Friday, 31 March 2017

पहली अप्रेल : बूच्या के श्रीराम जी 😀

ये उपहार में मिली अपनी ही तस्वीर है जो आज के अवसर के लिए उपयुक्त जान पड़ती है । फ़ोटो कलाकारी का श्रेय आनंद जोशी को ।

अब बात आगे की :

पहली अप्रेल : बूच्या के श्री राम जी !

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  #sumantpandya


आज पहली अप्रेल है , नई सभ्यता में में ये दिन मूर्खों के लिए मुक़र्रर है .

आज सोचता हूं अपनी इस कहावत का इतिहास और अभिप्राय खोल दूं जो है :


"बूच्या के 'श्री राम जी'..."


पात्र परिचय :


सूरतगढ़ के अम्बा लाल बाबा का प्यारा बेटा हुआ करता था बूच्या , स्वभाव से थोडा सीधा लेकिन बुद्धि से ठस्स . पढ़ाई में कमजोर . गिनती सीखने के मामले में उसे कठिनाई होती थी .

उसके नामकरण के पीछे की बात यह थी कि उसका एक कान दूसरे कान से थोड़ा छोटा था और इसी लिए उसका घर का , प्यार का नाम प्रचलित हो गया था . उसका लोक नाम कुछ और भी रहा हो तो मुझे पता नहीं क्योंकि ये पिछली शताब्दी के मध्य भाग की बात है और इस विवेच्य कहावत के साथ यही नाम सटीक बैठता भी है .


हुआ क्या था जो कहावत बनी :


आज वही बताने जा रहा हूं . बूच्या जब गिनती सीखता और बोलता तो गिनती का क्रम चलता " .....एक दो तीन चार ..... पांच छह सात ......."


और आगे उसे कुछ याद न आता , उसे कुछ सूझता ही नहीं . क्या बोले बेचारा जब आगे गिनती याद ही न आवे . थोड़ी देर याददाश्त पर जोर डालता और जब पार न पड़ती , कुछ भी न सूझता तो बूच्या जोर से बोल कर इस गिनती अभ्यास का समापन करता :


"श्री राम जी ..."


इस कहावत में आये श्री राम जी कोई बूच्या की निजी संपत्ति तो नहीं हैं इनका नाम बरतने में उसका नाम साथ में जुड़ गया है और तब से मेरे घर में तो कम से कम यह कहावत चल पड़ी है , जहां अटक जावे वहीँ ' बूच्या के श्री राम जी '


इतना अवश्य है कि कभी कभी राम जी का नामोच्चार थोड़ा लंबा अवश्य हो जाता है , इस प्रकार - "श्री राआआआ म जी ".


जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास 'एनीमल फ़ार्म ' में भी मेरी कहावत के नायक समान कुछ पात्रों का उल्लेख आया है .

आधुनिक लोकतंत्र में जहां दादागिरी करने वाले शासक बन बैठते हैं वहां ऎसे पात्र शासकों को बहुत भाते हैं यह कहने की शायद आवश्यकता नहीं है .

#बूच्याकेश्रीरामजी


#पहलीअप्रैल


समर्थन : Manju Pandya

सुप्रभात .

Good morning .


सुमन्त

आशियाना आंगन , भिवाड़ी .

पहली अप्रैल 2015 .

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पुनः प्रकाशित : बूच्या के श्री राम जी.

आवृत्ति : 1 अप्रेल 2016 .

     @ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

ब्लॉग पर प्रकाशित :

शनिवार पहली  अप्रेल  २०१७  ।


Thursday, 30 March 2017

जैन धर्मावलम्बियों के बीच  - २ : बनस्थली डायरी  ✍🏼


जैन धर्मावलंबियो के बीच : दो .

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 #बनस्थलीडायरी #sumantpandya

#दसलक्षणपर्व


मैंने अपनी पिछली पोस्ट में उस स्थिति का संकेत दिया था जब दोस्त बोलने को मजबूर कर देते हैं . ऐसा ही कुछ उस बार हुआ जब जैन साब ने फिर मुझे निवाई के जैन मंदिर पहुंचा दिया था .

 महेंद्र जैन का फोन आया कि वे यू को बैंक बनस्थली से निवाई जाते हुए मुझे भी साथ लिवा ले जाएंगे और मुझे उनके साथ जाना पड़ा . जैन धर्मावलंबिओं का 'दस लक्षण पर्व' चल रहा था और मुझे सत्य के विषय में बोलना था. मैंने ये तो कहा मार्ग में दुपहिया पर जाते हुए :


" भाई मुझे पहले से बताते और तैयारी का थोड़ा मौक़ा तो देते ताकि मैं इस विषय में कोई साहित्य देख पाता या किसी समझदार साथी से इस विषय में राय ले पाता . अब कैसे और क्या बोलूंगा इसकी रूपरेखा कैसे बनेगी ....?"


पर अब तो जाना तय हो गया था और मैं 'सत्य' पर भाषण देने के लिए जा ही रहा था सो गया और अपने मन मन में सोचता रहा कि कैसे बात बनेगी . थोड़ी देर के लिए निवाई पहुंचकर जैन साब ने धर्मावलंबियों के लिए तैयार एक पुस्तिका भी देखने को दी जो उनके पर्व का महत्त्व बताने वाली थी , मैंने देख ली और उन्हें लौटा दी .

पहुंच गए बड़े जैन मंदिर और बिछायात पर जा बैठे हम लोग . मंदिर की छटा निराली थी . दीपावली की तरह जगमगा रहा था मंदिर और असंख्य जैनी लोग सभा में इकठ्ठा थे . एक बड़ा वर्ग उन लोगों का था जो व्यापारी अपनी अपनी दूकानें बंद कर मंदिर में आ बैठे थे . मुझे इन्ही सब लोगों को सत्य के बारे में कुछ कहना था . दस लक्षण पर्व के अनुसार वो दिन सत्य को समर्पित था . मेरे साथ ऐसा पहले भी होता आया था जब बगैर तैयारी के बोलने की नौबत आ गई और वही उस दिन भी हो रहा था .


आ गई मेरे बोलने की बारी और मैं बोलने खड़ा हुआ . मैंने स्वीकार किया कि मैं इस विषय में बोलने का किसी भी प्रकार से अधिकारी नहीं कहा जा सकता क्योंकि मेरा विषय "नीति शास्त्र" नहीं "राजनीति शास्त्र" रहा है और इसे ही आप थोड़ा कहा अधिक समझ सकते हैं . शाश्वत सत्य / निरपेक्ष सत्य और सापेक्ष सत्य की बात कर मैं सामने बैठे समुदाय की ओर देखने लगा और मुझे उनको देखकर ही यह कहने की प्रेरणा मिली कि लोक व्यवहार में सत्य कितना महत्वपूर्ण है . सत्य का कोई एक दिन नहीं होता . सत्य के तो सब दिन होते हैं . मैं अपनी बनते यह स्थापित करने में सफल हो गया कि दुनियादारी भी सत्य से चलती है , झूंठ से नहीं .

जैन लोगों के साथ अच्छी बीती वो शाम निवाई में *...

* जय जिनेन्द्र .


सहयोग और समर्थन : Manju Pandya.


#दसलक्षणपर्व


#जैनधर्मावलंबिओंकेबीच


सुप्रभात .

Good morning.


सुमन्त

आशियाना आँगन , भिवाड़ी .

31 मार्च 2015 .

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अपडेट : पुनः चर्चा योग्य प्रसंग .

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मैं जिस चर्चा की खोज में था फेसबुक ने अपने से ही याद दिला दी वो बात .

मेरी पोस्ट से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं आप की टीकाएं इस लिए इसे फिर से चलायमान करता हूं .

प्राइवेट कॉफी डन 

सुप्रभात

Good morning.

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सुमन्त पंड्या .

@ Gulmohar शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

31 मार्च 2016 .

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अपडेट :

गए बरस तक तो इस किस्से को फेसबुक पर दोहराया आज इसे ब्लॉग पर दर्ज किए देता हूं । आगे ये प्रयास भी करूंगा कि एक्सटेम्पोर बोलने के अपने सारे प्रसंगों को एक जगह इकठ्ठा करूं और ब्लॉग पर जोड़ देवूं ।


@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर ।

   शुक्रवार 3१ मार्च २०१७ .

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Wednesday, 29 March 2017

फूटरा लाग रिया छो  : बनस्थली डायरी  😀


होली स्पेशल :😊 बनस्थली विनोद #बनस्थलीडायरी #sumantpandya

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              हल्की फुल्की बात के लिए क्षमा मांगते हुए एक बहुत छोटा किस्सा बनस्थली प्रवास के आखिरी दशक का कहता हूं .

 विद्या मंदिर के एस्टेब्लिशमेंट सेक्शन में महावीर नाम का एक युवा अनुभाग अधिकारी मुझ से अनायास बोल पड़ा :


  “ ….. फूटरा लाग रिया छो !” ये उसका स्नेह अभिव्यक्त करने का तरीका था , मने वो कह रहा था कि आप सुन्दर लग रहे हैं .

और मैंने कहा था के “ कान ईन्डै ल्या .” मने कान इधर ला . छानै बात कहने - सुनने को . 

और सभी कोई अपने अपने कान लेकर आ गए थे रहस्य की बात सुनने को और तब मैंने जो बात कही वो ये थी :


    “ अरै जद म्हे आया छा न जद छोरी छापरियां म्हां पै मरबो करै छी , अब डोकरी डाकरियां मरबा लाग गी . “


ये स्वीकारोक्ति थी अपनी बढ़ती उमर और बदलते हालात की .


कोई दो दशक बीत गए मेरी यादों में वार्तालाप अभी ताजा है .

अब बच्चे तो जाने क्या कहेंगे ये किस्सा पढ़ सुनकर पर ऐसी बात तो हुई थी . मैंने आज बता दी आप अब जो कहो सो कहो !

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सुप्रभात .

सुमन्त पंड्या 

समीक्षा : Manju Pandyaa

@ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

   बुधवार 30 मार्च 2016 , राजस्थान दिवस .

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चर्चा के लिए फिर से प्रसारित :

गुरूवार ३० मार्च २०१७ . 

संयोग से इस बरस आज के दिन गणगौर है ।

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चक्की की कहानी : बनस्थली डायरी। स्मृतियों के चलचित्र ।



https://instagram.com/p/BSNbwMaAKAx/

चक्की बाबत ये तो है वीडियो लिंक और अब शुरू होती है इस चक्की की कहानी :  

जब हमलोग बनस्थली के रवीन्द्र निवास में रहा करते थे और निवाई आया जाया करते थे तब की बात है । वहां रामेश्वर जी हैड़ माट साब के ड्राइंग रूम में मैंने और व्यास जी ने ऐसी चक्की रखी देखी थी ।  एक बड़ा छोटा सा उपकरण जो घरेलू आटा चक्की के रूप में काम करता है जानकर हमें बहुत ख़ुशी हुई  । हम दोनों ही दोस्त  इस चक्की पर लट्टू हो गए थे उस दिन तो  । हैड माट साब बताने लगे  कि उनके लिए  तब पांच किलो अनाज भी उठाकर ले जाना और चक्की पर पिसवाकर  लाना कठिन होता था और ऐसे में उन्हें इस उपकरण  से बड़ी सुविधा रही  । व्यास जी से टेंडर मिलने पर  उनको तो  हैड माट साब ने वैसी ही एक चक्की जयपुर से मंगवाकर  दे दी  । उनकी चक्की बनस्थली पहुंच  गई  । मैंने हैड माट साब पर ये भार नहीं डाला और अपने से चक्की जुटाने का निर्णय  लिया  ।

क्यों चाहिए थी चक्की  ?

हम लोग ग़ांव देहात में रहे थे , ये नब्बे के दशक की बात है । तब आजकल की तरह आटे के बैग नहीं ख़रीदे जाते थे । हम लोग साल भर के लिए इकठ्ठा अनाज ख़रीदा करते थे और जैसे जैसे ज़रूरत पड़ती  ग़ांव में लूनिया की चक्की से अनाज पिसवा कर लाया करते थे । इस सब में कम से कम मुझे तो बहुत कष्ट होता था । इसलिए ये उपकरण मुझे भी ज़च गया और सर्वानुमति से ये तय हुआ कि एक चक्की अपण भी ख़रीदेंगे ।

तब हमलोग जयपुर में अपने शहर वाले घर में रहा करते थे । चक्की बनस्थली ले जाने के लिए चाहिए थी पर खोज जयपुर में ही शुरु हुई और उसका पहला ट्रायल भी जयपुर में  ही  हुआ था । उन दिनों सुरेश मदान त्रिपोलिया बाजार में इलेक्ट्रानिक सामानों की दूकान किया करता था ।  उसने कहते ही हमारे घर , नाहरगढ रोड ये चक्की भिजवा दी थी । मुझे आज भी याद है पहली बार इस चक्की से मोटा आटा पीसकर हलुआ बनाया गया था और भगवान जी के भोग भी लगाया गया था ।

तब की एक मज़ेदार बात बताऊं । चक्की आई उसके बाद कम्पनी का मैकेनिक ट्रायल ड़िमोंसट्रेट करने आया था तो वो मुझे पीछे हटाता और जीवन संगिनी को कहता ,"  आप आगे आओ , आप देखो !"  वही सोच कि ये घरेलू काम महिला का है । ये ल्लो पगले को ये अन्दाज़ भी नहीं था कि चक्की तो मुझे चलानी थी और आज दिन गर्व से कहता हूं मुझे बीस बरस से अधिक हो गए सफलता पूर्वक चक्की चलाते ।



( ये फ़ोटो तो मैंने फ़ाइल से लेकर ऐसे ही यहां जोड़ दी है कि जब मैं चक्की के काम में लगता हूं तो कैसे लगता हूं , आप देख लेवें । फ़ोटो २००९ का है , गुलमोहर का । )

चक्की अम्मा को पसंद आई :

---------------------------      ये चक्की जब आई तो अम्मा को बहुत पसंद आई । अम्मा के पास अपनी  बड़ी बढ़िया हाथ की चक्की थी पत्थर के पाटों और सीमेंट के गरंड वाली जिसकी भोर में चलने वाली आवाज़ तो मेरी बचपन की यादों में बसी है । पर ये ही तो ख़ास बात थी अम्मा की अम्मा ने इस नए ज़माने की चक्की को स्वीकार किया और बहुत सराहा । 

उदय भैया को इस चक्की का मोटा आटा इसलिए बहुत अच्छा लगता कि वो अपनी मम्मी से इस आटे से उत्तपम बनाने की फ़रमाइश करता । बहरहाल जितनी देर चक्की चलती अम्मा पास बैठती ये मुझे आज भी याद आता है ।  चूरमा और बाटी के लिए ख़ास आटा तो क्या ही ज़ोरदार तैयार होता इस चक्की से । ये उपयोग यहां  जयपुर में भी हुआ और आगे जाकर बनस्थली में भी जो आगे बताऊंग़ा ही आपको ।

चक्की का यातायात :

---------------------     चक्की आई तो जयपुर में थी और ज़ाणी थी बनस्थली  इसलिए ये ज़िम्मेदारी हिमांशु को सौंपी गई कि वो इसे बनस्थली पहुंचाए । हिमांशु उन दिनों जयपुर में रहकर पढ़ता था और यदा कदा बनस्थली जाता था । अगले फेरे में वो जय भैया के दोस्त वीरू उर्फ़ इक़बाल की ठेली से चक्की सिंधी कैम्प बस स्टैंड ले गया । वहां बुकिंग खिड़की पर फिर दिक़्क़त दरपेश । बुकिंग क्लर्क कहवे  कि चक्की बस में नहीं ले जा सकते । बस के साथ कंडक्टर कहीं समझदार था  और वो था बनस्थली का ही लड़का प्रमोद । उसने तजवीज़ दी कि ये कोई चक्की है ही नहीं  , ये तो मशीन है छोटी सी । लगेज टिकिट बणा दिया और चक्की का लदान हो गया सफलता पूर्वक । अब तो चक्की को पहुँचना ही था बनस्थली ।

चक्की के बनस्थली पहुँचने पर कैसा हर्षोल्लास का वातावरण था ! ये किसी भी रूप में उससे कम  नहीं था जो पहली बार टी वी और वो भी कलर टी वी आने पर बना था ।

मेरा नास्टेलजिया :

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छोटे छोटे स्मृतियों के चलचित्र हैं जो आपके सामने प्रस्तुत करता हूं । इस चक्की से नियमित गेहूं तो पीसा ही गया इसके अलावा बेजड़ , बाजरा , ज्वार , मक्का और स्वतंत्र रूप से चना दाल की भी पिसाई हुई । कुछ बातें संक्षेप में :

१.

चक्की आने के बाद हमारा स्टाइल था कि नया अनाज ख़रीदने से पहले सैम्पल के लिए पनसेरी अनाज ख़रीदते और उसे पीस और उसकी रोटी बनाकर परीक्षण करते  फिर ख़रीदते अनाज की बोरी क्विंटल या दो क्विंटल । ये आइडिया मोहल्ले में लोकप्रिय हुआ । एक बार श्याम जी ने भी सैम्पल गेहूं पिसवाया । मैंने आटा उनके घर पहुंचा दिया तो श्याम जी लौटकर आए ये कहने को ," भाई साब काटो तो काट लेता ।"  माने ये कि हम भी उसे बरत कर देखने को थोड़ा आटा रख लेते । ख़ैर वो भी हुआ और फिर तो श्याम जी भी एक दमदार चक्की ले ही आए ।

२.

एक्सपोर्ट क्वालिटी का दलिया तैयार हुआ इसी चक्की से । कब ? एस एस गुप्ता साब और भाभी जी विशाखा के पास रहने को अमरीका जा रहे थे । बेटी की जचगी का समय आने वाला था । भाभी जी ने साथ ले जाने को दलिया इसी चक्की पर तैयार करवाया  और ये लोग अमरीका लेकर गए  ।

३.

एक दिन चक्की वाले लूनिया ने टोका  , " आजकाल तो आओ ही क़ोनै  ?" माने आजकल तो आते ही नहीं हो ।

और मैंने गर्व से कह दिया :" थे भी चक्कीआळा  म्हे भी चक्की आळा  अब घरां ही चक्की छै ज़द काँ बेई आवां ?" माने आप भी चक्की वाले हम भी चक्की वाले , जब हमारे घर ही चक्की है तब क्यों आवें भला ?    पर लूनिया से तो अपना याराना था जो बरक़रार रहा । उसमें कोई फरक नहीं आया ।

अभी तो चक्की से जुड़े प्रसंगों पर और भी कई स्मृतियों के चलचित्र साझा करने हैं आपसे जो दूसरे खंड में ही बता पाऊँगा ।

जीवन संगिनी का यह भी सुझाव है कि स्टोरी बराबर से फ़ेसबुक पर भी आनी चाहिए , लोगों को ब्लॉग खोलने में कठिनाई होती है । इसका भी उपाय करूंग़ा ।

अभी हाल के लिए प्रातःक़ालीन सभा स्थगित ....  

डूंगरपुर

मंगलवार २ मई २०१७ ।

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Tuesday, 28 March 2017

जैन धर्मावलंबियों के बीच -- १ .

जैन धर्मावलबियों के बीच :

~~~~~~~~~~~~    #बनस्थलीडायरी   #sumantpandya

उस दिन यू को बैंक वाले महेंद्र जैन मुझे कुछ साथियों के साथ निवाई लिवा ले गए थे . चातुर्मास में जैन मुनि आए हुए थे और हम लोगों को वो मिलवाना चाहते थे .

1.

   मैं सोच में पड़ गया था महाराज के सामने क्या पहन कर जावूं . मैंने अपना सफ़ेद कमीज निकाला था और वही पहनकर गया था .

जब हम महाराज के सामने पहुंचे तब मुझे समझ आया वे तो दिगंबर  सन्यासी थे . काहां मेरी दुनियावी सोच कि क्या पहनूं .

कितना कठोर जीवन जैन सन्यासी का .

2.

  महाराज थोड़ी देर बोले और फिर उन्होंने कहा :

आप बुद्धिजीवी हैं , इस विषय में आप कुछ कहिए .

मैंने उस दिन इतना ही कहा :

" महाराज , मेरे टाइम टेबिल में छह दिन मेरे बोलने के होते हैं , सप्ताह के वे छह दिन बीत चुके . आज मंगलवार का दिन है इसी दिन तो मुझे बोलने से विश्राम मिलता है .

आज मेरे चुप रहने का दिन है . आप बोलेंगे और मैं सुनूंगा ."

और मैंने महाराज के सामने समर्पण कर दिया था .

मंगलवार को विद्यापीठ में अवकाश होता आया है ,यह दोहराने की शायद आवश्यकता नहीं है .

पर मित्र बोलने को विवश भी तो कर देते हैं वह बात अगली बार....

समर्थन :  Manju Pandya

सुप्रभात .

सुमन्त पंड्या

भिवाड़ी .

29 मार्च 2015 .

#बनस्थलीडायरी

#जैन

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बात पुरानी , पोस्ट गए बरस की , आज फिर से विचारार्थ प्रसारित और प्रचारित

स्टेटस अपडेट :

प्राइवेट काफी डन @ गुलमोहर कैम्प , जयपुर .

सुमन्त पंड्या

गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .

मंगलवार 29 मार्च 2016.

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#स्मृतियोंकेचलचित्र #जयपुरडायरी

गए बरस की बातें याद करते हुए आज का अपडेट :

Good morning , private coffee done @ गुलमोहर ।☕

२९ मार्च २०१७ ..

नोट :  आज इस किस्से को ब्लॉग पर साझा किए देता हूं  , देखिएगा ।

गुलमोहर कैम्प , जयपुर से सुप्रभात । ☀️☀️

क़िस्सा ब्लॉग पर साझा ।

Monday, 27 March 2017

बड़े आदमी की बात : जयपुर डायरी 

संयोग से ये पहला क़िस्सा है जो पल्लव की राय लेकर मैंने फ़ेसबुक पोस्ट के रूप में लिखा था और इस क़िस्से पर बहुत अनुकूल टिप्पणियाँ भी आईं थीं । पता नहीं ऐसा क्यों हुआ कि ये क़िस्सा फ़ेसबुक पर तो रहा आया पर ब्लॉग पर दर्ज होने से रह गया । आज इसे बिना किसी अतिरिक्त संशोधन के ब्लॉग पर दर्ज किए देता हूं । अपने लोगों को ब्लॉग का लिंक भी भेजूँगा । इस क़िस्से को लेकर जो जो असमंजस रहे वो भी यहां इंगित हैं । अब तो ज़बानी किस्सागोई में मैंने ये भी कहना शुरु कर दिया है : “ अब जब घर में ही बड़े आदमी नहीं माने गए तो अपण काहे के बड़े आदमी !” जयपुर  २७ मार्च २०१७ । #स्मृतियोंकेचलचित्र #जयपुरडायरी  

असल क़िस्सा :
 -------------- बनास जन ** मेरे घर आये थे । उन्हें बड़े सवेरे उठकर जाना था ।मैंने पूछा 'क्या बड़े आदमी के साथ काफी पीओगे ?'  उन्हें जिज्ञासा हुई कि क्योंकर मै अपने को बड़ा आदमी कह रहा हूँ । जो एक पुरानी बात मैंने बताई वो इस प्रकार थी -

 १. 
उन दिनों मैं सेवा रत था ,केदार के विवाह में सम्मिलित होने के लिए बसवा जाने के लिए निकला था और इस क्रम में सिकंदरा के बस स्टैंड पर उतर कर आगे जाना चाहता था ।मैंने वहां बसवा के लिए बस की बाबत तलाश शुरु की ।  ठेले वालों ने सुझाव दिया कि मैं ओम प्रकाश के पास जाकर पूछ लूं जो चाय की स्टाल चलाता था और रोड़वेज का बुकिंग एजेंट भी था ।मैं ओम प्रकाश के पास पहुंचा ।संवाद शुरू हुआ :   बसवा के लिए बस लेनी है । *अभी एक बस बालाजी से आएगी और एक गंगापुर से जो भी पहले आएगी आपको मिल जाएगी । *टिकट दे दो । उत्तर मिला ." वो तो बस आने पर ही मिलेगा ।" मैं मुड़ने लगा तो ओम प्रकाश बोला ,' बाबूजी आप बड़े आदमी हैं आप टिकट लेते ही रह जायेंगे और बस में जगह भर जाएगी ।आप तो बैठ जाना मैं आपको बस में ही टिकट दे दूंगा । " इस सदाशयता से मैं खुश हुआ ,उसने मुझे बड़ा आदमी भी तो कहा था । बात आई गयी हो गई ।

 २. 
विवाह में सम्मिलित हो मैं जयपुर लौटा । जयपुर में पंड्या अस्पताल जाने के लिए बस स्टैंड पर खड़ा था ।इसी बीच एक रिक्शा वाला आ गया ,बोला : " बाबूजी चलते हो क्या? "  उत्तर दिया * :" भाई मैं तो बस की इंतजार में था ।तुम ले चलो , महावीर मार्ग पर चलना है क्या लोगे ?" उत्तर मिला :"* बाबूजी ! आप बड़े आदमी हैं ,जो चाहो दे देना ।" मैं उसी रिक्शा से गया ।उतर कर मैंने बीस रुपये दिए ।  रिक्शा वाला बोला : " 'पांच तो और देते । " मैंने पांच और भी दिए । आखिर बड़े आदमी से ही तो कोई उम्मीद करता है ।बात आयी गयी हो गयी । 

 ३. 
महीने भर बाद मुझे अलवर जाना था । इस निम्मित्त मैं नारायण सिंह बस स्टॉप पर बस की प्रतीक्षा में खड़ा था । बस आई और कंडक्टर बस से उतर कर टिकट खिड़की की ओर जाते हुए कह रहा था ,' टिकट लेकर बैठना , टिकट लेकर बैठना ।" मैं कंडक्टर से अनायास पूछ बैठा : " क्या मुझे भी खिड़की पर जाना पड़ेगा ??"" उत्तर मिला --" आप तो बड़े आदमी हैं ।आप बैठो ।आपका टिकट मैं ले आवूंगा । " इस बार जब घर लौटा तो जीवन संगिनी से बोला ,'अब अपन भी बड़े आदमी हैं ।एक बार नहीं दो बार नहीं तीन बार ऐसा हो गया लोग बड़े आदमी कहते हैं । जीवन संगिनी बोली :

 " आप बाईफोकल चश्मा लगते हो , बाल भी खिचड़ी हो गए हैं,चाल में भी फ़रक आ गया है ,लोग बूढ़े आदमी को बड़े आदमी कह देते हैं । आप अपने को हाई सोसाइटी वाले बड़े आदमी मत समझो " 

 गुड़मॉर्निंग . प्राइवेट कॉफी डन . सुमन्त . आशियाना आंगन , भिवाड़ी . 8 जुलाई 2015. ------------------------------ 
 आज की भोर में उठकर ये विचार आया कि एक बार को उस पोस्ट को दुबारा प्रकाश में लाऊं जो मैंने पहली पहली बार एक यशस्वी सम्पादक की प्रेरणा से फेसबुक पर दर्ज की थी . जबानी अपने जीवन में घटे वाकयों की कहानी तो मैं लोगों को सुनाता रहा था , फेसबुक पर दर्ज करने का वो पहला ही मौक़ा था .. तब से अब में मेरे मित्रों की संख्या बढ़ी है . ये सोचकर ही ऐसा करने का मन बना . चाहता तो ये भी हूं कि इसे एक ब्लॉग की शकल मिल जाए लेकिन तकनीकी जानकारी की कमी के चलते अभी ये संभव नहीं हो पा रहा . जानकारों से उम्मीद करता हूं कि कभी इस काम के लिए समय निकाल कर मेरे बिखरे सामान को इकठ्ठा करेंगे . जानकार ढूंढने मुझे कहीं और नहीं जाना पडेगा . घर के बच्चे जमाने भर को ऐसी सलाह और सहायता देते आए हैं वे ये काम भी कर डालेंगे . तो आगे आएगी पुरानी पोस्ट : 
 सुप्रभात . सहयोग : Manju Pandya सुमन्त पंड्या Sumant Pandya. 8 जुलाई 2015 . नोट : क्रम थोड़ा उलट गया है , भूमिका परिशिष्ट की तरह बाद में जुड़ गई है और पोस्ट पहले आ गई है , सुधि पाठक मेरे इस तनीकी अज्ञान को दरगुज़र कर बात को समझेंगे . **बनास जन पत्रिका के यशस्वी संपादक डाक्टर पल्लव से अभिप्राय है . 
--सुमन्त #बनासजन #बड़ेआदमी ---------------------------------------

Saturday, 25 March 2017

नेहरू गार्डन में सेल्फी राम रामी की खातिर ।

मारोगे क्या बाबू जी : जयपुर डायरी .

सिटी बस में यात्रा : दो . *************** **  #sumantpandya #जयपुरडायरी शताब्दी ही नहीं सहस्राब्दी भी बदल रही थी , मेरी शारीरिक क्षमताओं में भी बदलाव आ रहा था पर सिटी बस में यात्रा करने की आदत को अभी भी मैंने छोड़ा नहीं था . उसी दौर की दो बातें बताकर इस सिटी बस यात्रा प्रसंग को आज समाप्त करता हूं , कल से कोई और बात करूंगा .

 (1)  मंगलवार का दिन था , सुबह का समय था और मैं जयपुर आया था . लक्ष्मी मंदिर पर जब बनस्थली से आने वाली बस रुकी तो मैं भी और सवारियों के साथ उतर लिया . आदत से बाज न आना था सो न आया . यूनिवसिर्टी मार्ग आने के लिए रोड़वेज की सिटी बस में सवार हो गया . सिटी बस का कायदा होता है सवारी बस के पिछले दरवाजे से बस में चढ़े, वहीं कंडक्टर बैठा होता है उससे टिकिट लेवे , आगे के दरवाजे से उतरे . मेरा बस में सवार होना और टिकिट लेना ये कार्यक्रम तो सही से हो गया संघर्ष तो आगे करना था . मैं आदतन कहा करता था :' मैं चलता हूं तो मेरे साथ सारा देश चलता है .' उस दिन ये बात बहुत शिद्दत से महसूस हुई . मेरे लिए तो मंगलवार का दिन छुट्टी का था मगर जयपुर में तो ये दिन 'कार्य दिवस ' था . सारे जयपुरवासी मानो मेरे सहयात्री बन गए थे. मैंने भरसक प्रयास किया कि यूनिवर्सिटी मार्ग आने से पहले बस के अगले दरवाजे पर पहुंच जावूं पर होनहार को कुछ और ही मंजूर था . जब तक मैं उतार गेट पर पहुंचता बस नारायण सिंह स्टैंड पर पहुंच गई थी . गंतव्य से दूर तो आ गया था पर अब बस मुझे छोड़ने वांछित स्टैंड पर लौटकर तो जाने से रही थी अतः वहीँ उतर गया और सोचने लगा कि अब क्या हो . अब मैंने दक्षिण दिशा का रुख किया और पैदल पैदल वापिस चल दिया यूनिवर्सिटी मार्ग की दिशा में . बैग कंधे पर लटक रहा था छतरी साथ थी , कुछ देर को छींटे भी पड़ने लगे सो छतरी काम आई . जस तस घर पहुंचा , विलम्ब हो गया था , घर पर अम्मा फिकर कर रही थी . खैर अम्मा की चिंता दूर हुई अब क्या कहता कि क्यों देर हुई . हमेशा की तरह जब ये बात जीवन संगिनी को बताई तो उन्होंने अपना विचार कहा और उचित ही कहा," लक्ष्मी मंदिर उतर कर रिक्शा नहीं ले सकते थे , बस में बैठने की जरूरत ही क्या थी ?"

 (2) ये शाम को जयपुर पहुंचने का प्रसंग है . हमेशा की तरह लक्ष्मी मंदिर पर बनस्थली की बस से उतरा . उस समय एक प्रायवेट मिनी बस राम बाग़ की दिशा में जाने को खड़ी हुई थी , भीड़ भी नहीं थी और कम से कम वहां से तो बस के रवाना होने की ही तैयारी दीख रही थी सो मैं उस बस में चढ़ गया . मेरे बाएं कंधे पर हमेशा की तरह मेरा बैग लटक रहा था और बाकी आपात स्थिति से निपटने को मेरा बांया हाथ खाली था . मैं बामुश्किल बस में चढ़ा होऊंगा कि ड्राईवार ने बस चला दी . मुझे औसाण आ गया और मैंने बांये हाथ से ही लग्गा पकड़ लिया पर मेरा बैग कंडक्टर के सिर से बुरी तरह टकराया और उसके सिर में बिजलियां चमक गयीं . गलती ड्राईवार की भुगतना पड़ा कंडक्टर को . मैं तो खैर बच गया वरना गिर भी सकता था . उस क्षण जो संवाद हुआ वह उल्लेखनीय है . कंडक्टर बोला:
 "मारोगे क्या बाबू जी ?"
 " मरेंगे तो बाबूजी , पर जाएंगे तेरे ही कंधे पर ." मैं बोला था और भी बोला :
  " कम्बखत ऐसे मोटर चलाते हैं क्या ? मुझे साबुत , वन पीस यूनिवर्सिटी मार्ग पर उतार देना , तुम लोगों को मोटर हांकने की बड़ी जल्दी रहती है !"
 यूनिवर्सिटी मार्ग पर ड्राइवर और कंडक्टर दोनों अलर्ट रहे . कंडक्टर युवक मुझे उतारने को खुद बस से उतरा और ड्राईवर ने भी मेरे सुरक्षित उतरने तक बस रोके रखी .
 मैं उस रात सुरक्षित अपने घर बापू नगर शिवाड़ एरिया पहुंच गया .
 सतत समर्थन : Manju Pandya #सिटीबसमेंयात्रा सुप्रभात  Good morning. सुमन्त . आशियाना आँगन , भिवाड़ी . 26 मार्च 2015 ******** 

 गुलमोहर , जयपुर से सुप्रभात 🌅 नमस्कार 🙏 

 किस्सा ब्लॉग पर दर्ज किए देता हूं । रविवार 26 मार्च 2017 । ***************

Friday, 24 March 2017

मरखनी गाय की कहानी : जयपुर डायरी ।😊

सिटी बस में यात्रा :  एक.    #sumantpandya    #जयपुरडायरी ******************* मरखनी गाय की कहानी : 😊 ******************

ये पिछली शताब्दी के उन दिनों की बात है जब बहुत सहज ही जयपुर शहर की सिटी बसों में  यात्रा कर लिया करता था . बजाजनगर जाने को खचाखच भरी सिटी बस में  अजमेरी गेट से मैँ चढ़ा था , बैठने को जगह नहीं थी और मुझे उसकी दरकार भी नहीं थी . इतने में एस एम एस अस्पताल   के आस पास मेरे कानों में एक आवाज आई    " अंकल - अंकल " . मैं नहीं समझा कि मुझे ही कहा जा रहा है पर जल्द ही समझ गया कि अब मेरा भी ' अंकलीकरण' हो गया है , मुझसे कुछ छोटा युवक मुझे ही आंख के इशारे से समझा रहा था कि मैं वो सीट ले लेने को तत्पर हो जावूं जो ठीक उस खड़े युवक के नीचे खाली होती दीख रही थी . बड़ी बात ये कि सीट पूरी तरह युवक की पहुंच में थी पर उसने  बजाय कब्जा ले लेने  के मुझे बुलावा भेजा , मैं बस में पीछे की ओर खड़ा था . इधर सीट खाली होने की प्रक्रिया ठीक उस युवक की नाक के नीचे चल ही रही थी कि बस के आगे की ओर से एक अन्य प्रक्रिया का सूत्रपात हुआ .

एक सक्षम और जबरजंग युवती बस में आगे की ओर से इस खाली हो रही सीट की ओर लगभग मरखनी गाय की तरह इस तरफ बढ़ी कि मैं तो कहूंगा कि सीट खाली होने से भी पहले उसने हथिया ली . पलक झपकते ही परिदृष्य बदल गया और युवक के मंसूबे पर पानी फिर गया . बहरहाल मुझे तो यह स्थिति स्वीकार थी ही , युवक ही कुछ ज्यादा आशावादी था .

जो कुछ हुआ वो अप्रत्याशित था . उपसंहार के रूप में युवक ने मेरी ओर  मुस्कुराकर देखा और मैं भी मुस्कुरा  दिया साथ ही मैंने मेरे मन में कहा : "सुमन्त , एक सीट तू रोके बैठा है जो वरीयता के आधार पर शायद किसी महिला को मिली होती यहां ऐसे सही ."

फिर एक बार स्पष्ट कर दूं कि ये उस दौर की बात है जब गर्ल्स काँलेज में पढ़ाते हुए मुझे कई एक साल बीत गए थे .

यदि इस पोस्ट में कोई भी बात आपत्तिजनक पाई गई तो मैं इसे हटाने को भी राजी होऊंगा , वैसे मैंने जो तब महसूस हुआ था वही लिखा है .

समीक्षार्थ  प्रस्तुत  :  Manju Pandya

सुप्रभात . Good morning .

सुमन्त आशियाना आंगन , भिवाड़ी . 25  मार्च  2015 . ~~~~~~~ बात पिछली शताब्दी की , पोस्ट गए बरस की और अनुभव  विलक्षण . आज मेरी ओर से प्रातःकालीन सभा में पुनः विचारार्थ प्रस्तुत है . 25  मार्च 2016 . गुलमोहर , जयपुर . ------------ ये स्टोरी जाएगी आज ब्लॉग पर , गुलमोहर कैम्प जयपुर से सुप्रभात 🏰 शनिवार 25 मार्च 2017 .

प्रतीक स्वरूप गौ माता के दर्शन । 

Thursday, 23 March 2017

नंगम नंगा : जयपुर डायरी

   नंगम नंगा  :  जयपुर डायरी --------------------

आज सुबह से थोड़ी खिन्नता है । सब  अपने ही करमों का फल है ।

बात क्या है ? मेरे निजी सेंसर बोर्ड को लगता है कि फ़ोटो बाज़ी ज़्यादा हो गई है और किस्सागोई कम हो रही है , क़िस्से की ठौर फ़ोटू से काम चलाना ठीक नहीं ।

मैं अपना अपराध सार्वजनिक रूप से स्वीकार करता हूं । मैं गिल्टी प्लीड करता हूं ( मेरी क्या मजाल कि नॉट गिल्टी प्लीड करूँ ) ।

पर अब क्या हो ? सज़ा सुनाई जाए  या कुछ और होवे  ?

एक दिन की मोहलत और देवें मी लॉर्ड  ।

कल सुबह तक आ जावेगी मेरी " नंगम नंगा " पोस्ट । अब  अभी हाल तो हवा बनाने को ले ली है ये अगली तारीख़ जो कल की है ।

वैसे आज तो जो जो फ़ोटू जोड़ी वो उन लोगों ने कह कह के जुड़वाई है जिन जिन की फ़ोटू है , पर अपराध तो मेरा ही माना जाएगा मी लॉर्ड ! आई अगेन प्लीड गिल्टी ! अब कल नो फ़ोटू केवल पोस्ट " नंगम नंगा ।"

इस पोस्ट को यहां पोस्ट करने के साथ साथ ब्लॉग पर भी दर्ज करता हूं जिससे सनद रहवे और कल को काम आवे ।

गुलमोहर शुक्रवार २४ मार्च २०१७ .

#स्मृतियोंकेचलचित्र #जयपुरडायरी -----------------------------------

Wednesday, 22 March 2017

ये तो बार की बात छै माट साब ..: बनस्थली डायरी

"ये तो बार की बात छै माट साब ." #sumantpandya

अक्सर  मेरी जबान पर जो पुरानी कही या सुनी बात एक कहावत के रूप में आ जाती है उनमे से एक यह भी है ," ये तो (अ) बार की बात छै माट  साब ! फेर आगै तो ..." इस का अभिप्राय यह है कि माट साब ये तो अभी हाल की कुछ परिस्थितिजन्य बात है अन्यथा  तो क्या कुछ होने वाला है उसका शायद आपको भान भी नहीं होगा .

कहन का उद्भव और चलन :

बनस्थली की पुराने वक्तों की बात है . एक स्थानीय कार्यकर्त्ता  छोटा सरवण ( बदला हुआ नाम ) मेरे बहुत संपर्क में आया . वो समय समय पर प्याऊ लगाने जैसे लोकोपकारक कामों के लिए  अंशदान भी ले गया . एक दिन की बात वो कुछ रुपए उधार मांगने की गरज से 44 रवीन्द्र निवास में आया हुआ था और शायद मैं कोई रकम दे ही बैठता कि अचानक ब्रदर  शिव बिहारी माथुर साब वहां चले आए . परिस्थिति को भांप कर वो मुझसे बोले :

" डोंट एंटर इंटू ऐनी फाइनेंशियल  ट्रांजैक्शन विद दिस मैन ."

मैं संभल गया और लेनदेन से पीछे हट गया . काम बिगड़ता देख छोटा सरवण कुछ खीजा तो सही ही पर ऊपर से बड़ा  चमत्कारिक बोल बोला जो इस प्रकार थे :

" ये तो बार की बात छै माट साब , फेर तो म्हारै कनै ही रिप्या  आ जायला , थे भलांई म्हारै कन्नै हजार रिप्या ले लीज्यो !"

बड़े जबरदस्त आत्मविश्वास से वो जो बोला उसका अभिप्राय यही था कि आगे तो उसके पास रुपए आने ही वाले हैं चाहे तो मुझे हजार रुपए भी दे देगा ये तो अभी हाल उसे कुछ सौ पचास रुपए की कोई जरूरत आन पड़ी है . उस दिन तो बट्टे खाते रुपए गंवाने से ब्रदर ने मुझे बचा लिया था पर मेरी अभिव्यक्ति  में ये कहावत जरूर जुड़ गई और  चल पड़ी :

" ये तो बार की बात छै माट साब......" ~~~ 'माट साब' आदि बनस्थली का एक ऐसा आदर सूचक सम्बोधन हुआ करता था जो प्रोफ़ेसर प्रवीनचंद्र जैन से लेकर मुझ जैसे तक सभी के लिए प्रयोग किया जाता था . माट साब की एक कहानी अगली किसी पोस्ट में बताऊंगा . वास्तव में नसीब से बनते हैं 'माट साब'. ~~~~~

सहयोग और कथा समीक्षा : Manju Pandya #बनस्थलीडायरी

सुप्रभात . Good morning .

आशियाना आंगन , भिवाड़ी . 23 मार्च  2015 . ************* गुलमोहर कैम्प जयपुर से  सुप्रभात  🌅 आज इस किस्से को ब्लॉग पर स्थानांतरित करता हूं  । २३ मार्च २०१७ . *************

Tuesday, 21 March 2017

#स्मृतियोंकेचलचित्र :उदयपुर डायरी .

Good morning & private coffee done @ Gulmohar camp , Jaipur . सुप्रभात ! बचपन की स्मृतियों के संग्रहागार से एक तस्वीर आज जारी किए देता हूं . पूरे पत्ते कल परसों में खोलूंगा . सोशल मीडिया पर उन लोगों को खोजने का प्रयास करूंगा जो इस तस्वीर में दिखाई देते हैं . अभी ये कहते हुए भोर की सभा स्थगित करता हूं कि शाबाश विनोद * जो ये फोटो ढूंढ दी और भला हो जीवन संगिनी Manju Pandya जो आप ने टोका नहीं इस बाबत न तो आप ही तो मेरा निजी सेंसर बोर्ड हो . * Vinod Pandya ~~~~ जयपुर 22 मार्च 2016. ------------------------ नमस्कार 🙏 गए बरस जो फ़ोटो मिली थी आज उसे ब्लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूं । २२ मार्च २०१७ .

Monday, 20 March 2017

औचक कार्रवाई : बनस्थली डायरी .

औचक कार्रवाही #sumantpandya  ~~~~~~~~ ~~~~~~~~~ अचानक एक बहुत पुरानी बात याद आ गई तो लगा कि आज वही बता दूं . बनस्थली से जयपुर की ग्रामीण सरकारी बस सेवा से असंख्य बार यात्रा की उसी से जुड़ी लोक व्यवहार की एक याद है .  बस में एक तरफ तीन सवारी की सीट होती है और दूसरी तरफ दो सवारी की इनमें से मैं दो सवारी की सीट पर ं बैठा था और एक और सहयात्री था . अब ये तो याद नहीं आ रहा कि पहले कौन बैठा था , शायद मैं ही क्योंकि बस बनस्थली से ही शुरु होती थी . उस सहयात्री से मुझे कोई असुविधा नहीं थी , आखिर मुझे टिकने को जगह ही कितनी चाहिए थी . असुविधा प्रारम्भ तब हुई कि सहयात्री ने जेब से बीड़ी - पेटी निकाली और टाइम पास को बीड़ी सुलगा ली . उसने जब एक आध कश खींच लिए तो मैं बोला : " जरा बीड़ी देना तो . "  मुझे सह उपभोक्ता जानकार बड़ा खुश हुआ सहयात्री और उसने सुलगती बीड़ी मुझे दे दी . लोग मिल बांट कर बीड़ी पीते हैं ये भी एक सामान्य प्रचलित रिवाज है , चिलम का तो और भी ज्यादा . भोला सहयात्री मेरे हाथों ठगा गया .   ज्यों ही बीड़ी मेरे हाथ में आई मैंने वही किया जो मन में सोच रखा था . बीड़ी खिड़की से बाहर फेंक दी . सहयात्री ठगा सा मेरे मुंह की तरफ देखने लगा . अब बारी मेरी थी अपनी औचक कार्रवाही को उचित सिद्ध करने की. मैं बोला : " सामने देखो क्या लिखा है ? अगर पांच सौ रुपये का जुर्माना हो जाता तो कैसी रहती? "   जहां ड्राइवर कंडक्टर ड्राइवर सीट के पास बैठकर साथ साथ बीड़ी पीते हों वहां ऐसे कानूनों की तो डेमोक्रेसी रोज ही होती आई है , पर मेरी बात तो सध गई . डिस्क्लेमर और चेतावनी :  ये केवल एक घटना का बयान है कोई मेरी रोज बरोज की आदत का बखान नहीं है . मेरे बच्चों , कभी सहयात्री से ऐसे आमने सामने की भिड़ंत ( फ्रंटल एनकाउंटर ) मत करना . जरूरत पड़ने पर सुझाव देना , निवेदन करना . मेरी तो अटकने और फंदा मोल लेने की आदत है सो कभी ऐसी औचक कार्रवाही कर बैठता हूं . मैं आदत से मजबूर हूं , तुम लोग ऐसे मत करना . संवत्सर की बधाई . #बनस्थलीडायरी #औचक्कारर्वाही सुप्रभात : सुमन्त  आशियाना आंगन , भिवाड़ी . चैत्र शुक्ला प्रतिपदा, वि . सं . 2072 . 21 मार्च , 2015 . ************************* पुराना किस्सा है आज दर्ज करता हूं ब्लॉग पर । @गुलमोहर , जयपुर . 21 मार्च २०१७ . *********************बनस्थली ड़ायरी 

Sunday, 19 March 2017

हमको पता नहीं था ... 

" हमको पता नहीं था , हमें अब पता चला ,इस मुल्क में हमारी हुकूमत नहीं रही ." #sumantpandya #भिवाड़ीडायरी दुष्यंत कुमार ने तो बहुत पहले ही कह दिया था , न जाने क्यों मुझे दुष्यंत आज बहुत याद आ रहे हैं .* * तफसरा आज के हालात पर .  समर्थन और समीक्षा : Manju Pandya #फोटोसुमंत भिवाड़ी डायरी   फ़ेसबुक से उठाया पुराना इंदराज है , समय मिला तो बात आगे बढ़ाऊँगा । गुलमोहर कैम्प जयपुर से आज के दिन नमस्कार 🙏 २० मार्च २०१७ .

पैसे की बाबत : जयपुरडायरी

पैसे की बाबत :           #sumantpandya.      #भिवाड़ीडायरी

उस दिन भिवाड़ी आने से पहले कुछ सौदा लेने पड़ोस के बाजार चला गया . सुबह सुबह का बखत था . तमाम तरह के सामान से दूकान सजी हुई थी , युवा व्यवसाई काउंटर पर बैठा हुआ था . बाबूजी भी आए हुए थे और बैठे अखबार पढ़ रहे थे .सामान लिया पैसे चुकाए और इस प्रक्रिया में कुछ  रुपए पैसे मोल के अलावा भी काउंटर पर बिखर गए . मैं आदत से मजबूर कुछ न कुछ बोल पड़ता हूं . आदतन बोला :

" ये सब यहीं रह जाने के हैं , साथ ले जाने की फैसिलिटी है नहीं . " और कुछ हवाला भर्तृहरि के  नीति शतक का दिया कि धन की गति क्या होती है . मेरे जोड़ीदार बाबूजी  तुरत बोले : " आजकल तो ए टी एम  का ज़माना है ,  कहींभी ले जाओ साब "

इससे बिलकुल भिन्न बोला उनका बेटा जिसे मैंने  युवा व्यवसाई कहा है :

" इनका दिमाग अभी भी ऐसे ही चलता है अंकल , आप कहां ले जाने की बात कर रहे हैं और ये  'कहां' ले जाने की समझ रहे हैं . " मुझे लगा जो बात बाबूजी मेरे अग्रज होकर न समझे ये छोटा कितनी आसानी से समझ गया . मैं भविष्य के प्रति आशान्वित हूं इसी लिए .

युवक इतना तक बोल गया : " इसीलिए तो ये लड़ाई करवाने के काम तक कर  देते हैं. "

मुझे जल्दी थी , चला आया पर सोचता आया शायद इसीलिए तो  भर्तृ हरि ने नीतिशतक के बाद वैराग्यशतक भी लिखा था . और ये सब मुझे पढने को मिला जीजाजी * के  काव्यानुवाद से . * Moolchandra Pathak .

समीक्षाऔर समर्थन : Manju Pandya #पैसेकीबाबत सुप्रभात .

सुमन्त . आशियाना आंगन , भिवाड़ी . 20 मार्च  2015 .

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आज की टीप :

आज इस पोस्ट को एडिट करूंग़ा  और फिर से प्रकाशित  करूंग़ा  , देखिएगा  फिर एक बार 

नमस्कार 🙏

@ गुलमोहर 

सोमवार २० मार्च। २०१७ .

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गुड मोर्निंग पोस्ट : आज बड़ा प्याला काफ़ी का 

इसे कहते हैं ," प्याले में तूफ़ान ☕" Good morning and private coffee done @ गुलमोहर ✅जयपुर ड़ायरी  ✍🏼

Thursday, 16 March 2017

बात करामात : जयपुर डायरी

गए बरस की आज के दिन की बात

छोटी पोस्ट :😊 बड़ी बात . --------- -------------------     #sumantpandya कल दिन में तो इधर उधर जाता आता रहा और शाम को पहुंचा मोहल्ले की दवाई की दूकान आदर्श मेडिकल हॉल पर और मिला उसके प्रोप्राइटर शान्ति भाई से जो वक्त जरूरत के हिसाब से मेरी दवाइयां न केवल मंगवा कर देते हैं बल्कि गाड़ भीड़ में घर पहुंचा देने का भी  माद्दा रखते हैं . मैं तो जहां जाता हूं दवाई वालों से याराना हो ही जाता है , वैसे उनकी विनम्रता कि शान्ति भाई मुझे बाबूजी कहते हैं और कुर्सी छोड़कर हाथ जोड़ कर अभिवादन करते हैं . मैं भी शेखी बघारने को अपने को " बल्क कंज्यूमर ऑफ मेडीसिन  " कह देता हूं और देखो अजब बात के शान्ति भाई मेरे काम की तामील सबसे आखीर में करते हैं और खोटी आदत मेरी के मुझे चुप खड़े रहना नहीं आता . ऐसे ही दौर  की एक बात  बताता हूं , सुन लीजिए और प्रतिक्रिया दीजिए .

एक हम उम्र से ग्राहक मेरे बगल में खड़े अपनी दवाई के लिए तकाजा कर रहे थे और उनकी उद्विग्नता देखकर मैं उनसे पूछ बैठा :

" आप भी मेरी तरह बल्क कंज्यूमर ऑफ़ मेडीसिन हैं क्या ? "

वो डिफेंसिव हो गए और बोले : " नहीं नहीं मैं तो खाली ब्लड प्रेशर की दवाई लेता हूं और लेता हूं प्रोस्टेट की दवाई ."

अब मुझसे बोले बिना न रहा गया और मैं बोला :

" अरे महाराज वृद्धावस्था के आभूषण तो  धारण किए हुए हो  और मुझसे नहीं नहीं कर रहे हो  , ऐसी क्या बात है ."

तभी हम दोनों की बात करामात सुनकर वहां खड़ा एक युवक बोल पड़ा :

" अंकल जी ऐसी बात है दवा और वृद्धावस्था का कोई सम्बन्ध नहीं है मैं ये ही दवा पिछले पांच साल से ले रहा हूं . "

और मैं ने अपनी ओर से एक सिद्धांत प्रतिपादित  कर दिया : प्रतिपादित क्या किया दोहराया जो मैं अक्सर कहता हूं .:

" आजकल बच्चे कुछ ज्यादा ही जल्दी बड़े हो जाते हैं .।।।"

और बहुत बात जोड़नी थी इस पोस्ट में पर समय नहीं है अतः प्रातःकालीन सभा स्थगित करते हुए ..।। सुप्रभात . ------- सुमन्त पंड्या . @ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर .       गुरूवार , 17 मार्च 2016 .

शांति भाई मेरे लिए दवा जुटाते हुए ।

Wednesday, 15 March 2017

जीवन संगिनी  ❤️

जन्मदिन मुबारक हो जीवन संगिनी . Manju Pandya क्षमा करें आज के दिन मैंने मौक़ा पाकर आपकी तस्वीर चुराई है और पता नहीं आप को कैसा लगेगा . साथ ही प्रयासरत हूं कि वो तस्वीर भी जोडूं जब हम कच्चे धागे की माला से आपस में जुड़े थे और कितनी मजबूत सिद्ध हुई ये सूत की माला . अब खेलोगी आप दोहितों के साथ फ़ुटबाल जो भास्कर भेजने वाला है . अब दुरुस्त होओगी आप . सुप्रभात . सुमन्त पंड्या . @ गुलमोहर , जयपुर .  बुधवार 16 मार्च 2016 . ------------------- आज का अपडेट  ऊपर जो आई वो तो गए बरस की फ़ेसबुक पोस्ट है जिसे मैंने आज ब्लॉग पर जोड़ा है , अब आज तो महाराज बात ही और हो गई , कहना न होगा कि धूम धड़ाके से मनेगा  जनम दिन , दिल्ली से भाणजी और कँवर साब अनायास ही आज यहां आ रहे हैं , छोटा वाला एक आध दिन से अभी यहां है ही , वो भी रुकेगा अभी आज तो . शाम को होवे धूम धड़ाका और क्या ! @ गुलमोहर शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जयपुर . गुरुवार १६ मार्च २०१७ . -----------------------------

Tuesday, 14 March 2017

परीक्षा की बातें : बनस्थली डायरी 😊

परीक्षा में ड्यूटी की: बनस्थली की बातें .   #sumantpandya

परीक्षा ड्यूटी के मामले में  थोड़ी कड़ी या कहूं लगभग क्रूर प्रशासनिक  व्यवस्था ने मुझसे  सेवाकाल के अंतिम वर्षों में इन्वीजिलेशन ड्यूटी करवाई  आज उसी के  अनुभव कहूंगा . मेरा भी हमेश मानना रहा कि हमें परीक्षा कक्ष में होना ही चाहिए ,ये काम किसी और को कैसे दिया जा सकता है ?
1.
     एक युवा प्राध्यापक कक्ष में मेरे सहयोगी थे , परिचय हुआ . मैंने उनका विषय और आवास पूछा  . पता लगा वो शारीरिक शिक्षा विभाग में तीरंदाजी ( आर्चरी)  के प्रशिक्षक थे और रवीन्द्र निवास 45 में रहते थे .
याने मेरे सामने वाले घर में ही रहते थे और  परिचय हुआ वाणी मंदिर की तीसरी मंजिल पर जाकर  . अगर मैं ड्यूटी पर न गया होता तो शायद अपरिचित ही रहते . मैंने इतना ही कहा कि यहां तो ऐसा नहीं होता था , हम क्यों शहराती होते जा रहे हैं , यहां तो सब सबको जानते आये हैं . पड़ोस में रहते हो तो मिलते क्यों नहीं  ?  खैर परिचय हुआ तो दुआ सलाम भी शुरु हो गई .
2.
एक बार एक युवा प्राध्यापिका , जो उत्तर प्रदेश से आयीं थीं , मेरी सहयोगी थीं .  जब परीक्षा का समय समाप्त होने आया तो बोलीं :      
" दरवाजा बंद कर दूं , एक दरवाजे पर मैं खड़ी हो जाऊं ताकि कोई छात्रा साथ कापी न ले जाय . "
मैंने कहा : तमाम दरवाजे खुले रखिए  , समय बीतने पर कक्ष से जाने को कहिए , कापी कहीं नहीं जाएगी ये मेरी जिम्मेवारी है .
उनका भी सोचना अपनी जगह था , जहां से वे आयीं थीं वहां कुछ परीक्षार्थी कापी साथ भी ले जाया करते थे .

3 .
एक बार एक युवा पंडित जी साथ थे परीक्षा कक्ष में . गिनती करने में एक कापी कम पड़ी . पंडित जी कुछ चिंतित दिखे, बोले:

"  अब क्या होगा सर ?"

" होगा क्या , अभी सप्लीमेंट्री का एक डोरा काट देता हूं  और हो जाएगी गिनती पूरी  ."    मैं बोला था और  भोले पंडित जी की चिंता दूर कर दी थी .

थी  बात मजाक की ही . कापी कक्ष में ही थी और ठीक से गिनने पर हो  गई पूरी .
आज के लिए इतने ही संस्मरण . इति .

सतत सहयोग : Manju Pandya
#बनस्थलीडायरी

#परीक्षा
सुप्रभात .

सुमन्त
आशियाना आंगन , भिवाड़ी .
15 मार्च 2015 .

वायुसेना के अधिकारी : अब भी घडी के पाबन्द 😊

      ओवैसी वैल्डिंग के बाहर खड़े मित्र राम गोपाल शर्मा , किसी घडी का पुर्जा सुधरवाने आए थे . मिले तो बात याद आ गई जो उन्होंने ही बताई थी , कैसे वो घड़ीसाज बने . भतीजे की पैदाइश पर घर के आंगन में गर्भनाल गाड़ने का जिम्मा उन्हें मिला , प्रतिफल उन्हें एक घडी मिली . उस जमाने की मैकेनिकल चाबी वाली घडी यदा कदा वे एक पुराने घड़ीसाज के यहां  सुधरवाने गए , घडी की मरम्मत देखते देखते वो इस मशीन के बाबत बहुत कुछ सीख गए और एक समय ऐसा आया कि वो एक कुशल घडीसाज बन गए . उन्हों ने विज्ञान में स्नातक की उपाधि ली , वायुसेना में सेवा की , सफल रहे वहां भी . इष्ट मित्रों की  घड़ियां सुधारीं और वायु सेना से  रिटायर होकर घर आ गए . मेरे पडोसी और उल्लेखनीय बात ये कि  मेरे हम उम्र राम गोपाल शर्मा शिवाड़ एरिया में अपने घर के एक कैबिन में घड़ीसाजी करते हैं . मैं उपहार में मिली कई कलाई घडी बरतता हूं , जैसे बाहर जाने से पहले लोग अपनी मोटर कार वर्कशाप में दिखा लाते हैं वैसे मैं अपनी घड़ियां इन्हें दिखा लाता  हूं ,एक जवाब दे जाय तो दूसरी कलाई पर आ जाय . ये तस्वीरें जयपुर से हमारे चलने के पहले की हैं.

समर्थन : Manju Pandya

सुप्रभात . सुमन्त आशियाना आंगन , भिवाड़ी . 14 मार्च 2015 . #घड़ीसाज

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दो बरस पहले आज ही। के दिन  भिवाड़ी  से फ़ेसबुक पर लिखी थी ये पोस्ट  , आज लगा  मेरे हम वयस्क मित्र  राम गोपाल शर्मा बाबत ब्लॉग पर भी लिखा जाना चाहिए  . फ़ेसबुक पर इस लिखत पढ़त  की सराहाना हुई थी  . सराहाना करने वालों में प्रमुख थे भाई साब नरेंद्र  पंड़्या और मीडिया विशेषज्ञ   विनीत कुमार .

आज इसे ब्लॉग पर सचित्र जोड़ने का प्रयास है  .

@ जयपुर 

मंगलवार १४ मार्च २०१७ .

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संध्या वंदन 

नमस्कार 🙏

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Monday, 13 March 2017

पुराने लोग : जयपुर डायरी 

पुराने लोग  ------------ #sumantpandya       उस दिन घर घंटी चलाने का औसाण नहीं था और मैं टोंक रोड पर अग्रवाल ट्रेडर्स के पिसा पिसाया आटा खरीदने चला गया था ये तो उस दिन की बात है वरना आज दिन तो पांच दस किलो आटा पीस कर धर दिया मैंने बच्चे आएंगे तो चाहिएगा करके . बात चली राजेश उस दिन नहीं था जो अक्सर मिलता है दूकान पर मैंने जब पूछा के बॉस कहां हैं तो उपस्थित व्यक्ति बोला के देर से आएंगे . खैर जो मिला वो उसी का छोटा भाई आनंद था . अपने क्या है वो नहीं ये सही उसी से ले लिया सामान और उसी से कुछ बातचीत हो गई और मैंने एक सिद्धांत प्रतिपादित किया कि जहां संतोष है वहीँ आनंद है . इसमे गहरी बात छिपी थी . लंबी चर्चा हुई पर अब वो यहां दोहराऊंगा नहीं . अपने नाम से जुड़ी चर्चा से आनंद खुश हुआ . फिर क्या हुआ ? ----------------- मैंने पांच किलो गेहूं का आटा साथ में आधा आधा किलो मक्का और बाजरे का आटा और इतना ही नहीं कुछ मात्रा में बाजरे की कुटी हुई खिचड़ी अपने झोले में रखवाई और बाएं कंधे पर लटकाई तो आनंद बोला :     “ पुराने जमाने के लोगों की ये ही खसियात होती है ...।” और और जाने क्या क्या बोला आनंद उसे जाने दीजिए , करने को वो तारीफ़ ही कर रहा था पर असल ये कि इस लडके ने मुझे पुराने जमाने का कह दिया था और ये ही मेरे अटकने की वजह थी . “ अरे मेरे सामने ही मुझे पुराने जमाने का कह रहा है आनंद जब कि मैं तो समझता हूं कि मैं भी इसी जमाने का हूं . “😊 वो बोला और अच्छा बोला : “ मैं जो कह रहा हूं आपके पुराने अनुभव की बात कह रहा हूं कोई आप को आउट ऑफ डेट थोड़े ही कह रहा हूं . “ मैंने कहा " मानी तेरी बात आनंद ! '  और फिर मैंने कहा के चलते चलाते ढेर सा पानी और पिला दे बेटा और मैं फिर घर चला आया था . इतनी ही कसर रह गई कि ये नहीं कहा मैंने :    “ ज़माना हम से है जमाने से हम नहीं . “ आप पूछ रहे हैं फ़िल्मी जुमला क्यों ? वो तो आजकल चलन है इसलिए . आज की बात समाप्त . प्रातःकालीन सभा स्थगित  सुप्रभात  जीवन संगिनी को समर्पित आज की पोस्ट :Manju Pandyaa --------- सुमन्त पंड्या  @ गुलमोहर , शिवाड़ एरिया , बापू नगर , जगपुर        रविवार 13 मार्च 2016 . --------------------- गए बरस की आज की पोस्ट ब्लॉग पर छापे दे रहा हूं । सोमवार १३ मार्च २०१७ . --------------------------------

Sunday, 12 March 2017

मोती पार्क में हाज़िरी दर्ज की अम्बरीश ने : जयपुर डायरी .

 मोती पार्क के रेग़ूलर्स का साथ . सब कुछ का श्रेय अम्बरीश को . ये तस्वीरें तो कल ही दर्ज हो जानी चाहिए थी ब्लॉग पर परंतु सेंसर से अप्रूवल में देर लगी . चक्रपाणि , रश्मि और अम्बरीश तो मिले मोती पार्क में जो अम्बरीश की ली फ़ोटोओं में दीख ही रहे हैं , फिर गए थे सोना अविनाश एनक़्लेव जहाँ मिले वेणी भाभी जी और अंजलि .   इस प्रकार हुई थी कल सुबह दिन की शुरुआत . अम्बरीश तो परसों ही हैलो मैसेज भेज चुका था इसलिए मोती पार्क तो जाना ही था . जयपुर डायरी . ----------------------------------------------------------

Saturday, 11 March 2017

बैचरर्स किचन : बनस्थली डायरी

बातें बनस्थली की : बैचलर्स किचन .  #बनस्थली डायरी #स्मृतियोंकेचलचित्र

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आज की तारीख में विनीत कुमार लन्दन पहुंचा हुआ है वैसे वो बैचलर्स किचन का मास्टर शैफ़ है और इस बाबत खूब लिखता है .

इधर मुझे लगा कि क्यों न इस प्रसंग में मैं अपने खट्टे मीठे अनुभव जोड़ कर एक पोस्ट बनाऊं सो ये ही किस्से लिखने बैठा हूं .

(1)

परनामी और गौतम के साथ :

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अंग्रेजी विभाग के परनामी और गौतम दो युवा प्राध्यापक उन दिनों मेरे साथी थे . परनामी का तो तब तक  विवाह ही नहीं हुआ था , मुसीबत का मारा गौतम अपनी पत्नी और बेटी को मां बाप के पास छोड़ आया था और उसके घर में रोटियों का कोई इंतजाम ही नहीं था .

परनामी की छोटी बहन साथ रहती थी पर शायद उस दिन वो भी बाहर गई हुई थी .

मेरे कब्जे में 44 रवीन्द्र निवास था और उस दिन तो रसोई पर भी मेरा एकाधिकार था , जीवन संगिनी वहां नहीं थी , अब ये याद नहीं कि वो जयपुर आई हुई थी या अलवर गई हुई थी . बहर हाल हम तीन साथी छड़े और अपने भोजन का इंतजाम करने को स्वतन्त्र थे , कहिए मजबूर थे .

कैसा विरोधाभास है हमारी स्वतंत्रता ही हमारी मजबूरी थी .

ऐसे में परनामी और गौतम ने घोषणा कर दी :

"सुमंत के  यहां चलते हैं , वहां चलते हैं , वहीँ खाना बनाएंगे और खाएंगे ."

मुझे ऐतराज ही क्या हो सकता था , दोनों यार अलग विषय के चाहे रहे हों , हम लोग एक ही विश्वविद्यालय के पढ़े हुए थे और एक ही  परिसर में काम करने आ गए थे . तो साब हम आ गए 44 रवीन्द्र निवास में . अब संसाधन मेरे थे और रोटी सब्जी  तैयार करने की भूमिका बाकी दोनों की .

गौतम ने सब्जी का जिम्मा लिया और परनामी ने रोटी का . उस दिन सब्जी के नाम पर गाजर और मटर ही घर में उपलब्ध थे , आलू जैसा कोई पदार्थ घर में नहीं था इस बाबत दोनों ने मुझे धिक्कारा पर शाम पड़े अब क्या हो सकता था . वो इसी की सब्जी बनाने लगे .

उन दिनों डालडा नाम का बनस्पती घी घर में पाया जाता था , था घर में उपलब्ध , मुझे सब्जी में डालडा बरतने के सुझाव पर कंजूस घोषित करते हुए दोनों ने देशी घी में ही सब्जी बनाने का निर्णय लिया . सरसों के तेल का प्रस्ताव भी गिर गया . मेरा हर प्रस्ताव दो तिहाई  बहुमत से गिरता रहा और सब्जी भी देशी घी में ही बनी आखिरकार .

देशी घी : उन दिनों देशी घी चौबीस रूपए का दो किलो आने लगा था और ठाकुर अभय सिंह जी मुझे वक्त  जरूरत अपने घर या पड़ोस से ला दिया करते थे .

डब्बा भरा रखा था और यार लोग इसे बरतने को उद्यत थे .

सतपुड़ा के परांवठे :

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परनामी ने आटा लगाया और साधारण रोटी बनाने का विचार रद्द करते हुए  सतपुड़ा के परांवठे बनाने का संकल्प व्यक्त किया जो ऐसे बने जैसे आज कल होटलों में लच्छा परांवठा मिलता है उसका बाप !

लोया रोटी की तरह बेल कर उसको घी से चुपड़ा गया . बीचों बीच से शुरू कर परिधि की  और कुरचे से काटा गया और फिर इस तरह रोल किया गया कि बार बार घी लगाकर बेलने पर उसके सात परत बन गए और जब घी की सहायता से लोहे के तवे कर सेका गया तो सुन्दर परांवठा तैयार हुआ .

यही प्रक्रिया दोहराते हुए परनामी ने पर्याप्त मात्रा में सतपुड़ा के परांवठे बना डाले .

उस दिन जो विशिष्ट परांवठे बनाना मैंने परनामी से उस दिन सीखा बाद में भाभी जी और जीवन संगिनी के सामने भी बनाकर मैंने प्रदर्शित किया पर उस रात यारों के साथ डिनर का आनंद तो कमाल ही रहा .

भोजन में कंपनी का बड़ा महत्त्व होता है ये बात उस दिन की आकस्मिक परिघटना से सिद्ध हुई  थी .

आज की भोर में ले दे कर ये एक ही किस्सा लिखा जा सका . आगे ऐसे और किस्से आएंगे जिनमें और पात्र भी प्रकट होंगे .

प्रातःकालीन सभा अनायास स्थगित ,

(क्या करें टैम नहीं है .)

इति.

समर्थन और अपार सहयोग : मंजु पंड़्या .

सुमन्त

जयपुर .

25 मई 2015 .

कभी एफ बी के लिए बनाई थी ये पोस्ट  ।  आज सामग्री को क़ुखेरते हुए लगा  इसे ब्लॉग पर जोड़ा जाना चाहिए , ऐसे में इसे ब्लॉग पर टीपने की। कोशिश करूंग़ा .

@ जयपुर   ११ मार्च २०१७ .

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इश्यो तिश्यो मन भावै न ....

राजस्थानी कहावतें .

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गए दिनों प्रियंकर जी ने बहुत अच्छी राजस्थानी कहावतें  फेसबुक पर उद्धृत कीं और जरूरत पड़ने पर उनकी व्याख्या भी की  तो बड़ा अच्छा लगा . एक  छोटा सा प्रयास इसी सन्दर्भ में ये भी है . मुझे केवल इस बात का डर है कि इन कहावतों को कहीं सेंसर बोर्ड ( मेरा अपना सेंसर बोर्ड ) रद्द न कर देवे . उस  स्थिति में मैं तत्काल प्रभाव से इस पोस्ट को हटा लेवूंगा . अभी हाल के लिए दो कहावतें विचारार्थ रखता हूं .

1.

--- इशो तिशो .....

विवाह की आयु निकल रही थी और विवाह नहीं हो रहा था.

" किसका ?"

उसे रहने दीजिए , उससे क्या काम है . कोई भी इस बात का बुरा न माने इसलिए मैं कुछ नहीं कहूंगा .

मैंने तो स्थिति के स्पष्टीकरण के लिए एक कहावत कही थी वही दोहराता हूं :

" इशो तिश्यो मन भावै न , अर मोत्यां  वाळो आवै न ."

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पहली कहावत का अर्थ है ( इशो तिश्यो ...)  कि  ऐसा वैसा तो मन को भाता नहीं और मन भावन , मोतियों वाला आता नहीं . कहावत हर उस परिस्थिति पर चरितार्थ है जब सामने उपलब्ध स्वीकार न   हो और मनचाहा विकल्प मिलता न हो .

2.

-- बाई सा का ....

लेकिन विवाह तो हो गया , मेरी कही कहावत उस दिन रद्द हो गई .

मुझसे पूछा गया ,' अब क्या कहते हो? '

मैंने उस दिन दूसरी कहावत दोहराई थी :

" बाई साब का कंवार  गिरह उतरगा अर  कंवर साब की रिबरिबी मिटगी ."

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ये सुविधा का संतुलन वाली बात है .

ये केवल कहावतें हैं , जीवन अनुभव पर आधारित , किसी को भी आहत करने के लिए नहीं हैं .

कुछ कहावतें मेरी अपनी  गढ़ी  हुई हैं , समय आने पर उन्हें भी साझा करूंगा . कुछ एक तो पहले साझा की भी हैं .

प्रातःकालीन सभा स्थगित .

इति.

सुप्रभात .

समीक्षा : मंजु पंड्या .

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सुमन्त पंड्या .

आशियाना आंगन , भिवाड़ी .

11 अगस्त 2015 .

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फेसबुक पर सराहना मिली थी इस पोस्ट को ।

आज इसे जस की तस अपने ब्लॉग पर साझा करता हूं  ।

@ जयपुर

 ११ मार्च २०१७ .

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गांव के स्कूल का किस्सा : बतर्ज भास्कर : बनस्थली डायरी

            😊😊 देखा सुना : गांव के स्कूल का किस्सा : बतर्ज भास्कर .

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   गांव के स्कूल का परीक्षा कक्ष  :

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माट साब कस्बे से चल कर परीक्षा में ड्यूटी करने आए है  स्कूल में  . हो गई कक्ष में परीक्षा शुरु . कापी पेपर बांट दिए और अब कमरे के दरवाजे के पास कुर्सी लगाकर डटे बैठे हैं माट साब . दरवाजे के पास कुछ हवा तो लगे , कमरे में तो कोई पंखा भी नहीं है . छोरे कर रहे हैं अपना काम सुविधा देखकर . अगर कोई सामग्री साथ लाए हैं तो उसको भी बरत रहे हैं  अब माट साब तो अपनी जगह से उठकर आने से रहे  , छोरे माट साब की इज्जत भी करते हैं और लिबर्टी भी लेते हैं . अब एक छोरे ने जब काफी कुछ सामग्री बरत ली तो माट साब हरकत में आए और बोले :

😊😊 “ छोरा ! करै  मन्नै ! न त रै देख आवूं छूं देख ! “

छोरा  , इत्ते कहे से कब  मानने वाला था  छोरा वो भी जिद्दी , करता रहा अपनी मन मानी  और माट साब को झुल्ला देता रहा :

😊” माट साब ! थोड़ो सो और कल्लेबा द्यो ! अजी माट साब .”

थोड़ी देर और हो  गई , फिर लगाई हांक माट साब ने  और फिर बोले :

😊” देख छोरा करै मन्नै  ! न त रै देख आवूं छूं देख ! “

अब आप पूछे बिना न मानोगे ,” फिर क्या हुआ ? “

😢😢 होना क्या था  , माट साब ने उठ के जाने का श्रम नहीं किया , छोरा माना नहीं  , और छोरों को लाइसेंस और मिल गया .

ऐसे ही  चली परीक्षा  .

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सुप्रभात

सुमन्त पंड्या .

जयपुर

गुरूवार  28 अप्रेल 2016 .

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आज इस किस्से को अपने ब्लॉग पर दर्ज किए देता हूं ।

संध्या वंदन 🔔🔔

@ जयपुर

    ११ मार्च २०१७ .

Friday, 10 March 2017

विश्वविद्यालय से लेखानुभाग़ तक : बनस्थली डायरी .

विश्वविद्यालय से लेखानुभाग तक : मेरी पिछली पोस्ट में बात मेरी अटकती कलम से शुरु होकर लेखानुभाग पर ख़त्म हुई थी , वो बात तो अभी चलेगी लेकिन आज एक और प्रसंग पर चर्चा जो रोचक भी है और कुछ हद तक प्रासंगिक भी . सन 2000 में शताब्दी तो बदल ही रही थी सहस्राब्दी भी बदलने जा रही थी . भारत के संविधान के पचास वर्ष पूरे हो गए थे और संविधान संशोधन परिवर्तन जैसे मुद्दे अकादमिक जगत में सेमीनार का विषय बनाए जा रहे थे . इसी क्रम में राजस्थान विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग ने भी एक सेमीनार का आयोजन किया था और मैं भी उसमे भागीदारी करने गया था . जयपुर जाना और बोलना मुझे अच्छा लगता था सो गया और विश्वविद्यालय के आयोजन में व्यस्त रहा . वहां अब कमल साब , जो मेरे जमाने के टीचर थे अब विश्विद्यालय के कुलपति थे , मुझसे पूछने लगे : सुमन्त , इतने दुबले कैसे हो गए ? मैं बोला: सर , देश की तो ऐसी हालत हो रही है और आप मुझसे पूछ रहे हैं कि दुबले क्यों हो गए . तब तो दोपहर के भोजन का समय था बात आई गई हो गई . शाम के सत्र में मुझे भी भागीदारी करनी थी पर मेरा नम्बर आ पायेगा ऐसा मुझे लगा नहीं , वहां युवक युवतियों में अपना अपना पर्चा लगवाने की होड़ थी ताकि उनके केरियर में उसे गिनाकर कुछ इज़ाफ़ा हो . मेरा तो पेपर भी छपकर तैयार नहीं था , बदले समय में मुझे जानने वाले यहां कम रह गए थे . पेपर लगाकर श्रेय लेने की कोई जरूरत भी अब मुझे नहीं रह गई थी . मैं तो शांतिपूर्वक सब कुछ सुन रहा था कि अचानक सदारत कर रहे प्रोफ़ेसर साब ने मेरा नाम पुकारा, मैंने अनिच्छा व्यक्त की तो भी वो बोले कि मैं मंच पर आकर कुछ तो बोलूं ही . खैर उनके आग्रह पर मैं गया भी और बोला भी . बोलने को विषय तो अब रीत गया था पर मैं देश में बढ़ रही माफ़िया की भूमिका पर बोला , संविधान की लिखत और जमीनी सचाई के बाबत बोला . मेरा कहना था कि आप करते रहिये संविधान की लिखत पर चर्चा देश तो माफिया चला रहा है जिसे इस सब से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं . धन बल और भुज बल के आगे सब तो नत सिर हैं . और इस प्रकार अपनी बात को दोपहर कमल साब से हुई बात को दोहराते हुए समाप्त किया कि कोई तो हो जो देश के लिए दुबला हो ! सेमीनार तो हो गया , घर लौटा तो अम्मा ने कहा कि मैं दोनों दिन या शायद तीन दिन घर में तो रुक ही नहीं पाया सुबह से ही विश्वविद्यालय चला गया अतः अब एक दिन के लिए मुझे घर में भी रुकना चाहिए , खैर मैं एक दिन के लिए और घर में रुका और लौटकर बनस्थली पहुंचा . लौटने के बाद की दो बातें उल्लेखनीय हैं जो मैं यहां कहना चाहूंगा . 1. एकेडेमिक लीव के साथ कैजुअल लीव नहीं जोड़ी जा सकती अतः सवाल था कि एक और दिन की छुट्टी का क्या हो जो मैंने बढ़ाई थी ? दफ्तर वालों का सुझाव था कि एक दिन की बीमारी की छुट्टी मांग ली जाए जो नियमानुसार स्वीकार्य होगी . पर मेरा कहना था कि मैं बीमार हुआ ही नहीं था तो ऐसा क्यों करूं . दूसरा उपाय था कि मैं चित्रा जी से मिलकर अवकाश की विशेष स्वीकृति प्राप्त कर लूं , जो उस समय विद्यापीठ की निदेशक थीं . मैंने तीसरा विकल्प चुना और वह था कि अपना अवकाश का आवेदन निदेशक कार्यालय को विधिवत भिजवा दिया और वह कुछ समय बाद स्वीकृत होकर आ भी गया और वह बात पूरी हुई . 2. दूसरी बात जो अनायास हुई वो यह कि एक दिन मैं लेखानुभाग में तब के डिप्टी रजिस्ट्रार द्विवेदी जी के सामने बैठा था कि कोई टी ए बिल के भुगतान का मुद्दा आ गया जो विज्ञान संकाय के एक प्रतिष्ठित विभाग से सम्बंधित था और उस मामले में क्या देय है और क्या अदेय है इसकी व्याख्या चल रही थी . वहां पता चला कि यू जी सी की अन असाइंड ग्रांट के नाम पर अब तो सदावर्त्त खुला हुआ है और ऐसी सेमिनारों में भागीदारी का टी ए डी ए उस के प्रावधान से मिल सकता है . मैं भी एक नेशनल सेमीनार में जाकर आया था लेकिन खर्च की पूर्व स्वीकृति नहीं ली गई थी , लेखानुभाग के लोगों का सुझाव था कि यदि मैं भी चाहूं तो सेमीनार में भागीदारी का टी ए डी ए अब स्वीकृत हो सकता है . ले दे कर मैं एक ही तो सेमीनार में तब जाकर आया था मैंने उसके बाबत आवेदन लगा दिया . तत्काल ही केंद्रीय कार्यालय से मुझे उस बाबत स्वीकृति मिल गई . इस प्रकार के बिल बनाना मैं कभी सीख नहीं पाया था और इस लिए स्वीकृति का पत्र , भागीदारी का प्रमाणपत्र और अन्य कागजात लेकर मैं वाणीमन्दिर पहुंचा जहां मेरे मित्र सुरेन्द्र मिश्रा सहायक रजिस्ट्रार थे , अब भी वहीं हैं, उनसे सहायता मांगी कि वे मेरा बिल बबवा देवें . मैंने उनके बाबू लोगों को कहा कि घर जाने के लिए तो कोई खर्चा नहीं चाहिए पर एक जूता जोड़ी नई लाया उसका मोल मिल जावे इतना बिल बन जावे . यहां जूता जोड़ी की बात भी स्पष्ट करता चलूं . जिस दिन जयपुर में अतिरिक्त रुका तो उदय बोला कि बाटा का एम्बेसेडर शू पांच सौ रुपये में सेल में मिल रहा है और आप भी ले लेवो . खैर इस जूते को मैं भी पसंद करता था सो ले आया था . वैसे तो मैं सामान्यतः फुटपाथ पर बिकने वाली देशी जोड़ी ही बनस्थली में पहनता था पर उन दिनों वह नई जोड़ी पहन रहा था . खैर अब बाबूलोग मेरा बिल बना रहे थे और उसमे कोई बढ़ाचढ़ाकर राशि नहीं डाली गई पर बिल जूते की लागत के बराबर पांच सौ का बन गया था. बिल स्वीकृति के लिए गया , स्वीकृत होकर आ गया और मुझे उसका भुगतान भी मिल गया . आते जाते मैं सामान्य रूप से लेखानुभाग का और विशेष रूप से द्विवेदी जी का आभार भी व्यक्त कर आया इस बिल के भुगतान के बाबत . एक दिन लेखनुभाग में द्विवेदी जी से जो संवाद हुआ वो बड़ा रोचक था :  ~ ये वही जूता है सुमन्त जी ? * जी हां वही है , जिसका भुगतान आपने दिलवाया था . ~~ मुलायम है ... ? * जी हां सॉफ्ट है , कम्फर्टेबल है . पर आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं ? द्विवेदी जी ने सवाल फिर दोहराया और जानना चाहा कि जूता मुलायम है कि नहीं . मैंने जानना चाहा कि बार बार ये सवाल क्यों पूछ रहे हैं तो द्विवेदी जी ने मुझे यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि : ~ आखिर झेलना तो हमें ही पड़ता है ! ----------- इस क़िस्से को आज ब्लॉग पर प्रकाशित किए देता हूं  । ११ मार्च २०१७ .   बनस्थली डायरी    --------------

विश्वविद्यालय से लेखानुभाग़ तक  :  बनस्थली डायरी .

विश्वविद्यालय से लेखानुभाग तक : मेरी पिछली पोस्ट में बात मेरी अटकती कलम से शुरु होकर लेखानुभाग पर ख़त्म हुई थी , वो बात तो अभी चलेगी लेकिन आज एक और प्रसंग पर चर्चा जो रोचक भी है और कुछ हद तक प्रासंगिक भी . सन 2000 में शताब्दी तो बदल ही रही थी सहस्राब्दी भी बदलने जा रही थी . भारत के संविधान के पचास वर्ष पूरे हो गए थे और संविधान संशोधन परिवर्तन जैसे मुद्दे अकादमिक जगत में सेमीनार का विषय बनाए जा रहे थे . इसी क्रम में राजस्थान विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग ने भी एक सेमीनार का आयोजन किया था और मैं भी उसमे भागीदारी करने गया था . जयपुर जाना और बोलना मुझे अच्छा लगता था सो गया और विश्वविद्यालय के आयोजन में व्यस्त रहा . वहां अब कमल साब , जो मेरे जमाने के टीचर थे अब विश्विद्यालय के कुलपति थे , मुझसे पूछने लगे : सुमन्त , इतने दुबले कैसे हो गए ? मैं बोला: सर , देश की तो ऐसी हालत हो रही है और आप मुझसे पूछ रहे हैं कि दुबले क्यों हो गए . तब तो दोपहर के भोजन का समय था बात आई गई हो गई . शाम के सत्र में मुझे भी भागीदारी करनी थी पर मेरा नम्बर आ पायेगा ऐसा मुझे लगा नहीं , वहां युवक युवतियों में अपना अपना पर्चा लगवाने की होड़ थी ताकि उनके केरियर में उसे गिनाकर कुछ इज़ाफ़ा हो . मेरा तो पेपर भी छपकर तैयार नहीं था , बदले समय में मुझे जानने वाले यहां कम रह गए थे . पेपर लगाकर श्रेय लेने की कोई जरूरत भी अब मुझे नहीं रह गई थी . मैं तो शांतिपूर्वक सब कुछ सुन रहा था कि अचानक सदारत कर रहे प्रोफ़ेसर साब ने मेरा नाम पुकारा, मैंने अनिच्छा व्यक्त की तो भी वो बोले कि मैं मंच पर आकर कुछ तो बोलूं ही . खैर उनके आग्रह पर मैं गया भी और बोला भी . बोलने को विषय तो अब रीत गया था पर मैं देश में बढ़ रही माफ़िया की भूमिका पर बोला , संविधान की लिखत और जमीनी सचाई के बाबत बोला . मेरा कहना था कि आप करते रहिये संविधान की लिखत पर चर्चा देश तो माफिया चला रहा है जिसे इस सब से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं . धन बल और भुज बल के आगे सब तो नत सिर हैं . और इस प्रकार अपनी बात को दोपहर कमल साब से हुई बात को दोहराते हुए समाप्त किया कि कोई तो हो जो देश के लिए दुबला हो ! सेमीनार तो हो गया , घर लौटा तो अम्मा ने कहा कि मैं दोनों दिन या शायद तीन दिन घर में तो रुक ही नहीं पाया सुबह से ही विश्वविद्यालय चला गया अतः अब एक दिन के लिए मुझे घर में भी रुकना चाहिए , खैर मैं एक दिन के लिए और घर में रुका और लौटकर बनस्थली पहुंचा . लौटने के बाद की दो बातें उल्लेखनीय हैं जो मैं यहां कहना चाहूंगा . 1. एकेडेमिक लीव के साथ कैजुअल लीव नहीं जोड़ी जा सकती अतः सवाल था कि एक और दिन की छुट्टी का क्या हो जो मैंने बढ़ाई थी ? दफ्तर वालों का सुझाव था कि एक दिन की बीमारी की छुट्टी मांग ली जाए जो नियमानुसार स्वीकार्य होगी . पर मेरा कहना था कि मैं बीमार हुआ ही नहीं था तो ऐसा क्यों करूं . दूसरा उपाय था कि मैं चित्रा जी से मिलकर अवकाश की विशेष स्वीकृति प्राप्त कर लूं , जो उस समय विद्यापीठ की निदेशक थीं . मैंने तीसरा विकल्प चुना और वह था कि अपना अवकाश का आवेदन निदेशक कार्यालय को विधिवत भिजवा दिया और वह कुछ समय बाद स्वीकृत होकर आ भी गया और वह बात पूरी हुई . 2. दूसरी बात जो अनायास हुई वो यह कि एक दिन मैं लेखानुभाग में तब के डिप्टी रजिस्ट्रार द्विवेदी जी के सामने बैठा था कि कोई टी ए बिल के भुगतान का मुद्दा आ गया जो विज्ञान संकाय के एक प्रतिष्ठित विभाग से सम्बंधित था और उस मामले में क्या देय है और क्या अदेय है इसकी व्याख्या चल रही थी . वहां पता चला कि यू जी सी की अन असाइंड ग्रांट के नाम पर अब तो सदावर्त्त खुला हुआ है और ऐसी सेमिनारों में भागीदारी का टी ए डी ए उस के प्रावधान से मिल सकता है . मैं भी एक नेशनल सेमीनार में जाकर आया था लेकिन खर्च की पूर्व स्वीकृति नहीं ली गई थी , लेखानुभाग के लोगों का सुझाव था कि यदि मैं भी चाहूं तो सेमीनार में भागीदारी का टी ए डी ए अब स्वीकृत हो सकता है . ले दे कर मैं एक ही तो सेमीनार में तब जाकर आया था मैंने उसके बाबत आवेदन लगा दिया . तत्काल ही केंद्रीय कार्यालय से मुझे उस बाबत स्वीकृति मिल गई . इस प्रकार के बिल बनाना मैं कभी सीख नहीं पाया था और इस लिए स्वीकृति का पत्र , भागीदारी का प्रमाणपत्र और अन्य कागजात लेकर मैं वाणीमन्दिर पहुंचा जहां मेरे मित्र सुरेन्द्र मिश्रा सहायक रजिस्ट्रार थे , अब भी वहीं हैं, उनसे सहायता मांगी कि वे मेरा बिल बबवा देवें . मैंने उनके बाबू लोगों को कहा कि घर जाने के लिए तो कोई खर्चा नहीं चाहिए पर एक जूता जोड़ी नई लाया उसका मोल मिल जावे इतना बिल बन जावे . यहां जूता जोड़ी की बात भी स्पष्ट करता चलूं . जिस दिन जयपुर में अतिरिक्त रुका तो उदय बोला कि बाटा का एम्बेसेडर शू पांच सौ रुपये में सेल में मिल रहा है और आप भी ले लेवो . खैर इस जूते को मैं भी पसंद करता था सो ले आया था . वैसे तो मैं सामान्यतः फुटपाथ पर बिकने वाली देशी जोड़ी ही बनस्थली में पहनता था पर उन दिनों वह नई जोड़ी पहन रहा था . खैर अब बाबूलोग मेरा बिल बना रहे थे और उसमे कोई बढ़ाचढ़ाकर राशि नहीं डाली गई पर बिल जूते की लागत के बराबर पांच सौ का बन गया था. बिल स्वीकृति के लिए गया , स्वीकृत होकर आ गया और मुझे उसका भुगतान भी मिल गया . आते जाते मैं सामान्य रूप से लेखानुभाग का और विशेष रूप से द्विवेदी जी का आभार भी व्यक्त कर आया इस बिल के भुगतान के बाबत . एक दिन लेखनुभाग में द्विवेदी जी से जो संवाद हुआ वो बड़ा रोचक था :  ~ ये वही जूता है सुमन्त जी ? * जी हां वही है , जिसका भुगतान आपने दिलवाया था . ~~ मुलायम है ... ? * जी हां सॉफ्ट है , कम्फर्टेबल है . पर आप ऐसा क्यों पूछ रहे हैं ? द्विवेदी जी ने सवाल फिर दोहराया और जानना चाहा कि जूता मुलायम है कि नहीं . मैंने जानना चाहा कि बार बार ये सवाल क्यों पूछ रहे हैं तो द्विवेदी जी ने मुझे यह कहकर निरुत्तर कर दिया कि : ~ आखिर झेलना तो हमें ही पड़ता है !