्ठा हुए थे . आस पास ही वर पक्ष और वधू पक्ष के आवास थे . आस पास परिचितों के घरों में मेहमानों के ठहरने का इंतजाम था . मामा सम्प्रदाय के लिए किसी स्वजन का पूरा खाली मकान जीजी जीजाजी ने उपलब्ध कराया था जहां हम लोग ठहरे हुए थे .
अपवाद रूप में उस दिन मैं विवाह की रात को रात भर जागा आखिर जीजी के घर का एक मांगलिक कार्य होने जा रहा था .
पिछली सारी रात तो जागा ही था अगले दिन सुबह भी देर तक समारोह की विभिन्न गतिविधियां चल रही थीं . ठहरने के स्थान से सब लोग नहा धो कर तैयार होकर जीजी के घर अभ्युदय पहुंचने लगे . आखिर में मैं बच गया जिसे तैयार होकर जाना था . इस डेरे के सब लोग जब चले गए तो मैं अकेला था . मैंने आदत के मुताबिक़ पहले हजामत बनाई और फिर नहाया . चूंकि घर में अकेला था इसलिए सब ओर के दरवाजे मैंने बंद कर लिए और ये विचार कर के लेट गया कि पांच मिनिट को आराम करता हूं और फिर चलता हूं , फिर अभ्युदय पहुंच कर भोजन करूंगा . बस वहीँ गड़बड़ हो गई , मेरी आंख लग गई . कितनी देर हो गई मुझे कुछ पता नहीं .
उधर क्या हुआ ?
---------------- भोजन के लिए जब मैं नहीं पहुंचा तो मेरी ढूंढ मची . जीवन संगिनी सबसे पहले आईं और यहां आकर उन्होंने घंटी बजाई और बहुतेरा दरवाजा खटखटाया पर नतीजा कुछ न निकला . जब आधा घंटा बीत गया तो वो बाहर बैठकर रोने लगीं . उधर से और लोग भी आने लगे और ये चिंता का विषय बन गया . सारा माजरा भांप कर विनोद ने घर के चारों ओर चक्कर लगाया और ये तय किया कि सबसे कमजोर दरवाजा कौनसा है . पीछे का दरवाजा कुछ ढीला लगा वहीँ प्रहार किया और सांकल तोड़ दी .
विनोद ने तो आकर मुझे उठाकर बैठा ही कर दिया और मुझे बात ही समझ नहीं आ रही थी . मैंने तो यही पूछा:
" तुम अंदर कैसे आए ? मैं तो दरवाजा बंद करके आया था. "
मुझे अंदाज ही नहीं था कि इस बीच क्या कुछ हो गया और कितना समय हो गया . तब तक तो फिर खुद जीजी भी वहां आ गई और जीवन संगिनी की भी जान में जान आई .
जीजी ने आकर सब जानकर पूछा कि दरवाजा तो नहीं टूटा ? आखिर उन्होंने किसी परिचित का मकान मांग कर लिया था . और विनोद ने कहा:
" आप को दरवाजे की पड़ी है यहां तो ......."
नोट:
ये पोस्ट दिन में बनाना शुरु किया था , किश्तों में समय निकाल निकाल कर लिखते फिर रात हो गई . अब स्थगित करता हूं रात्रि कालीन सभा .
शुभ रात्रि.
सुझाव : Manju Pandya
आशियाना आँगन, भिवाड़ी .
29 जुलाई 2015.
ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण जुलाई २०१८.
पिछले दिनों अनिल ने बूंदी नगर की एक सुन्दर तस्वीर फेसबुक पर साझा की तब से मुझे भी जब तब बूंदी की याद आ जाती है . एक साल मैंने भी वहां बिताया था . तब के सहपाठी दोस्त याद आ जाते हैं . वहां लौटकर जाना फिर कभी नहीं हुआ पर यादें हैं जो जब तब वहां ले ही जाती हैं .
वर्ष 1961 - मैं ने न्यूं मिडिल स्कूल, बूंदी से स्कूल की कक्षा आठ पास कर ली थी . जब सबसे बड़ी कक्षा पास कर ली तो वहां से टी सी तो लेना ही था . काकाजी* टी सी लेने गए थे और मैं साथ था . दीनानाथ जी हैड माट साब ने टी सी देते हुए काकाजी से जो पूछा और अपनी कही वही बात बताता हूं . पहले एक बात और बताऊं जाने क्यों हैड माट साब को लोग और बच्चे भी पीछे से ' धुनची जी ' कहते थे और उनका बेटा गणपत भी हम लोगों का सहपाठी था उसने भी उसी वर्ष आठवीं कक्षा पास की थी .
हैड माट साब पूछने लगे :
" टी ओ साब, बेटे को क्या सब्जेक्ट्स दिलाओगे ? "
तब कक्षा नौ में ही फैकल्टी और विषयों का चयन हो जाया करता था .
बाद तक भी यही सिलसिला चला . ये तो बहुत बाद में हुआ है कि यह चयन ऊंची क्लासों में जाकर होने लगा . बेहतर अंक लाने वाले विद्यार्थी साइंस पढ़ने के लायक माने जाते थे और पड़े गिरे पास हुए आर्ट्स पढ़ने को शापित होते थे . एक बार आर्ट्स में दाखिला लेने वाले आगे आर्ट्स में ही रहते थे . जिन दुखियारों से साइंस नहीं निभ पाती वो बड़ी क्लासों में इधर आ जाते पर इधर से उधर जा पाने की सुविधा नहीं होती थी .
" ये तो आर्ट्स पढ़ेगा . और आपका भी तो बेटा है , सुमन्त बता रहा था, उसके बारे में क्या तय किया हैड माट साब ?" काकाजी बोले.
काकाजी का उत्तर उन्हें चौंकाने वाला था , क्योंकि मेरी मार्क लिस्ट से तो साइंस पढ़ने की लायकी सिद्ध जो हो रही थी . ऐसे ही सवाल जवाब आगे तब भी हुए जब काकाजी मुझे जयपुर में दरबार मल्टी परपज हायर सकेंडरी स्कूल में कक्षा नौ में में दाखिला करवाने गए .
तब मुझे कहां भान था कि आगे जाकर साइंस पढूंगा , ऐसा वैसा साइंस नहीं - मास्टर साइंस .
खैर अभी तो बात बूंदी की चल रही है वहीँ लौटते हैं .
माता पिता के सपने :
तब माता पिता बच्चों के लिए कैसे सपने देखते थे उसका उदाहरण है वो जो तब हैड माट साब ने कहा था . काकाजी को अपने बेटे के बाबत वो बोले :
" वो ही इंजीनेरी के सब्जेक्ट - साइंस मैथेमेटिक्स ."
इतना ही नहीं उन्होंने ये भी बताया था कि वो इस बात का भी प्रयास करेंगे कि आगे उनका तबादला जोधपुर का हो जाए ताकि वो बेटे को इंजीनियरी की पढ़ाई करवा सकें . तब ले दे के एक जोधपुर में ही सरकारी इंजीनियरिंग कालेज हुआ करता था , मंगनी राम बांगड़ मेमोरियल इंजीनियरिंग कालेज .
मुझे आगे का हाल तो नहीं मालूम कि हैड माट साब अपनी योजना में सफल किस हद तक हुए पर कुछ सूत्र बूंदी से तब जुड़े जब बनस्थली में मेरे काम करते हुए एक चित्रकार मित्र बूंदी से आए और मिले और चूंकि वो भी उसी मिडिल स्कूल के पढ़े हुए थे इसलिए स्कूल की यादें ताजा हो गईं , कुछ और दोस्तों के बारे में भी उन से ही पता चला .
बहरहाल लौटकर वहां जाना नहीं हुआ . जाऊं भी तो उस समय का कौन मिले वहां ?
उसी पुराने समय को याद करते हुए...
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
* काकाजी हमारे पिता जो तब बूंदी में ट्रेजरी ऑफिसर थे .
साझा लेखन : Manju Pandya
आशियाना आँगन, भिवाड़ी .
27 जुलाई 2015 .
ब्लॉग पर पुनः प्रकाशन और लोकार्पण २७ जुलाई २०१८.
ये फेसबुक की दोस्ती ?
कुछ समय पहले एक मनोविद् को टी वी पर बोलते सुना था कि कुछ एक मनोरोगों के कारणों और लक्षणों में से एक आज के समय में ये " फेसबुक" भी गिनाया जा सकता है .
बहुत हद तक सही तो कह रहे थे मनोविद् . आप उन्हें साइकेट्रिस्ट के रूप में जानते हैं , उस नाम से जान लीजिए .
सर्वथा निजी अनुभव :
जब से मैंने फेसबुक पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है मुझे दोनों ही तरह के अनुभव हुए हैं . बहुत से अनजान लोग मिले और वो ऐसे बन गए कि लगा ही नहीं ये तय भी हो गया कि उनको तो मैं बहुत पहले से जानता हूं . यहां कुछ के नाम मैं नहीं गिनाऊंगा क्योंकि इससे दूसरों का मोल मैं कम नहीं करना चाहता . इस मंच पर लगता है कि हम लगातार साथ साथ हैं . हमें एक दूसरे की गतिविधि का पता रहता है और ये अच्छा है .
पर ऐसा कर के जमाने भर को हम वो सब बताए दे रहे हैं जिसे सब कोई को बताने की कोई जुरूरत नहीं है . हमारी सारी सूचनाएं विश्व डेटा बाजार में बिकाऊ हैं , मजे की बात ये है कि इन्हीं सूचनाओं को पाकर ठग हमें ठगने के उपाय कर रहे हैं हम उतने जागरूक नहीं हैं जितना हमें होना चाहिए .
भोले दोस्तों के बारे में :
इस बारे में अभी भी स्पष्ट नहीं हूं कि दोस्ती के इस दायरे के बारे में क्या निर्णय लेवूं . क्या इसे आगे बढ़ने दूं ? क्या इसे यही रोकूं ? या कि छटनी कर डालूं , और घटाऊं इस दायरे को ? लौह आवरण की नीति का ही हिमायती होता तो बच्चों के सिखाए से फेसबुक पर आता ही क्यूं ?
सवाल का सबब :
- बहुत कुछ प्रोफाइल देखकर दोस्ती कबूल करूं . वो भोले लोग जब तब चैट पर आ जावें और मुझसे वो ही , वो ही सवाल पूछें जिनके उत्तर मेरी प्रोफाइल पर दर्ज हैं . तभी तो मैं नें " चोरंग्या" कांसेप्ट पर पोस्ट लिखी थी .
अधिकांशतः फेसबुक के माध्यम से मिले दोस्तों से दोस्ती के साथ साथ मुझे वरिष्ठ नागरिक सम्मान भी मिला बोनस के रूप में लेकिन कोई कोई भोले और नादान मुझे मुझे अपना सा ही समझ लेवें . उनसे तो मैं यही कहूंगा :
" भाई मेरे, मेरी प्रोफाइल फोटो तो देख ली होती . क्या मैं आपको बराबर का लगता हूं?"
अपनी छात्राओं को संबोधित :
आप के / तुम्हारे लिए तो ये खुला निमंत्रण है . मेरी फ्रोफाइल पर जब चाहो उपस्थिति दर्ज करवाओ जैसे मेरी क्लास में आया करती थी . बल्कि कभी कभी तो ये कहने का मन करता है :
" बाहर क्यों खड़ी हो , क्लास में आ जाओ ."
अपनी छात्राओं से तो कोई भी संवाद करना मुझे हमेश ही अच्छा लगता है .
अंत में सभा स्थगित करने से पहले यही कहूंगा :
" फेसबुक पर ठहरता हूं अभी हाल तो , बाकी आगे देखेंगे क्या करना है ."
प्रातःकालीन सभा स्थगित ....
सुप्रभात .
सह अभिवादन : Manju Pandya.
आंगन, भिवाड़ी .,26 जुलाई 2015.
ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण २६ जुलाई २०१८.
इमरजेंसी
- इमर्जेंसी की बातें फिर याद आने लगी पिछले महीने . क्यों याद आने लगी उसे तो जाने दीजिए , आप बेहतर जानते हैं मुझे आज के हालात के बारे में अभी हाल कुछ नहीं कहना . मैं तो तब की थोड़ी सी बात याद आ गई और लगा कि इसे दर्ज भी कर दिया जाए तो कोई हर्ज नहीं , वही करने लगा हूं .
तब जब उन्नीस सौ पिचहत्तर - सतत्तर में इमरजेंसी का दौर था अखबार और रेडियो और बहुत कीजिए तो टेलीग्राम टेलीफोन ये ही तो संचार के साधन थे , इनका भी फैलाव आज जैसा कहां था . फिर भी बात फैलती तो थी .
एक बात मैं अवश्य रेखांकित करूंगा उस जमाने की कि लोग आकाशवाणी के समाचारों की बनिस्पत बी बी सी के समाचारों और रेडियो प्रसारणों पर ज्यादा भरोसा करने लगे थे . ये कोई अच्छी बात तो नहीं कही जा सकती लेकिन हालात ही कुछ ऐसे थे और उन्हें हमारे ही शासन ने उत्पन्न किया था .
एक निजी अनुभव :
एक दिन बनस्थली में आई बी के एक अधिकारी मेरे घर आए , अजब इत्तफाक था कि वो मेरे कालेज के जमाने के दोस्त निकले . दोस्तों के बीच खुलकर जैसी दुनियां जहान की बातें होती हैं वो हो गईं .
इस दोस्त आई बी अधिकारी के पास ऐसी राज मुद्रिका थी नए जमाने की कि वो कहीं भी आ जा सकता था . मुझे तब ये अच्छी तरह पता चला था कि इन ख़ुफ़िया एजेंसियों के पास आगे से आगे कितनी सूचनाएं इकठ्ठा होती हैं .
जाने अनजाने वो दोस्त मुझसे भी ऐसी सूचनाएं ले ही गया जो प्राप्त करना उसका पार्ट ऑफ जॉब था .
इस आई बी अधिकारी की आवक बाद में भी परिसर में देखी गई . मेरे कुछ एक नजदीकी दोस्तों की राय थी कि दोस्त था तो क्या हुआ आया तो आई बी की तरफ से था मुझे उससे दूरी बनाकर रखनी चाहिए थी . मैं ऐसा कभी कर नहीं पाया . मैंने राजनीतिशास्त्र पढ़ा और पढ़ाया जरूर था पर ये पैंतरे बाजी मुझे न तब आती थी न अब आती है .
एक भले दोस्त के रूप में उसने एक राय जरूर दी थी जो बात मुझे आज भी याद आती है :
" सुमन्त , मेरी मानो तो किसी पार्टी की मेंबरशिप भूल कर भी मत लेना वरना अपना ये सोचने का तरीका गंवा बैठोगे . .. सब एक जैसे हैं ."
हम लोग कोई सरकारी नौकर नहीं थे अतः किसी राजनैतिक दल के प्रति प्रतिबद्धता निषिद्ध तो नहीं थी , पर उस दिशा में कोई महत्वाकांक्षा मैंने पाली भी नहीं थी .
ऐसे ही याद आई बाते आपसे साझा करते हुए
प्रातःकालीन विलंबित सभा स्थगित :
सहमति और समीक्षा : Manju Pandya
आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
25 जुलाई 2015 .
ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण जुलाई २०१८.
लेफ्टहैण्डर भाग चार .
आज नैट के पूर्ण असहयोग के चलते अधिक कुछ लिखना संभव नहीं हो पा रहा अतः बाद की बात पहले ले आ रहा हूं .
उस दिन जीजी के सामने मैं तो कुछ न कह सका था .
उन्होंने तो ये तक कहा था कि जब माता पिता का एडजस्टमेंट ठीक नहीं होता तब बच्चे उल्टे हाथ से लिखते हैं .
मुझे उन्होंने काफी नसीहतें भी दी , जो मैं ने सुनी .
बड़ों की बात मैं आदर पूर्वक सुनता ही हूं . वही सीख बच्चों को देता आया हूं .
मैंने यही सीख छोटे वाले को भी दी और सहन करने को कहा . बहरहाल उसका लिखने का तरीका यथावत रहा .
तब लेकिन मैं ये कहां जानता था कि एक दिन इसकी एक लेखक के रूप में प्रतिष्ठा होगी और ये दिल्ली विश्वविद्यालय से पी एच डी की डिग्री लेवेगा .
अब तो ये उसके बचपन की बातें हैं .
आपात स्थिति में प्रातःकालीन सभा स्थगित ...
सुप्रभात .
सह अभिवादन : Manju Pandya .
ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण २३ -०७ -२०१८.
लैफ्ट हैंडर : भाग तीन .
ये दुनियां दांये हाथ को सीधा और बांए हाथ को उल्टा कहती आई है उससे ही बात तो कुछ कुछ साफ़ होती ही है मुझ जैसों के बारे में .
अब मेरा तो जो कुछ होना था हो लिया इस नाते पर बात आगे की बताता हूं जब परिवार में एक बांए हाथ वाला और प्रगट हो गया .
छोटा वाला जब बनस्थली में स्कूल जाने लगा तब की बात बताता हूं .
दो बरस तक तो सब कुछ ठीक ठाक रहा . तब वहां बड़ी अच्छी सोच थी कि शिशु कक्षाओं में उसे खेलने खाने में ही व्यस्त रखा गया और कोई कलम हाथ में नहीं पकड़ाई गई . अच्छा ही रहा कि खुद अपने हाथ से खाना खाना सीखा वरना तो घर में उसकी मां उसे खिड़की में बैठाकर , ध्यान बंटाकर खाना खिलाया करती थी . मुसीबत तो तब आई जब हाथ में कलम पकड़ने की उमर आई .
. एक दिन वो घर आकर बोला :
" पापा , जीजी * कहती है कि पेन्सिल हमेशा इस हाथ में पकड़ो !"
उसने ऐसा कहकर अपना दांया हाथ बताया .
* बनस्थली में तब टीचर को जीजी कहने का चलन था .
इन जीजी के बारे में भी बताता चलूं . वे अपने सेवाकाल के अंतिम दशक में कार्यरत थीं और अवस्था में मुझसे बहुत बड़ी थीं .
वैसे ही एक बात और याद आती है जो बताऊं कि इनकी बेटी सत्तर के दशक में मेरे पास एम ए कक्षाओं में पढ़ा करती थी . तब एम ए परीक्षा के बाद वाय वा भी होता था और ये लड़की इतना धीरे बोलती थी कि तैयारी के दौरान ये सुझाव आया कि इनके लिए तो एक माइक लगवा देना ही ठीक रहेगा . खैर तब हम लोग टीचर की भूमिका में थे . अब मैं संरक्षक की भूमिका में था और ये जीजी टीचर थीं . खैर. .... ये बात तो सिर्फ इस लिए जोड़ी कि मैं ये बता सकूं कि कितनी बड़ी थी जीजी . उनके विचार भी बहुत पक्के थे जो मुझे मिलने पर और स्पष्ट हुए .
जब इस प्रसंग में मैं उनसे मिला तो जो पहली बात उन्होंने कही वो थी :
" आप भी इसे समझाओ कि ये दांए हाथ से लिखना सीखे."
हां, तब तो लिखता क्या था, लिखना सीख ही तो रहा था . उनकी मान्यता थी कि ये आदत यहीं से सुधारी जानी चाहिए .
और मैंने यह कहकर अपनी असमर्थता जताई :
" मैं इसे भला क्या समझाऊं , मैं तो खुद बांए हाथ से लिखता हूं "
और भी बातें हुई , घर लौटकर भी बात हुई इस बारे में पर वो आगे आएंगी .
ये बात अभी और चलेगी ......
पिछली दो कड़ियों पर आप सब ने समर्थन दिया उसके लिए आभार व्यक्त करते हुए...
प्रातःकालीन सभा स्थगित ..
समीक्षा और समर्थन : Manju Pandya.
आशियाना आँगन , भिवाड़ी .
बुधवार 22 जुलाई 2015 .
ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण २२-०७-२०१८.
लेफ्ट हैंड़र : भाग दो .
कल इस प्रसंग पर पोस्ट बनाते हुए मैंने चर्चा की शुरुआत की थी . जितनी अपने लोगों की टिप्पणियां आईं पढ़कर अच्छा लगा कि होते हैं बहुत लोग लेफ्ट हैण्डर भी और राइट हैण्डर होकर भी कई लोग उनकी हिमायत करते हैं , खुद राइट हैण्डर होते हुए भी लैफ्ट हैंडर के लिए बोलते हैं दुनियांदार . कल मुझे लगा कि अल्पमत के लिए भी जगह है इस दुनिया में , इस जमाने में . हम भी हैं इसी जमाने में . कल तो ऐसा भी हुआ कि लोगों को एक दूसरे के बारे में ये एक नई बात पता चली ,वैसे आपस में जानते तो थे , ये नहीं जानते थे जो कल पता चला .
अब आज जितना संभव हो जाय कुछ एक छोटी छोटी बातें , कुछ अपनी और कुछ आपकी जो कि आप कहेंगे ही जब बात चलेगी .
बनस्थली : महिंद्रा प्रज्ञा में .
- महिंद्रा प्रज्ञा मंदिर नाम से हाई टेक नई इमारत तैयार होने के बाद उसमें काम शुरू होने से पहले कुछ हवन पूजन की तैयारी थी . मंहगी इमारत थी तो पूजन करवाने के लिए शहर से मंहगे मोल वाले पंडित जी भी बुलाए गए थे , रेशमी कुर्ता - दुपट्टा पहने कई एक अंगूठियां अँगुलियों में पहने सक्रिय थे पंडित जी .
सारे इंतजाम में लॉजिस्टिक सपोर्ट का काम था परिसर के स्थानीय पंडित मुंशी लादू राम जी का . एक तो विशिष्ट जोड़ा और अन्य लोग हवन करने जा रहे थे . मैं भी चूंकि वहां उपस्थित था तो एक हवन कर्ता मैं भी बनाया जा सकता था .
मैं अपनी कहूं , अपनी सीमाओं को जानते हुए मैं ऐसी गतिविधियों में आगे बढ़कर भागीदार नहीं हुआ करता . मैं परंपरा और आधुनिकता दोनों ही का आदर करता हूं और मत मतान्तरों में उलझने से हमेशा ही बचता हूं .
वही ग़ालिब के शब्दों में सनातन द्वंद्व :
" ईमां मुझे रोके है , खींचे है मुझे कुफ़्र ,
काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे ."
उस दिन की बात :
-- न जाने क्या कुछ हुआ कि उस दिन मुझे भी हवन में बैठना ही पड़ा . सिलसिलेवार कहूं तो शकल सूरत ठीक और अवस्था देखकर मुख्य पंडित जी ने मुझे संकेत दिया कि मैं भी हवन सामग्री का एक अंश लेकर पास बैठ जाऊं . मुंशी लादू राम जी तो मुझे बैठाना चाहें ही उनके साथ मेरे आत्मीय सम्बन्ध थे . मैंने अपने सीने पर हाथ रखा और मना के संकेत के लिए हाथ हिलाया पर दोनों ही पंडित न माने और मैं भी टीम में सम्मिलित कर लिया गया .
फिर क्या हुआ ?
हवन प्रक्रिया के दौरान ज्यों ही मंत्रोच्चार के बाद पंडित द्वय बोलें ," स्वाहा " सब अग्नि की ऒर अपना हाथ बढ़ाएं सीधा और मैं हाथ बढ़ाऊं उल्टा .
पंडित जी ने सीधा हाथ काम में लेने की सलाह दी जो उन्हें देनी थी और मेरी स्थिति ये कि या तो हवन स्थल से ही उठ जाऊं और न तो उल्टा हाथ ही काम में लेवूं और गतिविधि में भागीदार रहूं .
इसी में मैं अल्प मत की भागीदारी देखता हूं , ऐसे ही समय परंपरा में संशोधन की आवश्यकता होती है ....
बात आगे चलेगी अभी बहुत बातें हैं बताने को ...
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
समीक्षा : Manju Pandya.
आशियाना आँगन, भिवाड़ी .
21 जुलाई 2015 .
ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण :
जयपुर २१- ०७-- २०१८.
समय कम है . आज बात की शुरुआत ही करे लेते हैं.
उस दिन जब जयपुर में शिवाड़ एरिया के छोर पर होमियोपैथी दवा की दूकान के नीचे मैं दवा खरीदने को खड़ा था तो मुझे देखकर एक नवयुवक काउंटर से एक सीढ़ी उतर कर आया और मुझे ऊपर ले लेने को उसने अपना हाथ बढ़ाया . ये उसका बांया हाथ था .
ये मरी * आर्थराइटीज के चलते कभी कभी सामने वाले को लग जाता है कि सीढ़ी चड़ने के लिए
इसे सपोर्ट की जरूरत है . यही उस दिन भी हुआ . कुछ कुछ अंदाज तो पहले ही लग गया था पर जब उसी युवक ने बांये हाथ से कलम पकड़ कर दवा का बिल भी बनाया तब तो पक्का ही हो गया कि वो भी मेरी तरह लैफ्ट हैण्डर ही है और इस तरह एक अपनत्व बन गया मेरे और उस बमुश्किल बीस साल के युवक के बीच .
मैंने उससे पूछा :
" अरे तू भी लैफ्ट हैण्डर है ?
तुझे किसी ने सताया तो नहीं इस बात पर कि तू बांये हाथ से लिखता है ?
ये सारी दुनिया दांए हाथ वालों की है !"
उत्तर मुझे चोंकाने वाला था . वो बोला :
" सताया न अंकल , सबसे पहले तो बचपन में ही घर वालों ने दांये हाथ से लिखने पर जोर डाला , स्कूल में भी वही सब कुछ हुआ . कुछ एक काम मैं दांए हाथ से भी करने लगा पर बांए हाथ से लिखने की मेरी आदत न छूटी . "
इस दुनियां में ये लैफ्ट राइट डिवाइड बड़ी जबरदस्त है .
इसके चलते तो एक बार बनस्थली में संरक्षक के रूप में मैंने पेशी भी झेली और मैं " नॉट गिल्टी " प्लीड नहीं कर पाया वो कहानी रोचक भी है और भावुक कर देने वाली भी पर आज समय कम है , बहुत से सूत्र पिरोने पड़ेंगे . बात थोड़ी लंबी चलेगी .
प्रातःकालीन सभा अनायास स्थगित ........
* मरी ही कहा है मेरी नहीं .
सुप्रभात .
सह अभिवादन : Manju Pandya.
भिवाड़ी . राजस्थान .
20 जुलाई 2015
ब्लॉग पर प्रकाशन और लोकार्पण २० -०७-२०१८ .
Edit
आज की पोस्ट वास्तव में पूरक पोस्ट है , वो क्या कहते हैं सप्लीमेंट्री पोस्ट कह लीजिए . पिछली एक पोस्ट में इस प्रसंग को बीच में छोड़ना पड़ा था क्योंकि बात की दिशा तब कुछ और थी और ये बताने लगता तो ट्रैक बदल जाता . तो आज सही . प्राइवेट कॉफी हो चुकी और अब ये बात .
हुआ क्या था ?
- मैं लिफ्ट में अकेला था . ग्राउंड फ्लोर पर दरवाजा ज्यों ही खुला मेरी ही उमर के से एक सज्जन अंदर आए और मुझे जल्दी थी ये बताने की कि मैं तो मूर्ख हूं जो मैं ने उन्हें बताकर जी हल्का किया . जल्दी से बात को स्पष्ट किया कि माजरा क्या था क्योंकि संवाद लंबा चलाने के लिए अधिक समय न उनके पास था और न ही मेरे पास . फिर भी भलमनसाहत उनकी कि ये बात वो मानने को तैयार ही नहीं थे और मेरे बरअक्स मुझे ही डिफेंड कर रहे थे , बोले :
" मैं समझा , लिफ्ट ऊपर से आई है और आप भी ऊपर से ही आ रहे हो."
" कोई ऊपर से नहीं आया साहेब , ऊपर जाने को लिफ्ट में घुसा था ,ऊपर तो पहुंचा नहीं खड़ा हूं जहां का तहां और आप आए हो तो बताए देता हूं तीसरे फ्लोर पर जाना है ,आप जाते हुए उतार जाइएगा . "
संवाद से पल भर को वो सज्जन भी खुश हुए . थोडा सा विलम्ब हुआ, वो भी ज्यादा नहीं और आ गया यथा स्थान . अपने आप से सवाल किया साठ पार ऐसे ही होता है ये तो सुना ही था , तेरे साथ भी यही होने लगा ?
मशीन है कहो जिस तल पर ले जाने को , अरे पर मूरख मशीन को कहो तो सही कि जाना कहां है .
जो बात इस घटना में है वही बात जीवन में है , कहो तो सही :
" कहां जाना है ?"
बात अभी घर में भी नहीं बताई थी , आपको बताई है अपने तक रखिएगा .
प्रातःकालीन सभा स्थगित ....
सूचनार्थ : Manju Pandya
*******
इस पोस्ट पर आई कुछ टिप्पणियों का भी यहां उल्लेख करता हूं :
१.
प्रभात ने इसे एबसेंट माइंडेड़ होना बताया कहा इसका उम्र से कोई ताल्लुक़ नहीं .
२.
कुसुम परीक ने एक और क़िस्सा बताकर मेरी हिम्मत बढ़ाई , कहा :
" सर यह कोई उम्र वाला या भूलने वाला वाकया नही है। हम महिलाओं के संस्मरण सुनाए तो दंग रह जायेेंगे आप
एक बार मेरी एक सहेली ने बताया कि हम 3 4 जनी शादी में जा रही थीं ।
सब लिफ्ट में घुस गए ।
सामने एक दर्पण था 🤓🤓
फिर क्या हुआ 😇😇
आप समझ गए होंगे ।
3 4 मिनट तक लिफ्ट हिली ही नही और उनका सँवरना पूरा हुआ तो ध्यान आया कि हम कहाँ है?
देखा तो जस के तस खड़े है।🙏😍😂😂😂😂😂 "
३.
प्रियंकर जी ने इसे एक दार्शनिक प्रश्न से जोड़ा और मेरा उत्साह बढ़ाया :
" काश ! कहां जाना है यह ठीक-ठीक पता होता . काश ! वहां ले जाने वाली लिफ्ट हुआ करती . :) "
४.
चुन्ना भाई नवीन भट्ट ने मेरी इस प्रकार सराहना की :
" विधाता की लिफ्ट भी निरन्तर चल रही है ,कभी ऊपर कभी नीचे ,लिफ्ट के माध्यम से आपने बड़ी गहन दार्शनिक बात कहदी ---- सुंदर पोस्ट "
५.
पल्लव ने तो पूछ ही लिया :
" मुसाफ़िर जाएगा क़हां ?"
६.
और जीजी ने एक दार्शनिक बात कह दी इसी पोस्ट पर :
" उम्र बीत गई गन्तव्य नहीं पासकी यही अफ़सोस है । ---------जीजी
******
ब्लॉग पोस्ट का प्रकाशन और लोकार्पण :
जयपुर : गुरुवार १९ जुलाई २०१८.
मेरा स्टेटस :
जब भी फेस बुक खोलता हूं एक ही बात :
" वाट इज इन योअर माइंड ?"
इसी के जवाब में कभी कबार बल्कि रोज बरोज कुछ न कुछ मांड देता हूं .
ये ही है आज की दुनिया के साथ संचार की कहानी .
कुछ बातें मेरे अपने जानने वालों तक पहुंचती हैं , कुछ पहले से अनजान लोगों तक पहुंचती हैं और वो मेरे जानने वाले बन जाते हैं . कुछ बातें पुराने जानने वालों तक पहुंचती हैं और वो नए सिरे से जुड़ जाते हैं . कुछ बातें बट्टे खाते में भी जाती होंगी ही जिसके लिए ये ही कहा जाएगा कि इन बातों को यहां दर्ज करने की जरूरत ही क्या थी . सेंसर बोर्ड की इस बारे में लगातार चेतावनी भी मिलती है जिसे मैं ख़ुशी से झेलता हूं .
बहुत सी बातों को भूलना चाहता हूं पर भूल नहीं पाता , बहुत सी बातों को याद करने की कोशिश करता हूं पर उनमें कोई कोई ख़ास नुक्ता याद ही नहीं आता . पता नहीं ये मेरे साथ ही होता है या सब के साथ होता है . वस्तुस्थिति क्या है ये तो आप बताएंगे , मैं कैसे बताऊंगा .
एक और झंझट है -- एक बात देखकर दो बात याद आ जाती है . करूं क्या मैं उन बातों का ? उन बातों को दर्ज कर देता हूं . फिर चाहे तो वो बातें जाए बट्टे खाते में .अपने आप से कहता हूं " दर्ज कर और भूल जा."
बुद्धिमान लोग बताते हैं कि प्रायः साठ के पार ऐसा ही होता है . बहरहाल मैं तो मूर्ख हूं इस स्थापना को कल सुबह की पोस्ट में स्पष्ट करूंगा .
अभी कुछ एक बातें कहे देता हूं :
मैं कोई किस्सा गढ़ता नहीं , आप बीती और आँखों देखी प्रामाणिक बातें ही कहता हूं .
भरपूर कोशिश करता हूं कि कोई किसी को आहत करने वाली बात मेरी ओर से दर्ज न होवे . फिर भी ऐसा हो जाता है कि लोग आहत हो जाते हैं . उसका भी स्पष्टीकरण और समाधान करता हूं . इतना अवश्य है कि भली कही बात को पढ़ने सुनने वाले एक जैसा नहीं समझते . तभी तो नीलम शर्मा बार बार दोहराया करती हैं ,' आप कैसे देखते हैं ? '
तो आज मैं भी उसी सवाल के साथ प्रातःकालीन सभा स्थगित करता हूं ............' आप कैसे देखते हैं? '
अभी हाल तो ये ही है स्टेटस .
सुप्रभात . ☀️
समीक्षा : Manju Pandya.
जयपुर आना होता प्रायः मंगलवार के छुट्टी के दिन . शाम को लौटने के बखत जयपुर स्टेशन पर जाकर गाड़ी पकड़ते जो छह बजे के आस पास जयपुर से निकलती थी .
बनस्थली जाने वाली रोडवेज की आख़िरी बस तो पांच बजे ही रवाना हो चुकी होती अतः थोड़ा अधिक समय मिल जाता इसलिए गाड़ी पकड़ते .
वही लोहारू सवाई माधोपुर रूट की शाम की सवारी गाड़ी , इससे ही बम्बई जाने वाले मुसाफिर भी सवाई माधोपुर जाया करते थे , हमें तो खैर बनस्थली - निवाई स्टेशन तक ही जाना होता था . उसी यात्रा की एक बार की बात आज बताता हूं , पहले गाड़ी के माहौल का दृश्य बयान कर दूं .
सवारी गाड़ी की हालत :
इस गाड़ी में जबरदस्त भीड़ तो होती ही थी , ऊपर से तुर्रा ये कि ट्रेन के करीब आधे डिब्बों में रोशनी भी नहीं होती . सर्दियों में तो निवाई पहुंचने तक अंधेरा होने लगता इसलिए अगर बच्चे साथ होते तो प्रायः टॉर्च भी साथ रखते जिससे सामान और बच्चों को ठीक से उतार सकें अपना स्टेशन आने पर .
टिकिट खिड़की पर भी भीड़ होती , मैं तो शहर में वैस्टर्न रेल्वे आउट एजेंसी से पहले ही जाकर टिकिट खरीद लाता तब फिर स्टेशन की राह पकड़ता .
अब एक बार की बात :
यही गाड़ी पकड़ने को मैं जयपुर के रेल्वे प्लेटफार्म पर जाकर खड़ा हुआ तो वहां सहयात्री के रूप में संगीत के प्रोफ़ेसर नाडकर्णी मिल गए . मैं तो उस दिन अकेला ही था , साथ मिल गया , एक से दो होगए . बहरहाल दोनों ही सामान के थैलों से संपन्न थे .
अंजनी कुमार आ गए टहलते हुए हमारे पास . मैंने कहा ," आ जाओ ."
वो मिले पर वापस लौट गए , उनका तो फर्स्ट क्लास में रिजर्वेशन था . उन्हें बम्बई जाना था . कोई पांच सात सूट केस और उनकी वाइफ नियत स्थान पर दीख रहे थे जिधर उन्होंने इंगित किया . उनका और हमारा साथ तो जयपुर के प्लेटफार्म तक गाड़ी आने के पहले तक ही रहा .
बच गए मैं और प्रोफ़ेसर नाडकर्णी जो गाड़ी आने पर जस तस मय सामान के सवार हुए और थोड़ी थोड़ी जगह पाकर सीट पर बैठ गए .
हम आपस में बातें करने लगे . साथ बैठकर बात करते हमारी यात्रा की ये घंटे दो घंटे की अवधि बीत जानी थी पर ज़माना कहां चैन लेने देता है .
क्या हुआ वही बताता हूं :
टंटे की शुरुआत :
रवाना होते समय ही हमारे कम्पार्टमेंट में भी सवारियों का दबाव काफी बढ़ गया था . इसी क्रम में कुछ निहायत लफंगे किस्म के नौजवान लड़के कीचड़ में सने जूते पहने पहने ही ऊपर की सीटों पर आ चढ़े और ताश खेलने में मशगूल हो गए थे . इस पर भी हमें क्या ऐतराज हो सकता था अगरचे वो शान्ति पूर्वक रहते . पर वे शान्ति से कहां रहने वाले थे . थोड़ी ही देर में खेल के साथ धींगा मुश्ती शुरु हो गई और उनके जूतों से मिट्टी हम पर झड़ने लगी .
" ए भाई जरा तमीज से बैठो , नीचे भी इंसान बैठे हैं ."
फ्रोफेसर नाडकर्णी ने थोडा तेज आवाज में उनको समझाइश का प्रयास किया . उनको बात समझ में कहां आने वाली थी , उलटे वो हम से संगठित रूप से उलझने लगे . मुझे उस समय लगा कि अब ये लोग नीचे उतरकर हमसे गुत्थमगुत्था और होंगे और हमारे लिए कठिन स्थिति उत्पन्न हो रही है .
आपात सहायता :
हमारा तो उस ओर घ्यान भी नहीं था . पुलिस की वर्दी में एक थानेदार हमारी ही सीट पर खिड़की के पास चुपचाप बैठे थे . बाद में पता चला वो जयपुर के किसी थाने में अपनी ड्यूटी ख़तम कर अपने गांव जा रहे थे , वे अचानक हमारी हिमायत में उठ खड़े हुए और कड़क कर कुछ इस प्रकार बोले :
" फ्रोफेसर साब समझा रहे हैं और तुमको बात ही समझ में नहीं आ रही ?
मैं अच्छी तरह समझाऊं क्या तुमको ... ?"
उन्होंने अपने पुलिसिया अंदाज में एक की बांह मरोड़ी और एक बारी तो धमकाने को उनका हाथ कमर में लटकी पिस्तौल पर भी चला गया बोले शूट कर दूंगा . फिर उन्होंने उन लफंगों को वहां से हटाकर ही दम लिया .
विपत्ति आई पर इस प्रकार दूर भी चली गई . हम कौन हैं इस बात का अंदाज हमारे तारणहार को शायद हमारी आपसी बात चीत से ही लगा वरना परिचय तो उनके इस हस्तक्षेप के बाद ही हुआ था .
आज प्रोफ़ेसर नाडकर्णी तो रहे नहीं इस वाकये की तस्दीक करने को मुझे ये घटना याद है जो मैंने दर्ज की .
ऐसी अनेक यादें हैं जो बनस्थली की यात्राओं से ही जुड़ी है , आगे फिर कभी बताऊंगा .
अंजनी कुमार की बात भी अधूरी रह गई . वो भी आगे कभी ...
प्रोफ़ेसर नाडकर्णी को याद करते हुए .
प्रातःकालीन सभा स्थगित .
समीक्षा : Manju Pandya.
‘ अच्छा है ना सर! चाळे लगे रहते हैं आप ।’
तीन बरस पहले सज्जन * ने तो ऐसे कह दिया था जब मैंने अपनी ये दुविधा यहां दर्ज की थी . आज उठाकर इसे ब्लॉग पोस्ट बणा दिया , देखो तो सही .
* Sajjan Poswal.
सुप्रभात ☀️
नमस्कार 🙏
जयपुर १५ जुलाई २०१८ .
*****
ये स्मार्टफोन ने तो बजाय स्मार्ट बनाने के चोरंग्या कर दिया .
क्या कहा , " चोरंग्या " क्या होता है ?
मतलब होता है जिसका चारों तरफ ध्यान भटकता हो . ये शब्द मैंने बनस्थली में घरों में काम करने वाली बाइयों से सुना और सीखा था .
चारो तरफ से , विभिन्न उपकरणों और माध्यमों से चले सन्देश सुबह ,दोपहर ,शाम और रात आते जाते हैं कि आदमी इससे अटका रहता है , भटका रहता है .
कोई तदनुभूति वाले और हों तो मैदान में आओ और हिम्मत बंधाओ न स तो अपन तो बन गए चोरंग्या .
फोटो क्रेडिट : Manju Pandya
२०१५ की रचना .
दुविधा ब्लॉग पर प्रकाशित जुलाई २०१८.
शीर्ष नोट :
छोटा सा किस्सा थोड़े संकोच के साथ लिख रहा हूं . अगर सेंसर बोर्ड को ये वल्गर लगा तो पोस्ट हटाई भी जा सकती है .
ये पिछली शताब्दी के उस काल खंड की बातें हैं जब रुपए का मोल आज से बहुत बेहतर था . उसी के अनुरूप कहावतें और शब्दावली का समाज में प्रचलन भी था .
समय का चित्रण .
मुझे अच्छी तरह याद है नाहर गढ़ की सड़क पर मोहन हलवाई अपनी दूकान खोलता जब सुबह सुबह तो चवन्नी , अठन्नी की ढेरियां बनाता और इससे आगे लेन देन करता . गो कि तब रेजगी या रेजगारी का बड़ा महत्त्व हुआ करता था . रुपए की तो बड़ी कदर थी ही छोटे सिक्के भी खूब प्रचलन में थे . रुपया भुनाने पर रेजगारी मिल जाया करती थी . नए पुराने दोनों ही प्रकार के छोटे सिक्के प्रचलन में थे .
जो ' चवन्नी चलती थी ' वो भी अब तो शासन ने प्रचलन से हटा ली , अठन्नी वैध तो है पर लेता देता कोई नहीं अतएव प्रचलन से बाहर ही है .
खैर .जाने दीजिए ..
उसी काल खंड में हलके फुल्के मजाहिया बातचीत में बच्चों को रेजगारी कह दिया जाता था.
उस युग का एक संवाद :
एक बस में एक कस्बाई अल्प शिक्षित युवती सवार हुई जिसके साथ दो तीन छोटे बच्चे भी थे - एक गोद में और कुछ एक साथ . वो एक सीट पर जा बैठी और साथ बच्चे तो थे ही .
उसी के पास एक नई रौशनी की युवती भी आई और वहां बैठी . बच्चे तो बच्चे हैं उस ' टच मी नॉट ' युवती से भी अटक लिए . हालांकि सब कोई तो बच्चों से ऐसे परहेज नहीं करता पर शायद ये नई आई सवारी कुछ थी ही तुनक मिजाज उसने कस्बाई युवती से कह दिया :
" हटाओ अपनी ये रेजगारी ."
मां की भूमिका में जो युवती थी उसने बच्चे तो अपने से सटा लिए लेकिन एक कौतुक प्रश्न भी इस सम वयस्क युवती से पूछ लिया बाई द वे :
" बहन...आपका रुपया अभी भुना के नहीं ? "
क्या कहती ये युवती , मुहावरा उसी जमाने का था !
प्रातःकालीन सभा स्थगित.
सेंसर बोर्ड :
Manju Pandya
आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
15 जुलाई 2015.
ब्लॉग पर प्रकाशित : जुलाई २०१८ .